भारतीय दंड संहिता (IPC) भाग 15 : भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत लोक सुविधा शिष्टाचार और सदाचार को प्रभावित करने वाले अपराध

Update: 2020-12-19 09:45 GMT

पिछले आलेख में भारतीय दंड संहिता के अध्याय 14 के अंतर्गत लोक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले अपराधों के संबंध में चर्चा की गई थी इस आलेख में इस ही अध्याय से संबंधित लोक सुविधा, शिष्टता और सदाचार से संबंधित अपराधों पर सारगर्भित उल्लेख किया जा रहा है।

लोक सुविधा को प्रभावित करने वाले अपराध

भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत उन सभी कार्य या लोप को भी अपराध की श्रेणी में रखा गया है जो किसी न किसी प्रकार से लोक सुविधा और शेम को प्रभावित करते हैं। क्षेम का अर्थ है सुरक्षा होता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 279 से लेकर 289 तक ऐसे अपराधों का उल्लेख किया गया है जो लोक सुविधा और सार्वजनिक सुरक्षा के विरुद्ध कार्य करते हैं।

राज्य का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों को भय मुक्त समाज बना कर दे तथा इस प्रकार के समाज का निर्माण करें जहां व्यक्तियों को अपनी सुरक्षा से संबंधित कोई भय नहीं हो। ऐसे अनेक अपराध जो व्यक्तियों द्वारा सार्वजनिक सुरक्षा को नुकसान पहुंचाते हैं सार्वजनिक सुरक्षा से आशय ऐसी सुरक्षा जो सभी लोगों को प्राप्त हो तथा सार्वजनिक सुविधा से आशय ऐसी सुविधा जो सभी लोगों को समान रूप से प्राप्त हो। जैसे कि किसी सड़क पर चलने का अधिकार सभी लोगों को समान रूप से प्राप्त होता है। सड़क पर चलने वाले अन्य व्यक्तियों का यह कर्तव्य है कि उनके द्वारा कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जाए जिसके माध्यम से चलने वाले लोगों को किसी प्रकार की नुकसानी हो। कोई वाहन तेज गति से उतावलेपन द्वारा नहीं चलाया जाए जिससे सड़क पर चलने वाले अन्य लोगों को किसी प्रकार की क्षति हो।

लोक सुरक्षा को बनाए रखना राज्य का कर्तव्य है, इस कर्तव्य की पूर्ति के लिए भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत लोक सुरक्षा को लेकर संपूर्ण प्रावधान कर दिए गए। यह दांडिक प्रावधान किसी भी प्रकार के ऐसे कार्य जिससे लोक सुरक्षा को खतरा होता है तथा लोक सुरक्षा को क्षति होती है उस स्थिति में दंड का निर्धारण करते हैं।

धाराओं के अनुसार लोक सुरक्षा और सुविधा को प्रभावित करने वाले अपराधों का क्रमवार उल्लेख किया जा रहा है।

उतावलेपन से वाहन चलाना

भारतीय दंड संहिता की धारा 279 लोक मार्ग पर उतावलेपन से वाहन चलाने या हाकने से संबंधित है। इस धारा के अंतर्गत यदि कोई व्यक्ति किसी लोक मार्ग पर उतावलेपन से उपेक्षा से कोई वाहन चलाता है इस प्रकार का वाहन हांकता है जिससे मानव जीवन संकट में हो जाए। ऐसी स्थिति पर किसी व्यक्ति को उपहति या क्षति कारित होना आवश्यक नहीं है।

बगैर क्षति या उपहति भी भारतीय दंड संहिता की धारा 279 के अंतर्गत प्रकरण बन जाता है क्योंकि वाहन इस प्रकार से चलाया जा रहा है जिससे मानव जीवन को संकट में परिस्थितियों में डाला जा रहा है। संहिता की धारा 279 केवल संकट में स्थिति को उत्पन्न करने में लागू होती है। इस धारा के अंतर्गत 6 महीने के कारावास के दंड का साथ में जुर्माने का भी निर्धारण किया गया है।

