क्या आर्टिकल 226 और 227 के तहत याचिका में ट्रिब्यूनल को अनिवार्य पक्षकार बनाना ज़रूरी है?
यह लेख सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय पर केंद्रित है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि क्या Tribunal को उनकी ओर से पारित आदेशों को चुनौती देने वाली याचिकाओं में पक्षकार (Party) बनाना अनिवार्य है।
इस निर्णय ने न केवल प्रक्रिया संबंधी नियमों को स्पष्ट किया है, बल्कि कुछ मामलों में Tribunals की स्वतंत्रता को भी मज़बूत किया है। यह निर्णय Sh Jogendrasinhji Vijaysinghji v. State of Gujarat (2015) और गुजरात हाईकोर्ट के फैसले Gujarat State Road Transport Corporation v. Firoze M. Mogal जैसे महत्वपूर्ण फैसलों पर आधारित है।
Tribunals का अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) और न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की भूमिका
Tribunal विशेष क्षेत्रों से जुड़े विवादों को सुलझाने के लिए बनाए गए निकाय हैं। लेख में गुजरात सेकेंडरी एजुकेशन एक्ट, 1972 (Gujarat Secondary Education Act) का उल्लेख है, जिसके तहत Tribunals को शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन के बीच विवादों को निपटाने का मूल (Original) और अपीलीय (Appellate) अधिकार दिया गया है। यह अधिनियम (Act) ऐसे विवादों को सरकारी अधिकारियों के अधिकार से बाहर रखता है ताकि विशेषज्ञता से मामले का समाधान हो सके।
हालाँकि Tribunal के आदेशों पर Articles 226 और 227 के तहत न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) का अधिकार सुरक्षित है। Article 226 उच्च न्यायालयों (High Courts) को किसी सार्वजनिक निकाय (Public Authority) के कार्यों के खिलाफ आदेश (Writ) जारी करने का अधिकार देता है, जबकि Article 227 उन्हें न्यायिक और गैर-न्यायिक निकायों पर निगरानी (Supervision) का अधिकार प्रदान करता है।
यहाँ मुख्य मुद्दा यह है कि क्या Tribunal को उस मामले में पक्षकार बनाना अनिवार्य है, जिसमें उसके आदेश की वैधता को चुनौती दी जा रही है।
Tribunal को पक्षकार बनाना क्यों अनिवार्य नहीं है? (Why Tribunal Is Not a Necessary Party)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में इस सवाल पर गहन विचार किया कि क्या Tribunal को अपने आदेशों का बचाव करने के लिए पक्षकार के रूप में पेश होना चाहिए। निर्णय के अनुसार, ऐसे मामलों में वास्तविक विवाद (Dispute) संबंधित पक्षों के बीच होता है, जैसे स्कूल प्रबंधन और शिक्षक के बीच, न कि Tribunal और संबंधित पक्षों के बीच। Tribunal का कार्य केवल विवाद का निपटारा करना है, न कि अदालत में अपने आदेश का बचाव करना।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने Sh Jogendrasinhji Vijaysinghji (2015) के फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें यह कहा गया था कि केवल उन Tribunals को पक्षकार बनाना आवश्यक है, जिन्हें कानूनी रूप से अपने आदेशों का बचाव करने का अधिकार या कर्तव्य (Duty) प्राप्त हो। जहाँ Tribunal का ऐसा कोई कानूनी दायित्व (Obligation) नहीं है, वहाँ उसे पक्षकार नहीं बनाया जाना चाहिए।
प्रक्रिया संबंधी आवश्यकताओं की स्पष्टता (Clarification on Procedural Requirements)
गुजरात हाई कोर्ट ने Firoze M. Mogal के फैसले में कहा था कि यदि Tribunal को पक्षकार नहीं बनाया जाता है, तो याचिका खारिज की जा सकती है। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को अस्वीकार करते हुए कहा कि Tribunal को हर मामले में पक्षकार बनाना आवश्यक नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि न्यायालय (Court) को Tribunal के रिकॉर्ड की आवश्यकता हो, तो वह Tribunal को केवल रिकॉर्ड प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकता है, न कि उसे पक्षकार बना सकता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि कार्यवाही (Proceedings) केवल संबंधित पक्षों पर केंद्रित रहे और अनावश्यक जटिलताओं से बचा जा सके।
निर्णय के मुख्य बिंदु (Key Takeaways from the Judgment)
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि केवल उन मामलों में Tribunal को पक्षकार बनाया जाना चाहिए, जहाँ कानून के तहत उसका आदेश बचाव योग्य हो। यदि Tribunal को पक्षकार नहीं बनाया जाता है, तो याचिका अमान्य (Invalid) नहीं होगी।
यह निर्णय प्रक्रिया को सरल और प्रभावी बनाता है, जिससे संबंधित पक्ष अपने अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकते हैं। साथ ही, यह न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के व्यापक सिद्धांत को बनाए रखता है, जिसमें विवाद Tribunal के आदेश पर केंद्रित होता है, न कि Tribunal पर।
यह निर्णय इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया संबंधी प्रश्न का समाधान करता है कि न्यायिक समीक्षा में Tribunal की भूमिका क्या होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात हाई कोर्ट के उस निर्णय को निरस्त कर दिया, जिसमें Tribunal को पक्षकार न बनाने के आधार पर याचिका को खारिज कर दिया गया था।
इस फैसले से यह सिद्धांत स्थापित हुआ कि केवल संबंधित पक्षों के शामिल होने से न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया पूरी हो सकती है। यह न केवल प्रक्रिया को सरल बनाता है, बल्कि याचिकाकर्ताओं (Petitioners) के अधिकारों की रक्षा में भी सहायक है, जो अनुचित आदेशों को चुनौती देना चाहते हैं।