क्या जमानत मिलने के बाद भी Undertrial Prisoners को जेल में रखना Article 21 का उल्लंघन है?

Update: 2025-04-22 12:59 GMT
क्या जमानत मिलने के बाद भी Undertrial Prisoners को जेल में रखना Article 21 का उल्लंघन है?

In Re: Policy Strategy for Grant of Bail नामक मामले में, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 31 जनवरी 2023 को तय किया, कोर्ट ने भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System) की एक गंभीर समस्या को उठाया — वह यह कि बहुत से Undertrial Prisoners (विचाराधीन कैदी) ज़मानत (Bail) मिलने के बावजूद जेल में बंद रहते हैं।

इसका मुख्य कारण यह होता है कि वे गरीब होते हैं, ज़मानत की शर्तें (Conditions) पूरी नहीं कर पाते, या फिर Court के आदेशों की Jail तक सूचना समय पर नहीं पहुँच पाती। इस फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सात महत्वपूर्ण निर्देश (Directions) जारी किए और एक ऐसी व्यवस्था का प्रस्ताव किया जिसमें Legal Services Authorities, Jail Departments, Courts और Government Agencies मिलकर इस समस्या का समाधान करें।

ज़मानत के बावजूद जेल में बंद रहने की समस्या (The Problem of Delay in Bail Execution)

कोर्ट ने पाया कि हज़ारों विचाराधीन कैदी ऐसे हैं जिन्हें ज़मानत मिल चुकी है, लेकिन वे फिर भी जेल में हैं क्योंकि वे Bail Bond या Surety नहीं दे पा रहे। कई मामलों में आरोपी एक से ज़्यादा मामलों में नामजद होता है और तब तक ज़मानत नहीं लेता जब तक सभी मामलों में ज़मानत न मिल जाए, ताकि जेल में बिताया गया समय सभी मामलों में गिना जाए।

इस स्थिति को सुधारने के लिए, कोर्ट ने National Legal Services Authority (NALSA) की रिपोर्ट, Ministry of Home Affairs के अधिकारियों और NIC (National Informatics Centre) के टेक्निकल सुझावों को ध्यान में रखते हुए जरूरी कदम तय किए।

E-Prison Software और Technology की भूमिका (Role of e-Prison Software and Technology)

कोर्ट ने Jail System में लागू e-Prison Software के माध्यम से एक तकनीकी समाधान सुझाया। देशभर की लगभग 1300 जेलों में पहले से यह Software कार्यरत है। अब इसमें यह अनिवार्य किया गया है कि जब भी किसी आरोपी को ज़मानत मिले, उस तारीख को Software में दर्ज किया जाए।

यदि ज़मानत के सात दिन बाद भी आरोपी को रिहा (Release) नहीं किया गया, तो सिस्टम अपने आप एक Flag (चेतावनी) और ईमेल Generate करेगा जो सीधे संबंधित DLSA (District Legal Services Authority) को भेजा जाएगा।

इससे यह सुनिश्चित होगा कि कोई ज़मानत आदेश काग़ज़ों तक ही सीमित न रह जाए, बल्कि उस पर अमल हो। DLSA तुरंत Paralegal Volunteer या Jail Visiting Advocate को भेज कर यह पता लगाएगा कि रिहाई क्यों नहीं हुई।

आर्थिक रूप से कमजोर आरोपियों को मदद (Support for Economically Weak Accused)

कोर्ट ने यह भी माना कि कई बार आरोपी इतना गरीब होता है कि वह Bail Bond या Surety की शर्त पूरी ही नहीं कर पाता। ऐसे मामलों में Court ने कहा कि DLSA को Probation Officers या Paralegal Volunteers की मदद से आरोपी की Socio-Economic Report (सामाजिक-आर्थिक रिपोर्ट) तैयार करनी चाहिए।

इस रिपोर्ट को संबंधित अदालत के समक्ष रखा जा सकता है ताकि वह ज़मानत की शर्तों को नरम करने (Relax) पर विचार कर सके। इसके अलावा, यदि आरोपी कहता है कि वह रिहा होने के बाद ज़मानत की शर्तें पूरी कर सकता है, तो Court उसे Temporary Bail (अस्थायी ज़मानत) भी दे सकता है।

