संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 20 : संविदा विधि के अंतर्गत अभिकरण की संविदा क्या होती है (Agency)

Update: 2020-11-13 05:30 GMT

संविदा विधि के संदर्भ में लिखे जा रहे हैं आलेखों के अंतर्गत अब तक उपनिधान की संविदा तक समझा जा चुका है। पिछले आलेख में उपनिधान के रूप में गिरवी क्या होता है इस संदर्भ में उल्लेख किया गया था। संविदा विधि सीरीज के आलेखों में अब अंतिम आलेखों का समय चल रहा है, संविदा अधिनियम के सबसे अंत में एजेंसी का उल्लेख किया गया है, इस आलेख में एजेंसी की संविदा के संदर्भ में संविदा विधि के संदर्भ में लिखे जा रहे हैं आलेखों के अंतर्गत अब तक उपनिधान की संविदा तक समझा जा चुका है। पिछले आलेख में उपनिधान के रूप में गिरवी क्या होता है इस संदर्भ में उल्लेख किया गया था। संविदा विधि सीरीज के आलेखों में अब अंतिम आलेखों का समय चल रहा है, संविदा अधिनियम के सबसे अंत में एजेंसी का उल्लेख किया गया है, इस आलेख में एजेंसी की संविदा के संदर्भ में विशेष बातों का उल्लेख किया जा रहा है।

एजेंसी की संविदा ( Contract of Agency) 

एजेंसी को हिंदी में अभिकरण कहते हैं। आम बोलचाल में इसे एजेंसी और एजेंट के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता है। एजेंसी की संविदा एक महत्वपूर्ण संविदा होती है जो व्यापार व्यवसाय के लिए अत्यंत आवश्यक है। आज के युग में कोई व्यापार व्यवस्था केवल एक स्थान पर ही नहीं किया जाता है अपितु अंतर्देशीय व्यापार भी होता है। किसी देश में माल का उत्पादन किया जाता है और किसी अन्य देश में उस माल को बेचा जाता है।

अब इस आधुनिक और संचार के युग में यह सरल नहीं रह गया कि कोई एक व्यक्ति ही किसी माल का उत्पादन भी कर ले और उस माल को सारे विश्व में बेच भी दे क्योंकि विश्व का स्तर बड़ा है और व्यक्ति की पहुंच धरती के कोने कोने पर है। एक व्यक्ति उत्पादन करता है तो दूसरा व्यक्ति उस उत्पादित माल को बेचता है। इस विचार से अभिप्रेरित होकर ही एजेंसी जैसी अवधारणा का जन्म हुआ है।

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत एजेंसी

भारतीय संविदा अधिनियम भी एजेंसी पर एक पूरे अध्याय में उल्लेख करता है। अधिनियम की धारा 182 एजेंसी की परिभाषा प्रस्तुत करती है।

धारा 182 के अनुसार अभिकर्ता वह व्यक्ति होता है जो किसी अन्य की ओर से कोई कार्य करने के लिए नियोजित होता है। वह दूसरे व्यक्ति से व्यवहारों में किसी अन्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए नियोजित होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अभिकर्ता वह व्यक्ति है जो किसी अन्य की ओर से कोई कार्य करने के लिए व्यवसायों में किसी अन्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए नियोजित है।

अंग्रेजी विधि के सामान्य सिद्धांत के अनुसार अभिकर्ता, मालिक और तृतीय पक्षकार के बीच की कड़ी होता है। वह दोनों के मध्य संपादित होने वाले विवादों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह दोनों के मध्य अर्थात स्वामी और तीसरे पक्षकार के मध्य एक विधिक संबंध स्थापित करता है किंतु यह ध्यान देने की बात है कि उसके कृत्यों के प्रति स्वामी दायीं होता है अर्थात अभिकर्ता के कृत्यों के प्रति स्वामी दायीं है।

इस अध्ययन से कुछ तथ्य सामने आते हैं जो किसी व्यक्ति के अभिकर्ता होने की ओर संकेत इंगित करते हैं-

