भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 9 : जानिए राज्य के विरुद्ध अपराध क्या होते हैं?

Update: 2020-12-14 16:33 GMT

पिछले आलेख में आपराधिक षड्यंत्र पर चर्चा की गई थी इस आलेख में राज्य के विरुद्ध अपराधों के संबंध में चर्चा की जा रही है तथा उन अपराधों का सारगर्भित उल्लेख किया जा रहा है जो राज्य के विरुद्ध किए जाते हैं।

लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा नेशन स्टेट के युग में राष्ट्रीय सर्वोच्च होता है। राष्ट्र का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने नागरिकों तथा गैर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करें तथा उन सभी अधिकारों को नागरिकों तथा व्यक्तियों को उपलब्ध कराएं जिनका उल्लेख संविधान तथा अन्य विधियों में किया गया है। मानव अधिकारों के इस युग में नागरिकों के समस्त अधिकार संविधान द्वारा उल्लेखित किए गए यह अधिकार केवल संविधान में ही उल्लेखित नहीं किए गए हैं अपितु अनेकों विधियों में इन अधिकारों का उल्लेख किया गया है। जैसे कि एक व्यक्ति का भयमुक्त वातावरण तथा समाज में रहने का अधिकार है अब उस व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति की किसी कार्य के माध्यम से भी दिया जा रहा है तो राज्य का यहां पर यह कर्तव्य बनता है कि वह उस व्यक्ति को भयमुक्त समाज में जीने का अवसर दें। राज्य अपने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है।

विधि विद्वानों द्वारा कहा गया है कि विधि संप्रभु का आदेश है अर्थात विधि किसी मानव अधिकारी दृष्टिकोण को अपनाएं या फिर प्रकृतिवादी दृष्टिकोण को अपनाएं इसका कोई महत्व नहीं है महत्व केवल इतना है कि विधि संप्रभु का आदेश है। भारतीय व्यवस्था में भी विधि सरकार का आदेश ही है एक दृष्टिकोण से देखा जाए तो सरकार को भारत की जनता द्वारा बहुमत देकर स्थापित किया गया है सरकार द्वारा राज्य विधान मंडल तथा भारत की संसद में कानून का निर्माण किया जाता है, अब यह विधि द्वारा स्थापित सरकार विधि के माध्यम से अपना आदेश देती है।

कभी-कभी विधि द्वारा स्थापित सरकार जो संप्रभु है उसके विरुद्ध भी अपराध कारित कर दिए जाते हैं। भारतीय दंड संहिता के अध्याय 6 में राज्य के विरुद्ध कारित किए जाने वाले अपराधों के संबंध में प्रावधान किए गए।

राज्य के विरुद्ध अपराध (Offences against the state)

एक कल्याणकारी राज्य के नाते राज्य का कर्तव्य होता है कि वह अपनी जनता की रक्षा करें। उसे देश में कानून और व्यवस्था बनाएं रखना होता है। देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी उसे इस हेतु कार्य करने होते हैं जिससे विश्व भर में मैत्री और शांतिपूर्ण व्यवहार बना रहे और मनुष्यों का जीना दूभर नहीं हो। देश की बाहरी सुरक्षा के लिए यह अत्यंत आवश्यक है। इन सभी कार्यों को करने के लिए राज्य संप्रभु होता है अर्थात राज्य सर्वोच्च है राज्य से ऊंचा कुछ भी नहीं है।

एकता और संप्रभुता इसके लिए आवश्यक है संविधान की प्रस्तावना में भी इस बात पर जोर दिया गया है। जहां विशेषकर उल्लेख किया गया है कि भारत एक संप्रभु राज्य है तथा भारत के संविधान के माध्यम से उसे संप्रभु शक्ति बनाया जा रहा है यदि इस संप्रभु शक्ति को किन्हीं व्यक्तियों द्वारा क्षति पहुंचाई जाती है इसे राज्य के विरुद्ध अपराध कहा जाएगा।