ज़मानत की शर्तों में संशोधन (Modification of Bail Conditions)

यदि Bail Order के एक महीने बाद भी ज़मानती शर्तें पूरी नहीं होतीं, तो संबंधित अदालत को Suo Motu (स्वतः संज्ञान लेकर) यह मामला उठाना होगा और देखना होगा कि क्या ज़मानत की शर्तों में बदलाव या छूट दी जा सकती है।

Court ने यह भी स्पष्ट किया कि "Local Surety" (स्थानीय जमानती) की शर्त कई बार रिहाई में बाधा बन जाती है, खासकर जब आरोपी किसी अन्य राज्य या जिले से आता हो। इसलिए Courts को सलाह दी गई कि वे इस शर्त को केवल जरूरी मामलों में ही लागू करें।

Article 21 और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Article 21 and Personal Liberty)

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि भारत के संविधान का Article 21, जो “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार” (Right to Life and Personal Liberty) देता है, केवल एक कागजी अधिकार नहीं है, बल्कि यह एक व्यवहारिक और प्रभावी अधिकार है।

जब किसी व्यक्ति को ज़मानत मिल जाती है, तो उसे रिहा न करना Article 21 का सीधा उल्लंघन है। Court ने कहा कि न्याय केवल फैसला सुनाना नहीं, बल्कि उसे लागू करना भी है। इसीलिए सभी संबंधित संस्थाओं को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि Bail का आदेश समय पर लागू हो।

पूर्ववर्ती महत्वपूर्ण फैसले (Relevant Precedents and Legal Principles)

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पहले के कई ऐतिहासिक फैसलों को भी याद किया।

Hussainara Khatoon v. State of Bihar (1979) में Court ने गरीब Undertrial Prisoners के लंबे समय तक जेल में बंद रहने को “न्याय का मज़ाक” बताया था।

Moti Ram v. State of M.P. (1978) में कहा गया कि ज़मानत की शर्तें व्यवहारिक होनी चाहिए और आरोपी की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर तय की जानी चाहिए।

यह नया फैसला इन्हीं सिद्धांतों को आगे बढ़ाता है और Technology, Legal Aid और Court Supervision को मिलाकर एक समग्र व्यवस्था प्रस्तुत करता है ताकि Bail केवल आदेश न रहकर हकीकत बन सके।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए सात दिशानिर्देश (Seven Specific Directions of the Court)

कोर्ट ने ज़मानत की प्रक्रिया को बेहतर और प्रभावी बनाने के लिए सात स्पष्ट दिशानिर्देश जारी किए। इनमें यह शामिल है कि Court से जारी Bail Order को उसी दिन या अगले दिन Jail Superintendent को ईमेल के जरिए भेजा जाए। Jail Superintendent को उसे e-Prison Software में दर्ज करना अनिवार्य होगा।

यदि सात दिनों के भीतर आरोपी रिहा नहीं होता, तो DLSA को सूचित किया जाएगा जो तुरंत सहायता के लिए कदम उठाएगा। Court यह भी देखेगा कि क्या ज़मानत की शर्तें बहुत कठोर हैं और उन्हें संशोधित करने की आवश्यकता है।

एक अहम निर्देश यह भी था कि "Local Surety" की शर्त हर बार न लगाई जाए, क्योंकि यह न्याय प्रक्रिया में अनावश्यक रुकावट बन जाती है।

In Re: Policy Strategy for Grant of Bail का यह फैसला एक ऐतिहासिक कदम है, जो यह सुनिश्चित करता है कि Bail केवल एक क़ानूनी अधिकार नहीं, बल्कि व्यवहारिक हक़ भी बन सके।

सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय के जरिए दिखाया कि Technology, Legal Aid और Judicial Monitoring को मिलाकर एक ऐसा तंत्र बनाया जा सकता है जो गरीबों, वंचितों और विचाराधीन कैदियों के लिए न्याय सुलभ बनाता है।

यह फैसला हमें याद दिलाता है कि “Justice Delayed is Justice Denied” केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि एक संवैधानिक चेतावनी है। और जब यह देरी व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) से जुड़ी हो, तो उसका समाधान केवल नीति नहीं, बल्कि संवेदनशीलता और क्रियान्वयन है।

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