किसी अन्य व्यक्ति की ओर से कोई कार्य करने हेतु अधिकृत होता है।

स्वामी और तीसरे पक्षकार के मध्य एक कड़ी होता है।

स्वामी और तीसरे पक्षकार के मध्य विधिक संबंध स्थापित करता है।

वह एक जिम्मेदार व्यक्ति होता है।

उसकी कृत्यों के प्रति स्वामी उत्तरदायीं होता है।

किसी वस्तु की बाबत अभिकर्ता का कब्जा स्वयं स्वामी का कब्जा माना जाता है।

यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मोहम्मद निजाम एआईआर 1980 एससी 431 के प्रकरण में कहा गया है कि डाकघर प्रेषक द्वारा भेजे जाने वाले पोस्ट संबंधी वस्तुओं का अभिकर्ता नहीं है।

अभिकर्ता मालिक की ओर से कोई कार्य करने या पर व्यक्तियों से व्यवहार में मालिक की ओर से उसका प्रतिनिधित्व करने हेतु नियोजित किया जाता है। अभिकर्ता मालिक द्वारा बताए गए निर्देशों के अनुसार ही कार्य करता है।

उच्चतम न्यायालय ने एक प्रकरण में यह कहा है कि अभिलेखों पर रजवाड़ों के भूतपूर्व शासक की ओर से पत्रों पर हस्ताक्षर करने वाला व्यक्ति अभिकर्ता नहीं है।

जो अभिकर्ता द्वारा अपने मालिक की ओर से संपादित किया जाता है मालिक उसके प्रति दायीं होता है और उसके प्राधिकार क्षेत्र में होता है और किसी प्रभावी संविदा के अभाव में कोई भी अभिकर्ता अपने मालिक की ओर से अपने द्वारा की गई सुविधाओं का प्रवर्तन व्यक्तिगत रूप में नहीं कर सकता और न ही विस्तृत रूप में उनसे आबद्ध होता है।

कोई व्यक्ति जो दूसरे व्यक्ति के द्वारा किसी धन का विनियोग करने हेतु नियोजित किया गया है वह धारा 182 के अर्थ के अंतर्गत एक अभिकर्ता माना जाएगा।

बेबिल्स मिल्स बनाम सेम्युअल 1969 के प्रकरण में कहा गया है कि अभिकर्ता मालिक और परव्यक्ति के बीच की कड़ी होता है किंतु यदि स्वामी अथवा मालिक का ही अस्तित्व नहीं है तो अभिकर्ता के अस्तित्व में होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। अर्थात यदि कहीं पर कोई मालिक है तो ही अभिकर्ता होगा क्योंकि मालिक से ही अभिकर्ता का अस्तित्व होता है।

मालिक कौन होता है

जैसा की धारा 182 में स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया गया है कि वह व्यक्ति जिसके लिए अभिकर्ता द्वारा कोई कार्य किया जाता है अथवा जिसका उक्त रूप में प्रतिनिधित्व किया जाता है वह व्यक्ति मालिक कहलाता है। अभिकर्ता मालिक की ओर से कोई व्यवहार कार्य संपन्न करता है। मालिक अभिकर्ता के प्रत्येक कृत्य के लिए दायीं होता है जिसका संबंध उक्त संव्यवहार से है।

अभिकर्ता वास्तव में वह व्यक्ति होता है जो किसी अन्य की ओर से कोई कार्य करने के लिए या किसी तीसरे व्यक्ति से कोई संव्यवहार संपन्न करने हेतु किसी अन्य का प्रतिनिधित्व करने हेतु नियोजित किया जाता है। इस प्रकार अभिकर्ता मालिक की ओर से कोई कार्य अथवा संव्यवहार संपादित करता है। वह स्वामी और परव्यक्ति के मध्य विधिक संबंध का सृजन करता है। यह ध्यान देने की बात है कि अभिकर्ता उक्त संव्यवहार से बांधना होगा जो उसने संपन्न कराया है।