भारतीय दंड संहिता 1860 के अध्याय 6 का अध्ययन करने के बाद राज्य के विरुद्ध अपराधों को निम्न श्रेणी में बांटा जा सकता है-

1)- भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करना, युद्ध करने का प्रयास करना या उसके विरुद्ध षड्यंत्र करना या उसके लिए व्यक्तियों तथा शस्त्रों को एकत्रित करना।

2)- राष्ट्रपति या राज्यपाल को कोई कार्य करने के लिए बाध्य करना या उनकी शक्तियों के निष्पादन में अवरोध पैदा करता।

3)- भारत सरकार के साथ शांतिपूर्ण व्यवहार रखने वाली किसी शक्ति के विरुद्ध युद्ध करना ऐसी किसी शक्ति के क्षेत्राधिकार में लूटमार करना या जानबूझकर ऐसी संपत्ति को लेना जो ऐसी लूटमार से प्राप्त हो गई है।

4)- किसी राज बंदी को निकल भागने में जानबूझकर सहायता देना उसे प्रोत्साहित करना बचाना या शरण देना।

दंड संहिता के अध्याय 6 में ऊपर वर्णित किए गए अपराधों का वर्णन इस सहिंता की धारा 121 से लेकर धारा 130 तक किया गया है। इन धाराओं में राज्य के विरुद्ध अपराधों के संबंध में संपूर्ण उल्लेख कर दिया गया है। इस अध्याय के अधीन कुछ धाराएं ऐसी हैं जिनमें मृत्युदंड तक की व्यवस्था है।

भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध (धारा 121)

भारतीय दंड संहिता की धारा 121 राज्य के विरुद्ध अपराधों के संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा है। इस धारा के अनुसार सभी प्रकार के विप्लव के रूप में या आक्रमण के रूप में युद्ध करना दंडनीय अपराध है। इस धारा के अंतर्गत महत्वपूर्ण नहीं है कि व्यक्तियों की कितनी संख्या किस प्रकार से कितने या किस प्रकार से अस्त्र-शस्त्र के साथ हुई है अपितु इसके लिए अपराध की संरचना का मुख्य मानदंड वह आशय है जिससे संयुक्त होकर लोग एकत्रित हुए हैं।

इस धारा के अंतर्गत भारत सरकार के विरुद्ध एक आशय रखकर युद्ध करने निकलना महत्वपूर्ण है। यदि कोई व्यक्ति एकत्रित होकर भारत की एकता और अखंडता को समाप्त करने के लिए युद्ध करने निकलते हैं भारतीय दंड संहिता की धारा 121 उन्हें दंडित करने का प्रावधान करती है। व्यक्तियों के एकत्र होने का उद्देश्य बल हिंसा के माध्यम से भारत सरकार के किसी प्राधिकार को जो सामान्यता लोकशांति है को चोट पहुंचाना।

राज्य के विरुद्ध अपराधों में प्रथम अपराध भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करना उल्लेखित किया गया है। धारा 121 के अनुसार जो कोई व्यक्ति भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करता है ऐसा युद्ध करने का प्रयत्न करता है या ऐसा युद्ध करने का दुष्प्रेरण करता है उसे आजीवन कारावास से जुर्माने से दंडित किया जाएगा।

भारतीय दंड संहिता की धारा 121 केवल युद्ध करने पर ही दंडित नहीं करती है अपितु ऐसा युद्ध करने का प्रयास करने और ऐसे युद्ध करने के लिए दुष्प्रेरण करने के लिए भी दंडित करती है। भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने से अभिप्राय संगठित रूप से बल हिंसा का आशय इस धारा में प्रयोग किया गया है जिससे लोकशांति को ऐसा खतरा पहुंचे की एकता विखंडित होने की संभावना पैदा हो जाए। किसी व्यक्ति द्वारा भारत की भूमि पर रहते हुए उसी प्रकार भारत सरकार के विरुद्ध अवज्ञा और व्यू रचना करना जिस प्रकार कोई विदेशी शत्रु करता हो।