जहां कोई व्यक्ति ऐसे समय पर जब काफी अधिक भीड़ हो सड़क पर गलत दिशा में गाड़ी चलाता है तो उसे सिद्ध करना होगा कि वह उतावलेपन से या उपेक्षा से गाड़ी नहीं चला रहा था। असम राज्य परिवहन निगम एआईआर 1977 गुवाहाटी 55 के प्रकरण में एक व्यक्ति राष्ट्रीय मार्ग पर बाई और की सड़क से हटकर एक समतल भाग पर साइकिल चला रहा था। पीछे से एक यान में जो बिना हार्न के तेज रफ्तार से आ रहा था सड़क के समतल भाग को छोड़कर असमतल भाग पर पहुंचकर उस साइकिल सवार को टक्कर मार दी। इस प्रकरण में यह निर्धारित किया गया की दुर्घटना यान के उतावलेपन और उपेक्षा के कारण हुई है। इस प्रकार की टक्कर किसी खच्चर जैसे जानवर को लगती है तो वह इस धारा के दंडनीय नहीं है क्योंकि यह धारा मानव जीवन को होने वाली क्षति से संबंध रखती है।

साधारण वाहन दुर्घटना के मामलों में सर्वप्रथम भारतीय दंड संहिता की धारा 279 का प्रयोग किया जाता है क्योंकि जब भी कोई वाहन दुर्घटना होती है तो वाहन उतावलेपन से आवश्यक रूप से चलाया जाता है। उतावलेपन से वाहन चलाने या उपेक्षापूर्वक तरीके से वाहन चलाने के कारण ही कोई दुर्घटना होती है। इस संबंध में स्टेट बनाम मोहम्मद साहब उर्फ बाबा 2007 (2235) कर्नाटक का प्रकरण है। इस प्रकरण में अभियुक्त की लॉरी द्वारा एक खड़ी हुई लॉरी को टक्कर मारी गई। लॉरी के आगे एक व्यक्ति काम कर रहा था जिस की टक्कर से मृत्यु हो गई। अभियुक्त को मृतक की उपस्थिति का ज्ञान नहीं था अभियुक्त को धारा 279 और धारा 304 (ए) के अंतर्गत अभियोजित किया गया। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अभियुक्त के विरुद्ध केवल धारा 279 का मामला माना। धारा 304 ए में उच्च न्यायालय ने कहा कि लापरवाही से वाहन चलाने से लॉरी को टक्कर मारी गई थी मृतक को नहीं।

इसी प्रकार रवि कुमार बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान एआईआर 2012 उच्चतम न्यायालय 2986 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि वाहन दुर्घटना के मामलों में उतावलेपन उपेक्षा से वाहन चलाने का एकमात्र मापदंड गति नहीं नहीं हो सकता वह वाहन चलाने का तरीका भी हो सकता है जिससे मानव जीवन संकट में पड़ जाए। ऐसे मामलों में रेस इप्सा लीक्यूटर का सिद्धांत लागू होता है।

जलयान को उतावलेपन से चलाना

भारतीय दंड संहिता केवल लोक मार्ग पर वाहन चलाने से ही उतावलेपन का अपराध उल्लेख नहीं कर रही है अपितु जलयान को भी उतावलेपन से चलाने के संदर्भ में अपराध का वर्णन कर रही है। धारा 280 के अंतर्गत जो कोई किसी जलयान को ऐसे उतावलेपन या उपेक्षा से चलाएगा जिससे मानव जीवन संकट में हो जाए या किसी अन्य व्यक्ति को क्षति पहुंचे यह संभव जानते हुए। दोनों में से किसी भांति के कारावास जिसकी अवधि 6 महीने तक की होगी और जुर्माने से दंडित किया जाएगा। कारावास साधरण कठोर दोनों प्रकार का होता है।