जब तक कि उसके प्रतिकूल कोई संविदा न हो मालिक होने हेतु संविदा करने संबंधी क्षमता अपेक्षित है परंतु अभिकर्ता होने हेतु उस प्रकार की किसी सक्षमता की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जहां तक मालिक और तीसरे व्यक्ति के बीच का संबंध है कोई भी व्यक्ति अभिकर्ता हो सकता है। अतः यदि कोई अभिकर्ता जो कि अवयस्क है तो वह अपने मालिक को अपने कृत्यों के लिए तीसरे व्यक्ति के प्रति उत्तरदायित्व बना सकता है परंतु वह स्वयं अपने मालिक के साथ की गई अधिकरण संविदा के आधार पर कोई दायित्वधीन नहीं होगा।

एजेंसी का जन्म कैसे होता है

अभिकरण वह संबंध है जो मालिक एवं अभिकर्ता के मध्य होता है।

लिखित दस्तावेज द्वारा।

विधि की कार्यवाही द्वारा।

पश्चातवर्ती अनु समर्थन द्वारा।

पक्षकारों के आचरण के द्वारा।

मात्र यह कहा जाना अथवा अभियोग लगाया जाना कि अभिकरण अस्तित्व में पर्याप्त नहीं है क्योंकि इसके अंतर्गत अभिकर्ता द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग किया गया होना चाहिए।

अभिकरण का निर्माण संविदा करने में सक्षम व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को अभिकर्ता के रूप में नियोजित करके किया जा सकता है किंतु वह अपने कृत्यों के संदर्भ में मालिक को परव्यक्ति के लिए उत्तरदायीं बना सकता है किंतु स्वयं वह अभिकरण संविदा के आधार पर किसी भी प्रकार के दायित्वधीन नहीं होगा।

अभिकर्ता का प्राधिकार

1)- अभिव्यक्त

2)- विविक्षित

प्राधिकार जब अभिव्यक्त आ होता है जबकि वह लिखित या मौखिक शब्दों द्वारा किया जाता है और वह भी विकसित होता है जबकि उसका अनुमान मामले की परिस्थितियों पर आधारित होता है।

हरिचरण बनाम तारा प्रसन्ना 1925 कोलकाता 541 के प्रकरण में कहा गया है इस संबंध में यह साबित किया जाना आवश्यक होता है कि यदि अ और ब के मध्य कोई संविदा की जाती है जिससे स नामक व्यक्ति मध्य में अभिकर्ता था तो उसे एक अभिकर्ता की हैसियत से अपने कार्यों का संपादन करना चाहिए।

जब किसी व्यक्ति के आचरण एवं मामले की परिस्थितियों से यह स्पष्ट होता है कि कोई दूसरा व्यक्ति उसका अभिकर्ता है तो उनके मध्य विवक्षित अभिकरण का निर्माण हो जाता है चाहे भले ही उसने वास्तव में उस दूसरे व्यक्ति को अभिकर्ता के रूप में नियुक्त किया हो।

प्राधिकार उस स्थिति में विवक्षित माना जाता है जबकि उसका अनुमान मामले की परिस्थितियों पर आधारित होता है। विवेक चित अधिकरण का सृजन विबंध के आधार पर भी माना जाता है। यदि मालिक अपने आचरण से यह व्यक्त शब्दों द्वारा अभिकर्ता के साथ संविदा करने वाले व्यक्ति को यह विश्वास करने के लिए प्रेरित करता है कि उक्त प्रकार का व्यवहार करना अभिकर्ता के अधिकार क्षेत्र के भीतर है तो वह उक्त संव्यवहार से आबद्ध हो जाएगा। ऐसी स्थिति में एक विधिमान्य अभिकरण का सृजन हो जाएगा।

सुशील चंद्र बनाम गोरी शंकर 1917 (39) इलाहाबाद के मामले में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि दलाल वाणिज्यिक अभिकर्ता की भांति होता है। इसका कार्य वाणिज्यिक अभिकर्ता के समांतर है जिसके अंतर्गत वह अभिकर्ता काटन के विक्रय के संदर्भ में अपने कृत्यों का निष्पादन करता है उसका प्रमुख कार्य इस बात की स्थापना करनी है कि 2 पक्षकारों के मध्य संविदात्मक संवाद स्थापित हो।

