क्या सुप्रीम कोर्ट की निर्णय प्रक्रिया RTI अधिनियम के तहत जानकारी के लिए खुली होनी चाहिए?
परिचय: पारदर्शिता और न्यायिक स्वतंत्रता (Judicial Independence) के बीच संतुलन”
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) को सार्वजनिक अधिकारियों (Public Authorities) के कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेही (Accountability) बढ़ाने के लिए लागू किया गया था। हालांकि, यह सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट की निर्णय प्रक्रिया, विशेष रूप से न्यायाधीशों की नियुक्ति और अन्य आंतरिक मामलों से संबंधित, RTI अधिनियम के तहत खुलासा (Disclosure) के लिए खुली होनी चाहिए।
यह मुद्दा पारदर्शिता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता को सामने लाता है।
RTI अधिनियम के तहत सार्वजनिक प्राधिकरण (Public Authority) के रूप में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
RTI अधिनियम के तहत, नागरिकों को किसी भी "सार्वजनिक प्राधिकरण" से जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है, जिसे धारा 2(h) में परिभाषित किया गया है। इसमें संविधान के तहत स्थापित कोई भी प्राधिकरण या निकाय शामिल है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 के तहत स्थापित सुप्रीम कोर्ट वास्तव में एक सार्वजनिक प्राधिकरण है। इसलिए, सिद्धांत रूप में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा रखी गई जानकारी, जिसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित जानकारी भी शामिल है, RTI अधिनियम के दायरे में आती है।
RTI और न्यायिक स्वतंत्रता पर महत्वपूर्ण फैसले (Key Judgements)
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी बनाम सुभाष चंद्र अग्रवाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना था कि क्या कॉलेजियम की निर्णय प्रक्रिया से संबंधित जानकारी RTI अधिनियम के तहत प्रकट की जा सकती है।
कॉलेजियम प्रणाली, जो उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए जिम्मेदार है, को अक्सर पारदर्शिता की कमी के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है।
इस मुद्दे को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण फैसलों का संदर्भ लिया:
1. एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981): यह मामला, जिसे न्यायाधीशों के स्थानांतरण का मामला भी कहा जाता है, सार्वजनिक जानने के अधिकार की व्याख्या के लिए महत्वपूर्ण है। कोर्ट ने कहा कि जनता को यह जानने का अधिकार है कि सार्वजनिक अधिकारी कैसे कार्य करते हैं, खासकर उन मामलों में जो सीधे जनता को प्रभावित करते हैं। हालांकि, इसने संवैधानिक पदाधिकारियों (Constitutional Functionaries) के बीच गोपनीय संचार की सुरक्षा की आवश्यकता को भी मान्यता दी।
2. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017): इस ऐतिहासिक फैसले में कोर्ट ने गोपनीयता (Privacy) के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार (Fundamental Right) के रूप में मान्यता दी। इस फैसले में यह निर्धारित करने के लिए तीन-स्तरीय परीक्षण (Three-fold Test) रखा गया कि गोपनीयता का उल्लंघन (Infringement) करने वाला कोई भी कार्य वैध है या नहीं: (i) कानून का अस्तित्व, (ii) वैध राज्य उद्देश्य (Legitimate State Aim), और (iii) आनुपातिकता (Proportionality)। यह परीक्षण यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण है कि क्या RTI अधिनियम के तहत जानकारी का खुलासा उचित है।
3. CBI बनाम आर.के. डालमिया (1962): इस मामले में "सार्वजनिक हित" (Public Interest) के दायरे पर चर्चा की गई और कैसे इसे कुछ मामलों में गोपनीयता की आवश्यकता के खिलाफ तौलना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि पारदर्शिता महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे संवैधानिक निकायों (Constitutional Bodies) के कार्यों को बाधित करने वाली संवेदनशील जानकारी को जोखिम में डालने की कीमत पर नहीं आना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला: RTI और कॉलेजियम (Collegium)
सुभाष चंद्र अग्रवाल के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के उस निर्णय को बरकरार रखा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) का कार्यालय RTI अधिनियम के तहत "सार्वजनिक प्राधिकरण" है।
कोर्ट ने फैसला दिया कि कॉलेजियम द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण पर लिए गए निर्णयों को, कुछ मामलों में, RTI अधिनियम के तहत सार्वजनिक जांच (Public Scrutiny) के लिए खोला जा सकता है।
हालांकि, कोर्ट ने जोर देकर कहा कि इस तरह के खुलासे को न्यायपालिका की स्वतंत्रता की सुरक्षा और आवश्यक गोपनीयता बनाए रखने की आवश्यकता के साथ संतुलित किया जाना चाहिए।
कोर्ट ने यह भी कहा कि पारदर्शिता और न्यायिक स्वतंत्रता परस्पर अनन्य (Mutually Exclusive) नहीं हैं और जानकारी का खुलासा वास्तव में पारदर्शिता को बढ़ावा देकर न्यायपालिका की विश्वसनीयता को मजबूत कर सकता है।
पारदर्शिता और न्यायिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन (Balancing Transparency and Judicial Independence)
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने इस महत्वपूर्ण संतुलन पर प्रकाश डाला है जो पारदर्शिता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बीच बनाए रखा जाना चाहिए।
जबकि RTI अधिनियम का उद्देश्य पारदर्शिता को बढ़ावा देना है, कोर्ट ने यह मान्यता दी कि न्यायपालिका की कार्यप्रणाली (Functioning) के कुछ पहलू, विशेष रूप से नियुक्ति प्रक्रिया से संबंधित, एक निश्चित स्तर की गोपनीयता की आवश्यकता होती है ताकि न्यायाधीशों के बीच स्वतंत्र और निष्पक्ष विचार-विमर्श (Deliberation) सुनिश्चित किया जा सके।
कोर्ट ने फैसला किया कि प्रत्येक RTI अनुरोध का मूल्यांकन केस-दर-केस (Case-by-Case) आधार पर किया जाना चाहिए, यह देखते हुए कि क्या सार्वजनिक हित में जानकारी का खुलासा गोपनीयता की आवश्यकता से अधिक है। इस दृष्टिकोण से यह सुनिश्चित होता है कि पारदर्शिता को बढ़ावा दिया जाए बिना न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरे में डाले।
पारदर्शिता की दिशा में एक कदम
सुभाष चंद्र अग्रवाल मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम का प्रतिनिधित्व करता है।
कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि सुप्रीम कोर्ट की निर्णय प्रक्रियाओं, जिसमें कॉलेजियम की प्रक्रिया भी शामिल है, को RTI खुलासे के तहत लाया जा सकता है, इससे जनता को यह जानने का अधिकार मिलता है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति और अन्य महत्वपूर्ण निर्णय कैसे किए जाते हैं।
हालांकि, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इस पारदर्शिता को न्यायपालिका की स्वतंत्रता की सुरक्षा के साथ संतुलित किया जाना चाहिए, ताकि न्याय प्रणाली की अखंडता और विश्वसनीयता (Integrity and Credibility) को बनाए रखा जा सके।