इसी प्रकार धारा 281 भ्रमक प्रकाश चिन्ह या बॉय के प्रदर्शन के संदर्भ में उल्लेख कर रही है। यदि कोई व्यक्ति किसी नोपरिवहन को भ्रमित करने के उद्देश्य से उसका मार्ग भटका देने के उद्देश्य से कोई प्रकाश चिन्ह लगा देता है तथा समंदर में वह व्यक्ति भटक जाता है उसका यान भटक जाता है। इस प्रकार का अपराध कारित करने पर 7 वर्ष की अवधि तक के कारावास का निर्धारण किया गया है क्योंकि यह एक गंभीर प्रकृति का अपराध है। इस अपराध के अंतर्गत किसी व्यक्ति के मार्ग को भ्रमित जा रहा है, इस प्रकार का अपराध करने के परिणामस्वरूप नोपरिवहन से संबंधित व्यक्ति समंदर या नदी में अपना मार्ग भूल सकता है उसका जीवन संकट में पड़ सकता है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 282 भी जलयान से संबंधित है। इस धारा के अंतर्गत बहुत सारा सामान लदे हुए जलयान में किसी व्यक्ति को बैठाया जाने के संदर्भ में उल्लेख किया गया है। अधिक सामान को लाद कर जब जलयान को चलाया जाता है तो उस जलयान के डूब जाने का खतरा है। इस प्रकार के जलयान में किसी व्यक्ति को लादकर लाना दंडनीय अपराध है। भारतीय दंड संहिता की धारा इस के संदर्भ में 6 महीने के कारावास के दंड धारण कर रही है।

विषैले पदार्थ के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण

भारतीय दंड संहिता की धारा 284 विषैले पदार्थ के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण को अपराध करार देती है। ऐसे अनेक पदार्थ है जो मानव जीवन के लिए संकटकारक है, जिन पदार्थों के संपर्क में आना मानव जीवन को संकट में डाल सकता है। इस प्रकार के पदार्थ किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के लिए कारण बन सकते हैं। जैसे कि किसी जहरीले केमिकल को किसी नाली में बहा देना या फिर किसी जहरीले केमिकल को सड़क पर खुला छोड़ देना। भारतीय दंड संहिता की धारा 284 के अंतर्गत यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार के विषैले पदार्थ के संदर्भ में कोई भी उपेक्षापूर्ण आचरण करता है तो ऐसी स्थिति में 6 महीने के कारावास के दंड का निर्धारण किया गया है। इस प्रकार का विषैला पदार्थ यदि उस व्यक्ति के कब्जे में है और उसके द्वारा उस विषैले पदार्थ का ठीक से व्यवस्थापन नहीं किया जा रहा है या उसे उस ढंग से नहीं रखा जा रहा है जिससे समाज में किसी व्यक्ति के जीवन को कोई खतरा नहीं हो। यहां पर दंड संहिता कार्य की स्थान पर लोप को स्थान दे रही है। उपेक्षापूर्ण आचरण करने वाला व्यक्ति किसी कार्य को नहीं कर रहा है अपितु लोप कर रहा है। उस व्यक्ति का यह कर्तव्य बनता है कि जो विषैला पदार्थ उसके कब्जे में हैं उस विषैले पदार्थों को व्यवस्थित ढंग से रखें जिससे मानव जीवन को संकट नहीं हो, यदि वह अपने कर्तव्य को नहीं मानता है वह कर्तव्य को मानने में लोप कर देता है ऐसी स्थिति में दंड संहिता की धारा 284 उस पर प्रयोज्य होती है।

अग्नि या ज्वलनशील पदार्थ के संदर्भ में उपेक्षापूर्ण आचरण

जिस प्रकार भारतीय दंड संहिता की धारा 284 विषैले पदार्थ के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण को उल्लेखित कर रही है इसी प्रकार धारा 285 अग्नि या ज्वलनशील पदार्थ के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण को उल्लेखित कर रही है। इस धारा के अंतर्गत भी लोप द्वारा कोई अपराध कारित हो रहा है। किसी व्यक्ति द्वारा उसके कर्तव्य को नहीं माना जा रहा है राज्य ने उस व्यक्ति को यह कर्तव्य दिया है कि यदि उसके पास कोई आदमी या ज्वलनशील पदार्थ है तो उसके संबंध में उसे उचित व्यवस्था करनी चाहिए। अब व्यक्ति यहां पर अपने पास रहने वाले ज्वलनशील पदार्थ के संबंध में उचित व्यवस्था नहीं करता है इस प्रकार के लोप द्वारा अपराध कारित किया जाता है। दंड संहिता की धारा 285 अधिनियम अग्नि पदार्थ के संबंध में उपेक्षा करने पर 6 महीने के कारावास के दंड का निर्धारण करती है।