कुछ वर्ष पूर्व मुंबई हमला इस धारा के संदर्भ में तत्काल उदाहरण है। मुंबई हमला मोहम्मद अजमल मोहम्मद आमिर कसाब उर्फ अबू मुजाहिद का मामला है। इस मामले में जिंदा पकड़े गए अभियुक्त द्वारा और उसके साथियों द्वारा भारत की एकता अखंडता को नष्ट करने के उद्देश्य से भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई पर हमला किया गया था। अभियुक्त और उसके अन्य मृतक साथियों द्वारा हथियारों से लैस होकर मुंबई शहर पर हमला किया गया। इस हमले को भारत के विरुद्ध युद्ध करना करार दिया गया। यह भारत और भारतीयों पर हमला था इसमें भारतीय एवं वह लोग मारे गए जो भारत की भूमि पर विदेशी थे। इस विस्फोट का मुख्य उद्देश्य था भारत के वित्त केंद्र को नुकसान पहुंचाना, सांप्रदायिक तनाव पैदा करना,आंतरिक अशांति पैदा करना एवं विद्रोह करना

उपद्रवकारियों की मांग थी कि भारत कश्मीर से हट जाए तथा कश्मीर की मांग नहीं करें या तो कश्मीर को पाकिस्तान को सौंप दें या फिर कश्मीर को आजाद कर दे। यह उपद्रवकारी भारत के विरुद्ध युद्ध करने के उद्देश्य से भारत के आर्थिक शहर में घुसे थे। इस प्रकरण में जिंदा पकड़ाए गए मोहम्मद अजमल मोहम्मद अमीर कसाब और अबू मुजाहिद को स्टेट ऑफ महाराष्ट्र द्वारा मृत्यु दंड दिया गया।

धारा 121 (क)

भारतीय दंड संहिता की धारा 121 का भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने के षड्यंत्र को दंडनीय अपराध घोषित करती है। केवल युद्ध करना ही दंडनीय नहीं है अपितु इस प्रकार के युद्ध करने के षड्यंत्र को भी दंडनीय घोषित किया गया है।

जो कोई व्यक्ति भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने युद्ध करने का प्रयत्न करने और युद्ध करने का दुष्प्रेरण करने के लिए भारत के भीतर या बाहर षड्यंत्र करेगा या केंद्र सरकार को या किसी राज्य की सरकार को आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा आतंकित करने का षड्यंत्र करेगा।

उसे आजीवन कारावास या दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि 10 वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से दंडित किया जाएगा। षड्यंत्र से अभिप्राय दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा किसी अवैध कार्य को करने या वैध कार्य को अवैध साधनों के द्वारा करने के लिए सहमत होना है।

भारत दंड संहिता की इस धारा के अनुसार भारत के अंदर या भारत के बाहर दोनों प्रकार से किए गए षड्यंत्र को दंडनीय ठहराया गया है अर्थात यदि कोई भारत के बाहर रहकर भी भारत के विरुद्ध षड्यंत्र करने का अपराध कारित करता है तो भी उसे दंड संहिता की धारा 121 (ए) के अंतर्गत दंडित किया जा सकता है।

राजद्रोह

राज्य के विरुद्ध अपराधों के संबंध में राजद्रोह का अपराध अत्यधिक विवादित अपराध है क्योंकि भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करना साधारण रूप से भारत की एकता और अखंडता को विखंडित करने के आशय को समझा जा सकता है परंतु भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) राजद्रोह के संबंध में उल्लेख कर रही है तथा इस धारा के अनुसार जब कोई व्यक्ति लिखित में या शब्दों द्वारा यह संकेतों द्वारा यह प्रत्यक्ष प्रस्तुतीकरण द्वारा या किसी अन्य विधि से भारत सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करता है या घृणा या अवमान पैदा करने का प्रयास करता है तो वह राजद्रोह करता है।