कमीशन अभिकर्ता वह व्यक्ति होता है जो बाजार में वस्तुओं का क्रय विक्रय करता है। वह नियोजक की ओर से स्वयं अपने नाम से ऐसा करता है उसकी स्थिति एक दलाल की स्थिति से भिन्न होती है। जहां कमीशन एजेंट स्वयं के नाम पर कोई संविदा करता है तो ऐसी स्थिति में वह उक्त संविदा के संदर्भ में व्यक्तिगत रूप से दायित्वधीन होगा।

अभिकर्ता कौन नियोजित कर सकता है

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 183 अभिकर्ता कौन नियोजित कर सकता है इस संदर्भ में उल्लेख कर रही है। यह धारा उपबंधित करती है कि वह व्यक्ति जो विधि के अनुसार वयस्क हो, एक स्वस्थ मस्तिष्क की क्षमता का हो अभिकर्ता नियोजित कर सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मालिक को संविदा करने में सक्षम होना चाहिए उसे वयस्कता की आयु का होना चाहिए और वह स्वस्थचित होना चाहिए पागल व्यक्ति एजेंसी की संविदा नहीं कर सकता है। यह कहा जा सकता है कि यह धारा अभिकर्ता नियोजन करने में सक्षम व्यक्तियों का उल्लेख करती है, कौन व्यक्ति एजेंसी कर सकता है उसकी क्षमता का उल्लेख यह धारा कर रही है।

महेंद्र प्रताप सिंह बनाम पदम कुमारी देवी एआईआर 1973 इलाहाबाद 143 के प्रकरण में कहा गया है कि मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ व्यक्ति कोई मुख्तारनामा का निष्पादन नहीं कर सकता है और उक्त आधार पर कार्य करने का दावा नहीं किया जा सकता।

अभिकर्ता कौन हो सकता है

जहां भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 183 अभिकर्ता नियुक्त करने वाले की क्षमता के संदर्भ में उल्लेख कर रही है वहीं पर भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 184 अभिकर्ता कौन हो सकता है इस संदर्भ में उल्लेख कर रही है अर्थात धारा 184 अभिकर्ता की क्षमता के संदर्भ में उल्लेख कर रही है।

इस धारा से यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि कौन व्यक्ति अभिकर्ता हो सकता है। कोई भी अवयस्क व्यक्ति भी अभिकर्ता नियुक्त हो सकता है। इसके अनुसार जहां मालिक एवं तीसरे व्यक्ति के बीच का संबंध है कोई व्यक्ति अभिकर्ता हो सकता है किंतु कोई भी व्यक्ति जो स्वास्थ्यचित न हो यदि आवश्यक हो तो ऐसी स्थिति में वह अपने कृत्यों के लिए अपने मालिक के प्रति उत्तरदायीं न होगा, इस प्रकार यदि आवश्यक अभिकर्ता नियुक्त किया जाता है तो वह अपने मालिक को अपने कृत्यों के लिए तीसरे व्यक्ति को उत्तरदायीं तो बना सकता है परंतु वह स्वयं अपने मालिक के साथ की गई अभिकरण संविदा के आधार पर कोई दायित्व नहीं करेगा।

प्रतिफल की आवश्यकता नहीं होती है

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 185 इस बात का उल्लेख करती है कि किसी भी अधिकरण के सृजन के लिए कोई प्रतिफल आवश्यक नहीं होता है अर्थात अभिकरण की संविदा बगैर प्रतिफल के भी की जा सकती है। किसी अभिकरण की संविदा में किसी प्रकार के प्रतिफल की कोई आवश्यकता नहीं होती है। जबकि संविदा विधि के आधारभूत सिद्धांतों के अंतर्गत किसी भी वैध संविदा के लिए वैध प्रतिफल की आवश्यकता होती है परंतु धारा 185 अभिकरण की संविदा को इस आधारभूत सिद्धांत से मुक्त करती है। विशेष बातों का उल्लेख किया जा रहा है।

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