धारा 176, BNSS 2023: पुलिस अधिकारियों के लिए संज्ञेय अपराधों की जाँच करने की प्रक्रिया

Update: 2024-09-05 12:21 GMT

Mumbai Police

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (Bhartiya Nagarik Suraksha Sanhita 2023), जो 1 जुलाई 2024 से प्रभावी हुई है, ने दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code - CrPC) को बदल दिया है और भारत के आपराधिक न्याय प्रणाली में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए हैं। इसमें से एक प्रमुख धारा 176 है, जो पुलिस अधिकारियों को अपराधों की जाँच के दौरान पालन करने वाली प्रक्रिया के बारे में विस्तृत दिशा-निर्देश देती है। यह धारा इस बात को स्पष्ट करती है कि पुलिस अधिकारियों को अपराध की जानकारी प्राप्त होने पर कैसे कार्य करना चाहिए और किस प्रकार की जाँच करनी चाहिए।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 की धारा 176 पुलिस अधिकारियों के लिए अपराधों की जाँच करने की एक स्पष्ट और संरचित प्रक्रिया का विवरण देती है। यह पुलिस को तुरंत कार्रवाई करने, निर्णय में पारदर्शिता बनाए रखने और आधुनिक फोरेंसिक तकनीकों के उपयोग से जाँच को मजबूत करने की अनुमति देती है। फोरेंसिक विशेषज्ञों और वीडियो दस्तावेजीकरण के प्रावधानों को शामिल करके, यह कानून यह सुनिश्चित करता है कि जाँच की प्रक्रिया उच्चतम स्तर की सटीकता और निष्पक्षता के साथ की जाए।

धारा 175: पुलिस जाँच की नींव

धारा 176 की विशिष्टताओं में जाने से पहले, धारा 175 को समझना ज़रूरी है, क्योंकि यह पुलिस के जाँच से संबंधित अधिकारों का आधार बनाती है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 की धारा 175 पुलिस अधिकारियों को किसी भी संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) की जाँच करने की शक्ति देती है, जिसमें मजिस्ट्रेट की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती। इसका मतलब है कि यदि किसी पुलिस अधिकारी को संज्ञेय अपराध की सूचना मिलती है, तो वह मामले की तुरंत जाँच शुरू कर सकता है, साक्ष्य (Evidence) जुटा सकता है और यदि आवश्यक हो तो गिरफ्तारी भी कर सकता है।

उदाहरण के लिए, अगर किसी पुलिस स्टेशन के क्षेत्र में डकैती या कोई अन्य गंभीर अपराध होता है, तो प्रभारी अधिकारी बिना मजिस्ट्रेट से अनुमति लिए जाँच शुरू कर सकता है। इससे जाँच समय पर शुरू होती है और न्याय में देरी नहीं होती। हालांकि, धारा 175 कुछ सुरक्षा प्रावधान भी प्रदान करती है, जिससे मजिस्ट्रेट आवश्यकता अनुसार हस्तक्षेप कर सकते हैं और पुलिस की शक्ति पर न्यायिक नियंत्रण बना रहता है।

धारा 175 के व्यापक विवरण के लिए, आप Live Law Hindi पर प्रकाशित लेख देख सकते हैं।

धारा 176: अपराधों की जाँच के लिए पुलिस की प्रक्रिया

1. रिपोर्ट भेजने और जाँच करने का कर्तव्य (Section 176(1)):

धारा 176(1) के अनुसार, जब किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को अपराध की सूचना मिलती है या उसे संदेह होता है कि कोई अपराध हुआ है, तो उसे तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। सबसे पहले, अधिकारी को मजिस्ट्रेट को एक रिपोर्ट भेजनी होती है, जो इस अपराध की पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संज्ञान लेने के लिए सक्षम हो। इससे यह सुनिश्चित होता है कि न्यायिक प्रक्रिया की जानकारी प्रारंभ से ही मजिस्ट्रेट के पास होती है।

इसके बाद, प्रभारी अधिकारी को स्वयं अपराध स्थल पर जाना होता है या अपने किसी अधीनस्थ अधिकारी को वहाँ भेजना होता है। यह अधीनस्थ अधिकारी राज्य सरकार द्वारा सामान्य या विशेष आदेश के माध्यम से निर्धारित रैंक से नीचे का नहीं होना चाहिए। जाँच का उद्देश्य है मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की जाँच करना, साक्ष्य एकत्र करना और यदि आवश्यक हो, अपराधी की गिरफ्तारी के लिए कदम उठाना। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि जाँच सही रैंक और प्राधिकरण वाले अधिकारी द्वारा की जाए, ताकि जाँच प्रक्रिया की निष्पक्षता बनी रहे।