भारतीय दंड संहिता की इस धारा को विस्तृत रूप से समझा जाना चाहिए। इस धारा के अनुसार भारत की विधि द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध घृणा या अवमान पैदा करने को राष्ट्रद्रोह कहा गया है।

इसका अर्थ किसी राजनीतिक दल से नहीं लगाया जाना चाहिए अपितु भारत द्वारा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार से लगाया जाना चाहिए।

इस धारा के अनुसार ऐसे व्यक्तियों को आजीवन कारावास व जुर्माने से अथवा 3 वर्ष तक की अवधि तक के कारावास और जुर्माने से दंडित किया जाता है। राजद्रोह का अपराध घटित होने के लिए दो बातें आवश्यक होती हैं-

भारत सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करना या पैदा करने का प्रयत्न करना या अप्रीति और प्रदीप्त करना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करना।

ऐसा कार्य लिखें या बोले गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा यह दृश्यरूपण द्वारा हो सकता है या फिर किसी अन्य विधि के माध्यम से भी हो सकता है।

इस धारा के संबंध में आतंकवादी और विध्वंसक गतिविधियां निवारण अधिनियम 1987 के उपबंधों के अनुरूप है। इसमें आतंकवादी विध्वंसक गतिविधियों को देश की एकता और अखंडता को संकट की स्थिति में डालने तथा देश के प्रति अप्रीति तथा प्रदीप्त करने वाले कृत्यों को शामिल किया गया है। मूलचंद बनाम स्टेट ऑफ क्रिमिनल लॉ रिकॉर्ड 1991 एस सी 552 के मामले में कहा गया है कि एक व्यक्ति विदेशी ताकतों से धनराशि प्राप्त कर जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान जिंदाबाद आजाद कश्मीर जिंदाबाद के नारे लगाता है यह विध्वंसक गतिविधि है।

श्री बलवंत सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब एआईआर 1995 एसी 1785 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि साधारण रूप से ऐसे नारे लगाना मात्र इस धारा के अंतर्गत अपराध का गठन नहीं करता है जिससे लोक व्यवस्था भंग नहीं होती है और सरकार को किसी प्रकार की धमकी नहीं मिलती है तथा विधिक समुदायों के बीच घृणा उत्पन्न नहीं होती है।

बलवंत सिंह के इस प्रकरण में अभियुक्त पर 'खालिस्तान जिंदाबाद राज करेगा खालसा' जैसे नारे लगाने का आरोप था।

उस समय पंजाब में खालिस्तान की मांग की जा रही थी तथा खालिस्तान इस संदर्भ में चलाया जा रहा अभियान आतंकी अभियान करार दिया गया था।

प्रकरण में अभियुक्त के आशय को उपर्युक्त में से किसी प्रकार का कोई कृत नहीं माना गया अर्थात उसके आशय में न तो लोक व्यवस्था भंग हो रही थी और न ही सरकार को किसी प्रकार की कोई धमकी मिल रही थी तथा किसी विधिक समुदायों के बीच तनाव उत्पन्न नहीं हो रहा था। उच्चतम न्यायालय द्वारा इस प्रकरण में धारा 124 (ए) तथा धारा 153 (ए) के अंतर्गत अपराध नहीं माना गया।

धारा 124 (ए) के प्रावधानों को आरंभ में विभिन्न उच्च न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 19 (1) उपबंधित व्यवस्था को भंग करने वाले एवं गैर संवैधानिक बताते हुए शून्य ठहराया गया था लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केदारनाथ बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार एआईआर 1962 उच्चतम न्यायालय 955 के प्रकरण के बाद इस धारा की संवैधानिक ठहराया गया है। रामनंदन बनाम स्टेट एआईआर 1959 इलाहाबाद 101 के प्रकरण में भी उच्चतम न्यायालय का यही मत था कि धारा 124 (ए) गैर संवैधानिक धारा नहीं है।

