संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 9 : संविदा अधिनियम के अंतर्गत शून्य करार (Void Agreements) क्या होते हैं और कौन से करारों को विधि द्वारा सीधे शून्य घोषित किया गया है
भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 10 के अंतर्गत विधिपूर्ण प्रतिफल और विधिपूर्ण उद्देश्य के साथ कोई भी करार के संविदा होने के लिए आवश्यक योग्यता यह भी है कि उन करारों को विधि द्वारा सीधे शून्य घोषित न किया गया हो। समाज और देश को बनाए रखने के लिए जनता के हित के लिए कुछ करार ऐसे हैं जिन्हें विधि द्वारा सीधे ही शून्य घोषित कर दिया गया है।
पिछले आलेख भाग-8 में प्रतिफल के कारण शून्य होने वाले करारों के संबंध में चर्चा की गई है। इस आलेख में उन करारों के संबंध में चर्चा की जा रही है जिन्हें विधि द्वारा सीधे शून्य घोषित किया गया है। इस प्रकार के अनेक करार है जिन्हें विधि द्वारा सीधे शून्य घोषित किया गया। इस आलेख में विवाह के अवरोधक करार और व्यापार के अवरोधक करार के शून्य होने के संदर्भ में चर्चा की जा रही है।
विवाह के अवरोधक करार शून्य है (धारा-26)
इस प्रकार के करार जो किसी विवाह के अवरोधक है यह करार विधि द्वारा प्रारंभ से ही शून्य घोषित कर दिए गए। यदि किसी विवाह में किसी प्रकार से कोई अवरोध उत्पन्न किया जाता है तो इसे बुरा व अनुचित माना जाता है। विवाह में अवरोध उत्पन्न किया जाना सामाजिक बुराई है और यह नैतिकता की दृष्टि से भी परे है। विवाह में अवरोध उत्पन्न करने संबंधी करार लोकनीति से परे होने के कारण शून्य होता है।
विवाह के अवरोध में करार किसी भी प्रकार का हो वह शून्य होता है। जहां एक का मुस्लिम पति अपनी पत्नी को स्वयं को तलाक देने हेतु अधिकृत बनाया जाता है जब वह दूसरे से विवाह करती है तो इस धारा के अंतर्गत ऐसा करना शून्य नहीं है।
मेहबूब अली बनाम आयशा खातून 1915 के पुराने प्रकरण में न्यायालय ने कहा है कि जब राजीनामा द्वारा मुस्लिम पति अपनी पत्नी को इस बात के लिए अधिकृत करता है कि वह स्वयं को तलाक द्वारा पति से पृथक कर ले वह पत्नी वैसा करने के पश्चात दूसरा विवाह करने लगती है तो तो दूसरे विवाह में जो अवरोध उत्पन्न किया जाता है वह इस धारा के अंतर्गत शून्य होगा।
भारतीय विधि के अनुसार कोई भी करार जिसका संबंध विवाह में अवरोध उत्पन्न करना है शून्य होगा चाहे अवरोध पूर्ण हो या आंशिक हो। विवाह में पूर्ण अवरोध करने संबंधी करार का तात्पर्य हुआ कि किसी व्यक्ति को विवाह करने से पूरी तरह रोक दिया जाए।
देवनारायण नाम मुथुरामन 1913 से 30 मद्रास के प्रकरण में जहां पक्षकारों में यह संविदा की गई कि वह एक दूसरे से अपनी पुत्री की शादी संपन्न कराएंगे यदि एक पक्षकार ऐसा करने से असफल रहेगा तो उस पर दंड आरोपित किया जाएगा।
दूसरा पक्षकार उक्त करार के मुताबिक अपनी लड़की की शादी नहीं करता है परिणामस्वरूप वादी ने उसके विरुद्ध वाद रोपण किया। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह करार शून्य था।
कोई भी ऐसा करार शून्य करार होता है जो किसी विवाह को करने से रोकता है। उदाहरण के लिए रवि श्याम को कहता है कि वह आमुख लड़की से प्रेम प्रसंग चलाएं तथा उसका विवाह किसी अन्य पुरुष से न होने दें और इसके बदले वह उसे ₹100000 की धनराशि देगा। इस करार में रवि और श्याम के बीच विवाह में अवरोध डालने के लक्ष्य से उद्देश्य से करार किया गया है इसलिए यह करार संविदा अधिनियम की धारा 26 के अंतर्गत विवाह अवरोधक करार होगा तथा श्याम रवि से धनराशि प्राप्त करने का कोई अधिकारी नहीं है। इसके संबंध में न्यायालय के समक्ष कोई मुकदमा नहीं ला सकता है क्योंकि इस प्रकार का करार शून्य करार है।