धारा 176(1) के अंतर्गत अपवाद:

इस सामान्य नियम के कुछ विशेष अपवाद हैं। सबसे पहले, अगर अपराध की जानकारी किसी विशेष व्यक्ति के नाम के साथ दी जाती है और मामला गंभीर नहीं है, तो प्रभारी अधिकारी को अपराध स्थल पर जाने या अधीनस्थ अधिकारी को भेजने की आवश्यकता नहीं है। इससे मामूली मामलों में पुलिस संसाधनों का अनावश्यक उपयोग बचता है।

दूसरा अपवाद यह है कि अगर अधिकारी को लगता है कि जाँच के लिए पर्याप्त आधार नहीं हैं, तो उसे मामले की जाँच करने की आवश्यकता नहीं है। यह प्रावधान पुलिस को तुच्छ या निराधार शिकायतों पर समय बर्बाद करने से रोकता है।

बलात्कार मामले में विशेष प्रावधान:

धारा 176(1) में बलात्कार के मामलों के लिए एक विशेष प्रावधान है। इन मामलों में, पीड़िता का बयान उसके निवास स्थान पर या उसकी पसंद के स्थान पर रिकॉर्ड किया जाना चाहिए और जहाँ तक संभव हो, एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा यह बयान लिया जाना चाहिए। इसके अलावा, यह बयान पीड़िता के माता-पिता, संरक्षक, निकट संबंधी या क्षेत्र के किसी सामाजिक कार्यकर्ता की उपस्थिति में लिया जाना चाहिए। बयान को ऑडियो या वीडियो माध्यम से, मोबाइल फोन सहित, रिकॉर्ड किया जा सकता है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि जाँच के दौरान पीड़िता की सुरक्षा और गोपनीयता का ध्यान रखा जाए।

2. जाँच न करने के कारणों की रिपोर्टिंग (Section 176(2)):

अगर प्रभारी अधिकारी धारा 176(1) में दिए गए अपवादों के अनुसार जाँच न करने का निर्णय लेते हैं, तो उन्हें अपने निर्णय के कारणों को रिपोर्ट में स्पष्ट करना होता है। उदाहरण के लिए, यदि अधिकारी यह तय करते हैं कि मामला गंभीर नहीं है या जाँच के लिए पर्याप्त आधार नहीं हैं, तो इस निर्णय का औचित्य रिपोर्ट में शामिल करना अनिवार्य है।

इसके अलावा, अधिकारी को दैनिक डायरी रिपोर्ट प्रत्येक पखवाड़े में मजिस्ट्रेट को भेजनी होती है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता बनी रहे। अगर अधिकारी यह निर्णय लेते हैं कि मामले में जाँच नहीं की जानी चाहिए, तो उन्हें सूचना देने वाले व्यक्ति को भी राज्य सरकार द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार सूचित करना होता है। यह पुलिस की कार्रवाई में पारदर्शिता सुनिश्चित करता है और उन मामलों में जवाबदेही बनाए रखता है जहाँ जाँच शुरू नहीं की जाती है।

3. फोरेंसिक विशेषज्ञ की अनिवार्य भागीदारी (Section 176(3)):

धारा 176(3) जाँच प्रक्रिया को आधुनिक बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। जब पुलिस को ऐसे अपराध की सूचना मिलती है, जिसमें सात साल या उससे अधिक की सजा है, तो प्रभारी अधिकारी को फोरेंसिक विशेषज्ञ (Forensic Expert) से अपराध स्थल का निरीक्षण कराना अनिवार्य होता है। इसके अलावा, पूरे जाँच और साक्ष्य संग्रह की प्रक्रिया को मोबाइल फोन या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के माध्यम से वीडियोग्राफ किया जाना चाहिए। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि जाँच की प्रक्रिया सावधानीपूर्वक की जाए और साक्ष्य वैज्ञानिक ढंग से संभाले जाएं, जिससे निष्पक्ष सुनवाई की संभावना बढ़े।

अगर राज्य में आवश्यक फोरेंसिक सुविधा उपलब्ध नहीं है, तो राज्य सरकार को किसी अन्य राज्य की फोरेंसिक सेवा का उपयोग करने की अधिसूचना जारी करनी होगी। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि फोरेंसिक साक्ष्य सही ढंग से एकत्र किए जाएं, भले ही स्थानीय सुविधाओं की कमी हो।

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