अमृत बाजार पत्रिका प्रेस लिमिटेड का प्रकरण धारा 124 (ए) में महत्वपूर्ण प्रकरण है। इस प्रकरण में राजद्रोह के संबंध में विस्तृत चर्चा हुई है तथा विभिन्न मत व्यक्त किए गए हैं। अमृत बाजार पत्रिका ने दिनांक 10 एवं 12 अप्रैल 1912 के अंको में दो लेख 'भारत किसका है' और 'श्री गांधी की गिरफ्तारी अधिक निर्लज्ज' नाम से प्रकाशित किए थे जिसके बारे में महाराज्यपाल परिषद का मत था कि यह लेख तत्समय प्रवृत सरकार के विरुद्ध घृणा एवं अवमान के भाव फैलाने वाले थे अतः उस पर सहिंता की धारा 124 (ए) तथा प्रेस अधिनियम की धारा 4(1) के अंतर्गत प्रकरण चलाया गया।

इस मामले में खासतौर से अपराध के मूल तत्व के आशय पर विचार किया गया। इस विषय पर यह सिद्धांत प्रतिपादित किया गया कि किसी लेख के अर्थ का पूर्ण रूप से निश्चय हो जाना ही स्वयं लेखक के आशय का प्रमाण है। शब्दों की प्राकृतिक रूप से ही लेखक प्रकाशक के इस आशय का अनुमान लगाया जा सकता है जैसा कि उसका प्राकृतिक अर्थ निकलता है।

इस प्रकरण में बचाव पक्ष द्वारा कहा गया कि लेखक का आशय लेख प्रकाशित कर राजद्रोह का अपराध कारित करना नहीं था और प्रेस अधिनियम के अंतर्गत लेख की प्रति जब्ती का आदेश तब तक नहीं दिया जा सकता जब तक कि सहिंता की धारा 124 (ए) के अंतर्गत राजद्रोह का अपराध सिद्ध नहीं हो सके।

इस प्रकरण में न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि प्रयोग किए गए शब्दों का अर्थ उस में प्रयुक्त की गई भाषा पर निर्भर करता है। जब किसी व्यक्ति पर जो उसने कहा या लिखा आरोप लगाया जाता है तो उसका जो अर्थ होगा वही उस व्यक्ति के आशय का अर्थ होगा और वह अर्थ जो उन व्यक्तियों ने समझा जिनको वह कहे या लिखे गए वही अर्थ लगाया जाएगा। भारत के सभी न्यायालयों में राजद्रोह की यही व्याख्या प्रचलित है।

वर्तमान प्रकरणों के माध्यम से ही राजद्रोह की परिभाषा को तय किया जाता है अर्थात शब्दों के आशय से यह प्रतीत होना चाहिए कि व्यक्ति द्वारा राजद्रोह करने का आशय रखा गया है। राजद्रोह के संबंध में अब तक कोई स्पष्ट और विस्तृत परिभाषा प्रस्तुत नहीं की गई है। राजद्रोह का आशय लिखे गए बोले गए कहे गए शब्दों से ही लगाया जाता है अर्थात शब्द ही प्रतीत कर देते हैं कि व्यक्ति का आशय राजद्रोह करने का है या नहीं। धारा 124 (ए) तब लागू होती है जब शब्द, विलेख और लिखित में हिंसा उत्तेजित करने वाले तत्व हो या वे लोग शांति भंग करने की प्रवृति रखते हो। मुना भाई बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात 1972 क्रिमिनल लॉ जर्नल 373 के प्रकरण में कहा गया है कि चीन के राष्ट्रपति के दर्शन की व्याख्या उसके विद्याधन की दृष्टि से अध्ययन राजद्रोह नहीं है।

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