व्यापार के अवरोधक करार शून्य होते हैं (धारा- 27)
भारत का संविधान भारत के नागरिकों को स्वतंत्रतापूर्वक व्यापार और वाणिज्य करने की स्वतंत्रता देता है। ऐसे व्यापार और वाणिज्य जिन्हें विधि द्वारा वैध घोषित किया गया है उन्हें कोई भी भारत का नागरिक भारत के किसी भी क्षेत्र में स्वतंत्रतापूर्वक कर सकता है। भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 27 के अंतर्गत व्यापार के अवरोधक करारों को सीधे शून्य करार घोषित किया गया है।
व्यापार के संदर्भ में अवरोध उत्पन्न करने वाला हर कोई करार शून्य होता है अब चाहे वह करार के अंतर्गत अवरोध पूर्ण हो या अवरोध आंशिक रूप से हो पर यदि किसी व्यापार पर कोई अवरोध उस संदर्भ में लगाया जाता है जबकि वह लोकहित में आवश्यक हैं तो उसे भी वैध माना जाएगा। संविदा संव्यवहारों की बाबत यह ध्यान रखी गई हैं कि यदि कोई करार किया गया है और वह किसी भी रुप में लोकनीति के परे है तो ऐसी स्थिति में वह उचित एवं युक्तियुक्त नहीं माना जाएगा तथा शून्य होगा।
बंशीधर बनाम अजोध्या 1925 के प्रकरण में कहा गया है कि जहां एक व्यापारिक मुक्केबाज और मैनेजर कम प्रमोटर के मध्य बॉक्सिंग प्रतियोगिता में भाग लेने की बाबत कोई करार किया गया किंतु करार में उक्त मुक्केबाज पर कोई अनुचित शर्त जोड़ी गई तो उक्त करार को व्यापार अवरोधक माना जायेगा।
जहां व्यापार की स्वतंत्रता की बाबत कोई अनुचित करार किया जाता है तो उसे व्यापार अवरोधक करार होने के कारण शून्य माना जाता है।
किसी भी करार को व्यापार अवरोधक करार बताने के संबंध में सिद्ध का भार उसी व्यक्ति पर होता है जो ऐसा कहता है अर्थात उक्त करार को व्यापार अवरोधक बताने वाले व्यक्ति को यह साबित करना पड़ेगा कि वास्तव में करार व्यापार अवरोधक है।
भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 में स्पष्ट होता है कि व्यापार में अवरोधक पैदा करने वाला करार शून्य होगा।
धारा के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार के विधिपूर्ण व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करने से अवरुद्ध होता है ऐसी स्थिति में उक्त करार व्यापार अवरोध के विस्तार तक शून्य होगा। जिस प्रकार इंग्लिश लॉ में यह व्यवस्था की गई है कि अवरोध चाहे पूर्ण हो या आंशिक यदि यह किसी विधिपूर्ण व्यवसाय या कारोबार की बाबत कोई करार शून्य होगा यदि अनुचित अवरोध से संबंधित है। अवरोध पूर्ण भी हो सकता है।
मधुचंद्र बनाम राजकुमार 1874 के प्रकरण में जहां वादी और प्रतिवादी पास पास में ही रहते थे। उनका घर एक ही मोहल्ले में था और वे दोनों एक ही प्रकृति का कारोबार करते थे। प्रतिवादी ने वादी से यह करार किया कि यदि वादी अपनी दुकान उस मोहल्ले से हटा ले तो वह उसे कुछ धन देगा। उक्त करार के अनुसार वादी ने अपनी दुकान किसी अन्य जगह पर विस्थापित कर ली जब उसने प्रतिवादी से उक्त धन की मांग की तो प्रतिवादी ने कहा कि वह धन नहीं देगा। ऐसी स्थिति में उसने न्यायालय के सम्मुख वाद प्रस्तुत किया। न्यायालय निर्णय दिया कि उक्त करार शून्य था और उक्त धनराशि की वसूली नहीं की जा सकती है।
आज इस फैसले के खिलाफ भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत यह व्यवस्था दे दी गई है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी गुडविल बेचना चाहे तो वह बेच सकता है।
इसी प्रकार खेमचंद्र माणिकचंद्र बनाम दयालदास एआईआर 1942 सिंध 114 के प्रकरण में कहा गया कि यदि वादी और प्रतिवादी के मध्य करार हुआ कि वादी 3 महीने तक अपनी मील को बंद रखेगा यह करार व्यापार अवरोधक होने के नाते शून्य माना जाएगा।