285 से संबंधित मोहम्मद रंगवाला बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र एआईआर 1956 उच्चतम न्यायालय 1616 के प्रकरण ने अभियुक्त ज्वलनशील पदार्थों से संबंधित कारखाने का लाइसेंसधारी था। उसने एक कमरे में जहां तारपीन का तेल तथा वारनिश के डिब्बे रखे हुए थे थोड़ी ही दूर पर कोई पदार्थ पिघलाने के लिए 4 बर्नर जरा रखे थे। जब अभियुक्त पिघलते हुए पदार्थ में तारपीन का तेल डाल रहा था तेल ने अचानक आग पकड़ ली। इस घटना में 7 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को धारा 285 के अधीन दोषी माना।

विस्फोटक पदार्थ के बारे में उपेक्षापूर्ण आचरण

भारतीय दंड सहिंता की धारा 286 किसी उपेक्षापूर्ण आचरण के माध्यम से किसी विस्फोटक पदार्थ की व्यवस्था को दंडनीय अपराध करार देती है। जो कोई किसी विस्फोटक पदार्थ से कोई कार्य से उतावलेपन से यह उपेक्षा से करेगा जिससे मानव जीवन संकटमय हो जाए यह जिससे किसी अन्य व्यक्ति को उपहति होना संभव है। इस धारा के अंतर्गत 6 महीने के कारावास के दंड का निर्धारण किया गया है। विस्फोटक पदार्थों के अंतर्गत दिवाली के पटाखे भी आते हैं दिवाली के पटाखों को उचित ढंग से व्यवस्थित रखना होता है यदि इस प्रकार के पटाखों की उचित व्यवस्था नहीं की जाती है तो बड़ा विस्फोट होना संभव है तथा इस विस्फोट से जनसाधारण को हानि होना संभव है।

मशीनों के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण करना

भारतीय दंड संहिता की धारा 287 मशीनों के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण को लेकर उल्लेख कर रही है। इस धारा के अंतर्गत जो कोई किसी मशीनरी के संबंध में ऐसा कार्य उतावलेपन के आचरण से करता है जिससे मानव जीवन संकट में पड़ जाए या व्यक्तियों के जीवन को खतरा हो जाए इस धारा के अंतर्गत 6 महीने के कारावास के दंड का निर्धारण किया गया है और साथ में जुर्माना अधिरोपित करने की भी घोषणा की गई है।

निर्माण को तोड़ने और उसकी की मरम्मत के संबंध में उपेक्षापूर्ण कार्य

भारतीय दंड संहिता की धारा 288 मकानों इमारतों को तोड़ने और उनकी मरम्मत करते समय उपेक्षापूर्ण कार्य को भी अपराध घोषित करती है। शहरों में बड़ी-बड़ी इमारते बनाई जाती है तथा समय-समय पर इन इमारतों की मरम्मत भी करना होती है और समय-समय पर इमारतों को तोड़ना भी होता है। जब इस प्रकार की इमारतों को तोड़ा जाता है या इनकी मरम्मत की जाती है तो उसके लिए एक व्यवस्थित ढंग होना चाहिए जिससे लोक सुविधा को किसी प्रकार की कोई हानि नहीं हो। यदि किसी व्यक्ति द्वारा किसी इमारत की मरम्मत या उसको उपेक्षापूर्ण तरीके से तोड़ा जा रहा है तो भारतीय दंड संहिता की धारा 288 के अंतर्गत 6 महीने के कारावास के दंड का निर्धारण किया गया है और साथ में जुर्माना भी आरोपित किया जा सकेगा।

