राजस्थान न्यायालय शुल्क अधिनियम की धारा 27 : Trust Property से संबंधित वादों में न्यायालय शुल्क

राजस्थान न्यायालय शुल्क और वाद मूल्यांकन अधिनियम की धारा 27 एक विशेष और महत्वपूर्ण धारा है, जो विशेष रूप से विश्वास संपत्ति (Trust Property) से संबंधित वादों में न्यायालय शुल्क (Court Fees) के निर्धारण से जुड़ी है। यह धारा तब लागू होती है जब कोई व्यक्ति या संस्था अदालत में ऐसे विवादों को लेकर जाती है जो किसी ट्रस्ट की संपत्ति, ट्रस्टी का अधिकार, या ट्रस्टी के बीच विवादों से जुड़े होते हैं।
धारा 27 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि ट्रस्ट या धर्मार्थ संपत्तियों से संबंधित मुकदमों में न्याय की प्रक्रिया अधिक खर्चीली न हो और आम जनता को सस्ती न्यायिक राहत मिल सके। आइए इस लेख में हम इस धारा के प्रत्येक भाग को सरल हिंदी में समझें और यह भी देखें कि यह धारा अधिनियम की अन्य धाराओं—जैसे धारा 21 से धारा 26 तक—से कैसे संबंधित है।
धारा 27 की मूल भाषा क्या कहती है?
धारा 27 के अनुसार:
“किसी ट्रस्ट संपत्ति के स्वामित्व (possession) या संयुक्त स्वामित्व (joint possession) के लिए या उसके संबंध में घोषणात्मक डिक्री (declaratory decree) प्राप्त करने हेतु वाद में, चाहे उसमें कोई और राहत भी मांगी गई हो, न्यायालय शुल्क निम्नानुसार लिया जाएगा:
1. यदि संपत्ति का बाजार मूल्य है, तो शुल्क उस बाजार मूल्य के पाँचवे भाग (1/5) पर आधारित होगा, लेकिन अधिकतम 200 रुपये तक सीमित रहेगा।
2. यदि संपत्ति का कोई बाजार मूल्य नहीं है, तो शुल्क 1000 रुपये लिया जाएगा।
प्रावधान: यदि संपत्ति का बाजार मूल्य नहीं है, तो वादी को वादपत्र में एक उचित मूल्य का उल्लेख करना होगा जिससे अदालत अपना अधिकार क्षेत्र तय कर सके।
स्पष्टीकरण: हिंदू, मुस्लिम या अन्य धार्मिक अथवा धर्मार्थ संस्थानों की संपत्ति को ट्रस्ट संपत्ति माना जाएगा और उसके प्रबंधक को ट्रस्टी माना जाएगा।
धारा 27 किन मामलों में लागू होती है?
इस धारा का प्रयोग निम्नलिखित प्रकार के वादों में किया जाता है:
1. ट्रस्ट की संपत्ति पर स्वामित्व या कब्ज़े (Possession) के दावे के मामलों में।
2. ट्रस्टी और पूर्व ट्रस्टी के बीच संपत्ति को लेकर विवाद में।
3. दो या अधिक ट्रस्टी (या ट्रस्टी पद के दावेदारों) के बीच अधिकारों को लेकर विवाद होने पर।
4. जब कोई व्यक्ति केवल एक घोषणा चाहता है कि संपत्ति ट्रस्ट की है या वह स्वयं ट्रस्टी है।
5. ट्रस्ट संपत्ति में साझी हिस्सेदारी (joint possession) के वाद में।
6. जब कोई वादी केवल यह चाहता है कि उसे ट्रस्ट संपत्ति के संबंध में एक declaratory order मिले—चाहे कोई निषेधाज्ञा (injunction) या अन्य राहत न मांगी गई हो।
न्यायालय शुल्क की गणना कैसे की जाती है?
धारा 27 दो परिस्थितियों पर आधारित है:
1. जब संपत्ति का बाजार मूल्य है:
इस स्थिति में, शुल्क संपत्ति के बाजार मूल्य के 1/5 भाग पर आधारित होगा।
लेकिन अधिकतम शुल्क 200 रुपये तक ही होगा।
उदाहरण:
अगर संपत्ति का बाजार मूल्य ₹10,000 है,
तो 1/5 = ₹2,000
परंतु, अधिकतम सीमा 200 रुपये होने के कारण केवल ₹200 ही शुल्क लगेगा।
अगर बाजार मूल्य ₹5000 है,
1/5 = ₹1000
तब भी शुल्क सिर्फ ₹200 होगा।
इससे यह स्पष्ट होता है कि ट्रस्ट संपत्ति पर ज्यादा मूल्य होने के बावजूद न्यायालय शुल्क बहुत ही सीमित और किफायती रखा गया है।
2. जब संपत्ति का कोई बाजार मूल्य नहीं है:
ऐसी स्थिति में न्यायालय शुल्क ₹1000 तय किया गया है।
उदाहरण:
कोई ज़मीन जो किसी धर्मार्थ संस्था को दान में मिली हो और बाजार में उसकी कोई स्पष्ट कीमत तय न हो, तो उस पर वादी को ₹1000 शुल्क देना होगा।
न्यायालय क्षेत्राधिकार के निर्धारण का तरीका क्या है?