परासुल्लाह बनाम चंद्रकांता 1917 (21) सीडब्ल्यूएल 979 के प्रकरण में यह तय हुआ है कि यदि कोई करार किसी व्यक्ति को उसकी विधिपूर्ण व्यवहार या कारोबार को जिस सीमा तक रोकने हेतु किया गया रहता है वह उस सीमा तक अवैध माना जाएगा। अब अवरोध चाहे पूर्ण हो या आंशिक किंतु यह विधि विरुद्ध माना जाएगा।
जैसल केफ्ट एबीएच बनाम ए आई ई सी इंडिया लिमिटेड एआईआर 1988 मुंबई 1957 के प्रकरण में वादी और प्रतिवादी के मध्य अभिकरण एजेंसी की एक संविदा हुई। उक्त संविदा के अधीन वादी ने प्रतिवादी को अपना एजेंट नियुक्त करते हुए उसे अपनी वस्तु की बिक्री करने हेतु अधिकृत किया था। उनके मध्य जो संविदा की गई थी उसके अनुसार प्रतिवादी द्वारा अपने उत्पादन को बेचने का प्रतिबंध था। चुकी वादी ने 5 वर्ष तक प्रतिवादी को केवल अपनी ही निर्मित वस्तुओं को बेचने हेतु वादा किया था। अतः विधि विरुद्ध करार था न्यायालय ने इसे व्यापार में अवरोध पैदा करने वाला बताया।
इस धारा के कुछ अपवाद भी हैं। यदि सेवा संविदा की स्थिति में जहां कोई नौकर या कर्मचारी अपने मालिक या नियोजक से कोई करार करता है और उक्त करार के अंतर्गत वह यह बात रखता है कि वह एक निश्चित अवधि तक मालिक की सेवा में रहेगा और उस अवधि में वह किसी अन्य की सेवा न करने का वचन देता है वह यह भी करार करता है कि स्वयं भी कोई कारोबार नहीं करेगा ताकि मालिक से उसकी प्रतिस्पर्धा न हो सकें इस करार को विधिमान्य माना जाएगा।
चार्ल्स भारत बनाम मैकडॉनल्ड आईएनआर 1898 (103) के प्रकरण में एक व्यक्ति ने किसी चिकित्सक की सेवा में रहने का करार किया। उसने उक्त चिकित्सक की सेवा में 3 वर्ष तक रहने हेतु करार किया। उक्त चिकित्सक जंजीबार में था। उक्त सहायक व्यक्ति ने संविदा की थी कि वह जंजीबार में उस चिकित्सक के सहायक के रूप में कार्य करने के दौरान कोई स्वतंत्र व्यवहार में संलग्न नहीं होगा किंतु उसने उक्त चिकित्सक के सहायक के रूप में केवल 1 वर्ष तक ही सेवा की और अपना स्वतंत्र व्यापार शुरू कर दिया। प्रस्तुत मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि उक्त सहायक को 3 वर्ष तक के लिए जंजीबार में प्रैक्टिस करने का कोई अधिकार नहीं है।
आज व्यापार और वाणिज्य का युग है और इस युग में ऐसी बहुत सी सुविधाएं होती हैं जो किसी व्यापार को चलाने के लिए आवश्यक है। अनेक जगहों पर लोग अपनी सेवाएं व्यापार और वाणिज्य में दे रहे हैं। वर्तमान में यह देखने को मिलता है कि किसी फर्म या कंपनी में नौकरी करने वाला कोई व्यक्ति कोई अन्य काम नहीं कर सकता है। यह संविदा वैध है तथा इसे शून्य नहीं माना जा सकता। आज व्यापार अवरोधक शून्य करार की विस्तृत परिभाषा प्रस्तुत कर दी गई है तथा समय-समय पर आने वाले प्रकरणों के मद्देनजर यह तय हो गया है कि अनेक सुविधाएं जो व्यापार अवरोधक प्रतीत होती है परंतु उचित होने के कारण तर्कपूर्ण होने के कारण व्यापार अवरोधक नहीं मानी गई है।
जैसे कि किसी शासकीय कर्मचारी को किसी सरकारी विभाग में नियुक्त किया जाता है तो उससे यह संविदा की जाती है कि जब तक वह उस शासकीय पद पर नियुक्त रहेगा तब तक किसी प्रकार का अन्य कोई कार्य नहीं करेगा जिसका उद्देश्य व्यापारिक और वाणिज्य हो तथा अपनी सेवाएं किसी अन्य व्यक्ति को नहीं देगा। जिस प्रकार एक शासकीय चिकित्सक से शासन यह संविदा कर लेता है कि वह अपनी चिकित्सीय सेवाएं शासन के अस्पतालों के अलावा किसी अन्य स्थान पर नहीं देगा, इस प्रकार की संविदा वैध संविदा है।
वह करार जिन्हें विधि द्वारा सीधे शून्य घोषित किया गया है उनके संदर्भ में उल्लेख 'संविदा विधि सीरीज' के भाग-10 के अंतर्गत किया जा रहा है।