जीव जंतु के संबंध में उपेक्षापूर्ण व्यवहार

भारतीय दंड संहिता की धारा 289 जीव जंतुओं के माध्यम से मानव जीवन के प्रति संकट उत्पन्न करने को भी अपराध करार देती है। ऐसे अनेक विषैले और हिंसक जीव होते हैं जिन से मानव जीवन को खतरा होता है। इस प्रकार के जीवो को यदि कोई व्यक्ति अपने कब्जे में रखता है तो उस जीव से किसी व्यक्ति को कोई हानि नहीं हो इसकी व्यवस्था भी उस जीव को अपने कब्जे में रखने वाले व्यक्ति द्वारा की जाएगी।

जैसे कि किसी महावर द्वारा किसी हाथी को पाला जा रहा है किसी सपेरे द्वारा किसी सांप को पाला जा रहा है किसी घुड़सवार द्वारा किसी घोड़े को पाला जा रहा है किसी ग्वाले द्वारा किसी भैंस को पाला जा रहा है इन सब लोगों को अपने जीव-जंतुओं को इस ढंग से रखना होगा जिस ढंग से मानव जीवन को कोई खतरा नहीं हो। इनके द्वारा आपने जीव जंतुओं को इस प्रकार से रखा जाता है जिससे मानव जीवन के लिए संकट उत्पन्न हो तो भारतीय दंड संहिता की धारा 289 (6) महीने के कारावास के दंड का निर्धारण करती है और साथ में जुर्माना भी आरोपित किया जाएगा। इस धारा के लिए किसी कार्य का होना ही आवश्यक नहीं है दुर्घटना का घटना ही आवश्यक नहीं है। उस जीव जंतु द्वारा किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचाया जाना ही आवश्यक नहीं है अपितु इस प्रकार का आचरण रखना ही अपराध बना देता है।

किसी सांप को खुले में छोड़ देना जिससे मानव जीवन को संकट उत्पन्न हो जाए अपराध का गठन कर देता है। इस संबंध में मोती नाम का एक मामला महत्वपूर्ण है इस मामले में अभियुक्त ने अपनी एक भैंस को यह जानते हुए कि वह किसी को भी गंभीर चोट या क्षति कारित कर सकती है उपेक्षा से उसे खुला छोड़ दिया जिसके परिणामस्वरूप उसने परिवादी पर आक्रमण किया और अपने सींग से उसके घाव कारित कर दिए यह धारण किया गया कि अभियुक्त इस धारा के अंतर्गत अपराध का दोषी था।

यदि किसी भी प्रकार का लोक न्यूसेंस फैलाया जा रहा है और उस न्यूसेंस को बंद करने का आदेश किसी लोक अधिकारी, किसी लोक सेवक द्वारा प्रख्यापित कर दिया गया है और फिर भी उस न्यूसेंस को जारी रखा जाता है तो भारतीय दंड सहिंता की धारा 291 (6) महीने के कारावास के दंड का निर्धारण करती है।

शिष्टाचार और सदाचार को प्रभावित करने वाले अपराध

आलेख में ऊपर वर्णित अपराध ऐसे अपराध थे जो लोक सुविधा को संकट में डालते हैं जो लोग सुविधा को नष्ट करते हैं तथा आम जनसाधारण के जीवन के लिए संकट उत्पन्न करते हैं इसके साथ ही भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अध्याय 14 शिष्टता और सदाचार को प्रभावित करने वाले अपराधों का भी उल्लेख कर रहा है, शिष्टता और सदाचार आदर्श जीवन के आवश्यक लक्षण है यदि कोई व्यक्ति ऐसा कार्य करता है जिससे शिष्टता और सदाचार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तो उसे अपराध की श्रेणी में रखा जाकर अभियुक्त को दंडित किया जाना उचित एवं न्याय पूर्ण है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 292 से 294 तक अश्लीलता के बारे में प्रावधान किए गए हैं। इसमें अश्लील पुस्तकों को बेचना और अश्लील पुस्तकों को बांटना, किसी सार्वजनिक स्थान पर कोई अश्लील कार्य करना, अश्लील गीत गाना, अश्लील शब्दों को बोलना अश्लील वस्तु प्रदर्शित करना, 20 वर्ष से कम आयु वाले व्यक्ति को भ्रष्ट करना आदि सभी शिष्टाचार और सदाचार से संबंधित अपराधों का उल्लेख किया गया है।