जब ट्रस्ट संपत्ति का बाजार मूल्य नहीं होता, तो न केवल शुल्क निर्धारित करना जरूरी है, बल्कि यह भी तय करना होता है कि मुकदमा किस न्यायालय में चलेगा।
ऐसी स्थिति में यह जिम्मेदारी वादी की होती है कि वह वादपत्र में संपत्ति का एक अनुमानित मूल्य (estimated value) लिखे। उसी आधार पर यह तय होगा कि वाद किस स्तर की अदालत में दाखिल किया जाएगा—उदाहरण के लिए सिविल जज जूनियर डिविजन, सीनियर डिविजन या जिला न्यायालय।
स्पष्टीकरण – ट्रस्ट संपत्ति का क्या अर्थ है?
इस धारा में स्पष्ट किया गया है कि:
• हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई या किसी भी अन्य धार्मिक संस्था या धर्मार्थ संस्था की संपत्ति ट्रस्ट संपत्ति मानी जाएगी।
• ऐसे ट्रस्ट की संपत्ति के प्रबंधक, चाहे वे पुजारी, मुअज्जिन, न्यासी, सचिव, या कोई अन्य पद पर हों—उन्हें ट्रस्टी माना जाएगा।
इसका अर्थ यह है कि:
• मंदिर की भूमि
• मस्जिद का चबूतरा या वक्फ संपत्ति
• धर्मशालाओं की भूमि
• गरीबों के लिए बने अस्पताल या स्कूल की भूमि
• सार्वजनिक उपयोग के लिए दान की गई ज़मीन
—ये सभी ट्रस्ट संपत्ति की श्रेणी में आती हैं और धारा 27 उन पर लागू होती है।
अन्य धाराओं से तुलना और संबंध
धारा 21 – धन की मांग से संबंधित वाद:
धारा 21 में किसी भी प्रकार के धन (जैसे मुआवजा, किराया, वेतन) की मांग से जुड़े मामलों में शुल्क सीधे उस राशि पर आधारित होता है जो वादी ने मांगी है।
धारा 22 – भरण-पोषण और वार्षिकी:
इस धारा में सालाना भुगतान वाली राशियों पर शुल्क की गणना की जाती है, जैसे भरण-पोषण की मांग या वार्षिकी की मांग।
धारा 23 – चल संपत्ति से संबंधित वाद:
जहाँ वादी किसी गहने, सामान, दस्तावेज़ आदि को पाने की मांग करता है, वहाँ शुल्क संपत्ति के मूल्य या वादी द्वारा तय की गई राशि पर आधारित होता है।
धारा 24 – घोषणात्मक वाद (Declaration):
अगर वादी केवल यह चाहता है कि कोई कानूनी अधिकार घोषित किया जाए, जैसे कि संपत्ति उसकी है, या उसे कोई विशेष अधिकार प्राप्त है, तो इस धारा के तहत शुल्क लगता है।
धारा 25 – विशेष निष्पादन (Specific Performance):
जहाँ वादी चाहता है कि कोई अनुबंध अदालत द्वारा जबरन पूरा कराया जाए।
धारा 26 – निषेधाज्ञा (Injunction):
जहाँ वादी चाहता है कि किसी को कोई कार्य करने या न करने का आदेश अदालत द्वारा दिया जाए।
इन सभी धाराओं में शुल्क कई बार संपत्ति के पूर्ण बाजार मूल्य पर आधारित होता है, जिससे शुल्क ज्यादा हो सकता है। लेकिन धारा 27 में न्यायालय शुल्क सीमित रखा गया है ताकि धार्मिक या धर्मार्थ संस्थाओं को सस्ती न्यायिक मदद मिल सके।
धारा 27 का सामाजिक और कानूनी महत्व
1. धार्मिक संस्थाओं की रक्षा:
यह धारा सुनिश्चित करती है कि मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च, धर्मशालाएं जैसी संस्थाओं की संपत्ति पर कोई अन्याय न हो और यदि होता है तो कम खर्च में न्याय प्राप्त किया जा सके।
2. जनहित की संपत्ति को संरक्षण:
चैरिटेबल ट्रस्ट अक्सर गरीबों के लिए अस्पताल, स्कूल, अनाथालय आदि चलाते हैं। धारा 27 का उद्देश्य है कि इन संस्थाओं की संपत्ति सुरक्षित रहे।
3. गरीब वादियों को राहत:
कई बार ट्रस्ट का प्रबंधन गरीब और साधारण वर्ग के लोगों के हाथ में होता है। धारा 27 उनके लिए राहत का माध्यम बनती है क्योंकि न्यायालय शुल्क सीमित और निश्चित है।
धारा 27, राजस्थान न्यायालय शुल्क अधिनियम का एक महत्वपूर्ण सामाजिक और कानूनी प्रावधान है। यह केवल तकनीकी रूप से ट्रस्ट संपत्ति के विवादों को सुलझाने के लिए नहीं बना, बल्कि इसके पीछे एक व्यापक दृष्टिकोण है—जिसमें न्याय की सुलभता, सामाजिक संपत्ति का संरक्षण, धार्मिक स्थलों की रक्षा और आम जनता को न्याय देने की भावना निहित है।
यदि इस धारा को व्यवहार में भी ईमानदारी से लागू किया जाए, तो यह न केवल संपत्ति विवादों को सुलझाने में मदद करेगी, बल्कि समाज में न्याय और विश्वास को भी मजबूत बनाएगी।