अश्लील पुस्तक बेचना

दंड संहिता की धारा 292 अश्लील पुस्तकों को बेचने के संबंध में उल्लेख कर रही है। किसी भी प्रकार की अश्लील पुस्तक का विक्रय करना जो कामवासना को जन्म देती हो दंडनीय अपराध है। धारा 292 की उपधारा एक और दो प्रायोजन के लिए कोई पुस्तक,पुस्तिका, कागज, लेखन, रेखाचित्र, रंग चित्र, रूपण ,आकृति या अन्य वस्तु उस दशा में अश्लील समझी जाएगी जब वह कामोत्तेजक है उसमें कामवासना को आकृष्ट किया गया है लोगों को बुरा और भ्रष्ट बनाने का आशय रखने के साथ प्रकाशित किया गया है।

किसी अश्लील पुस्तक, पुस्तिका, कागज किसी भी अश्लील वस्तु को चाहे वह कुछ भी हो बेचेगा या भाड़े पर देगा वितरित करेगा लोक प्रदर्शित करेगा या उसको किसी भी प्रकार से परिचालित करेगा या उसके विक्रय भाड़े वितरण लोक प्रदर्शन या परिचालन के प्रयोजन के लिए बेचेगा उत्पादित करेगा उसका कब्जा रखेगा वह इस धारा के अंतर्गत दंडित किया जाएगा। प्रथम बार दोषसिद्ध किए जाने पर 2 वर्ष की अवधि तक कारावास या जुर्माना और दूसरी बार फिर इस प्रकार का अपराध करने की स्थिति में 5 वर्ष तक का कारावास और जुर्माना निर्धारित किया गया है।

लेखक और फिल्मकारों तथा चित्रकारों पर इस धारा का प्रयोग किया जाता रहा है। समय-समय पर इस प्रकार के लेख चित्र तथा फिल्में देखने को मिलती है जो अश्लीलता का प्रचार करती हैं। समरेश बोस के प्रकरण में एक सुप्रसिद्ध लेखक ने समाज में व्याप्त बुराइयों को प्रकट करने के लिए उपन्यास लिखा। उपन्यास कामुकता पर प्रकाश डाल रहा था। अपभाषा का प्रयोग किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रकरण में अश्लीलता नहीं माना और कहा कि अशिष्ट लेखन अश्लील ही हो आवश्यक नहीं है, समाज में व्याप्त बुराइयों का प्रकटीकरण अश्लील नहीं कहा जा सकता।

उर्दू के मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो पर भी धारा 292 के अंतर्गत प्रकरण चलाया गया था। इस प्रकरण में उनके द्वारा लिखी गई कहानी ठंडा गोश्त को अश्लीलता के आरोप लगाए गए थे हालांकि न्यायालय द्वारा सहादत हसन मंटो को अश्लीलता का आरोपी नहीं माना गया।

भारत के प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता राज कपूर भी इस प्रकरण में आरोपी रह चुके हैं। राज कपूर बनाम लक्ष्मण का मामला रहा है। इस मामले में सत्यम शिवम सुंदरम फिल्म को अश्लील बताते हुए चुनौती दी गई थी। न्यायालय ने इसे यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि फिल्म का प्रदर्शन विधि द्वारा समनुदेशन होने से इस धारा के प्रतिबंध उस पर लागू नहीं होंगे।

प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन पर भी इस धारा के अंतर्गत प्रकरण चलाया गया था। गीता बनाम स्टेट ऑफ़ हिमाचल प्रदेश के मामले में अश्लील फिल्म पोर्न पिक्चर के प्रदर्शन को गंभीर अपराध मानते हुए परिवीक्षा का लाभ नहीं दी जाने की अनुशंसा की गई चाहे अभियुक्त का वह पहला अपराध ही क्यों न हो।

20 वर्ष से कम आयु के किसी तरुण व्यक्ति को अश्लील वस्तुओं को विक्रय करना भारतीय दंड सहिंता की धारा 293 के अंतर्गत दंडनीय अपराध है इस प्रकार का अपराध इस धारा के अनुसार 3 वर्ष के कारावास से दंडित है।

अश्लील कार्य और अश्लील गाने गाना-

संहिता किसी लोक स्थान पर अश्लील कार्य करना तथा अश्लील गाने गाना दंडित दंडनीय अपराध करार देती है। इस धारा के अंतर्गत अश्लील शब्द की परिभाषा तो प्रस्तुत नहीं की गई है परंतु इसके सामान्य अर्थ जरूर प्रस्तुत कर दिए गए। सामान्य रूप से विधि के अंतर्गत वे सभी अभिव्यक्ति हैं चाहे वह लिखित हो या मौखिक हो चाहे संकेत के माध्यम से हो चित्रों के माध्यम से हो अश्लील होती है जो कामउत्तेजना को भड़काता है जो सामान मस्तिष्क वाले व्यक्तियों के नैतिक स्तर को निम्न करती है अश्लील मानी जाती है।

दंड संहिता की धारा 294 अश्लील कार्य और गानों के संदर्भ में उल्लेख करती है।

अभिव्यक्ति का रूप और गुण इस प्रकार का होना चाहिए कि सामान्य कोटि का मस्तिष्क रखने वाले व्यक्ति उससे प्रभावित हो सके।

कोई लेख वचन संकेत अथवा वस्तु अश्लील है या नहीं इस मामले में तथ्यों और उनकी परिस्थितियों पर निर्भर करता है क्योंकि नैतिक मूल्यों का कोई सार्वभौमिक सामान्य मापदंड नहीं है इसलिए अश्लीलता का स्वभाव गुण, क्षेत्र, देश, काल के अनुसार बदलता रहता है। कोई वस्तु एक स्थान पर अश्लील मानी जा सकती है किंतु वह दूसरे स्थान पर अश्लील नहीं मानी जाती है। सामान्य रूप से न्यायालयों ने काम उत्तेजना भड़काने वाली वस्तुओं वचनों लेखों संकेतों आदि को अश्लील माना है। अश्लील की जांच इस आधार पर करनी चाहिए कि वस्तु आदि से लोक आचरण पर क्या प्रभाव पड़ता है। वह किस प्रकार उचित मात्रा में लोगों पर अनैतिक प्रभाव डालती है। ठाकुर प्रसाद एआईआर 1959 इलाहाबाद 49 के प्रकरण में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी अश्लील वस्तु की नकल करता है इस धारा के अधीन दंडनीय होगा।

इस धारा के संबंध में जफर अहमद एआईआर 1963 इलाहाबाद 105 का प्रकरण महत्वपूर्ण है। इसमें अभियुक्त को 2 प्रतिष्ठित लड़कियों को जिनका उससे कोई परिचय नहीं था उसके साथ लैंगिक संबंध स्थापित करने के लिए खुले रुप में पुकारा और अपने साथ रिक्शा गाड़ी में चलने के लिए कहा। यह निर्धारित किया गया है कि वह अश्लील कार्य का दोषी है क्योंकि अभियुक्त द्वारा उच्चारित किए गए शब्द कामोत्तेजक शब्द है।

एक अन्य प्रकरण में अभियुक्त ने पुराने ख्याति प्राप्त लेखकों द्वारा लिखित पुस्तकें कामसूत्र, रतिरहस्य, अंग रंग आदि का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया। इन पुस्तकों में महिलाओं के नंगे चित्र दिए गए जिनका पुस्तकों के विषय वस्तु से कोई संबंध नहीं था। इन चित्रों को प्रकाशित करने का उद्देश्य स्वास्थ्य सेक्स शिक्षा देना नहीं था अपितु नारियों के शरीर का भोंडा प्रदर्शन करना था जिससे उनके शरीर के अंगों को दिखाया जा सके उस पुस्तक को बेचा जा सके। यह निर्धारित किया गया है कि अभियुक्त ने धारा 292 के अंतर्गत अपराध कारित किया है।

श्रीराम सक्सेना के एक प्रकरण में कलात्मक कृतियों को अश्लील नहीं माना गया किसी महिला को नग्न रूप में चित्रित करना मात्र अपने आप में अश्लील नहीं है जबकि वह चित्र एक सामान्य शिष्ट व्यक्ति को प्रभावित नहीं करता है।

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