Partnership को समाप्त करने के मुकदमों में Court Fee कैसे लगेगी – Rajasthan Court Fees Act, 1961 की धारा 34

भागीदारी (Partnership) एक ऐसा कानूनी संबंध है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी व्यवसाय को मिलकर चलाते हैं और उससे होने वाले लाभ और हानि को आपस में बाँटते हैं। लेकिन समय के साथ, कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं जब भागीदारों के बीच मतभेद हो जाते हैं और वे अपनी भागीदारी समाप्त करना चाहते हैं। ऐसे मामलों में अक्सर Suit for Dissolution of Partnership यानी भागीदारी समाप्त करने का मुकदमा दायर किया जाता है।
Rajasthan Court Fees and Suits Valuation Act, 1961 की धारा 34 ऐसे मामलों में लागू होती है। यह धारा बताती है कि जब कोई व्यक्ति अदालत में भागीदारी समाप्त करने और उसमें लेखा-जोखा (Accounts) करने के लिए मुकदमा करता है, तो Court Fee किस आधार पर लगेगी। यह प्रावधान न्यायिक प्रक्रिया को सुचारू बनाने और पक्षकारों को उनके हिस्से की सही जानकारी देने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
इस लेख में हम धारा 34 के प्रत्येक उप-प्रावधान को सरल भाषा में समझेंगे ताकि आम पाठक भी यह जान सके कि इस तरह के मामलों में Court Fee किस तरह से तय होती है। जहाँ आवश्यक होगा, वहाँ उदाहरण (Illustration) भी प्रस्तुत किए जाएंगे।
धारा 34(1): Plaint में अनुमानित हिस्से के मूल्य पर Court Fee देनी होगी (Court Fee on Estimated Value of Plaintiff's Share in the Partnership)
जब कोई भागीदार अपने अन्य साथियों के खिलाफ Partnership को समाप्त करने और लेखा-जोखा (Accounts) करवाने के लिए मुकदमा करता है, तो उसे Plaint (मुकदमे की प्रारंभिक अर्जी) में यह अनुमान लगाना होता है कि उसका Partnership में कितना हिस्सा है और उसकी कितनी कीमत है। Court Fee उसी अनुमानित मूल्य (Estimated Value) के अनुसार दी जाती है।
उदाहरण के तौर पर, यदि तीन भागीदारों की साझेदारी है और उनमें से एक भागीदार राम, यह मुकदमा करता है कि उसकी हिस्सेदारी ₹5 लाख है, तो वह ₹5 लाख के अनुसार Court Fee अदा करेगा। यह अनुमानित मूल्य राम स्वयं तय करता है और उसी पर Fee लगती है। यदि बाद में यह मूल्य अधिक निकलता है, तो अगले उप-विनियम लागू होंगे।
धारा 34(2): यदि वास्तविक मूल्य अधिक निकले, तो Extra Court Fee देना आवश्यक होगा (Additional Fee if Actual Value is Higher than Estimated)
यदि मुकदमे के दौरान यह साबित होता है कि Plaintiff (मुकदमा दायर करने वाला भागीदार) की हिस्सेदारी का वास्तविक मूल्य Plaint में दिए गए अनुमान से अधिक है, तो Court तब तक कोई अंतिम निर्णय (Final Decree) पारित नहीं करेगा जब तक कि Plaintiff अतिरिक्त Court Fee अदा न कर दे।
यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि कोई प्रारंभिक निर्णय (Preliminary Decree) पारित हो चुका हो, तब भी अंतिम निर्णय (Final Decree) तब तक पारित नहीं किया जाएगा, जब तक कि वह Extra Fee अदा न कर दी जाए। इसके अलावा, जब तक यह Extra Fee जमा नहीं की जाती, तब तक Partnership की संपत्ति (Assets) में से Plaintiff को कोई राशि नहीं दी जाएगी और न ही कोई संपत्ति उसके हिस्से में दी जाएगी।
उदाहरण के तौर पर, अगर राम ने Plaint में ₹5 लाख का दावा किया, लेकिन सुनवाई के दौरान उसकी हिस्सेदारी ₹8 लाख निकलती है, तो कोर्ट यह सुनिश्चित करेगा कि वह ₹3 लाख अतिरिक्त हिस्से पर लगने वाली Court Fee जमा करे। जब तक वह यह अतिरिक्त राशि नहीं देता, तब तक न तो उसे पैसे मिलेंगे और न ही संपत्ति में से कुछ हिस्सा मिलेगा।
यह नियम इस बात को सुनिश्चित करता है कि Plaintiff ईमानदारी से अपना हिस्सा बताए और अदालत को गुमराह न करे।
धारा 34(3): Defendant को हिस्सा मिलने पर Court Fee देना होगा (Court Fee Payable by Defendant Before Receiving Share of Assets)
यह उप-विनियम Defendant यानी मुकदमे में उत्तरदाता भागीदार के लिए लागू होता है। यदि मुकदमे के अंत में यह साबित होता है कि Defendant को भी Partnership की संपत्ति से कुछ हिस्सा मिलना चाहिए, तो तब तक Court उसके पक्ष में कोई अंतिम निर्णय नहीं देगा, न तो कोई पैसा देगा और न ही कोई संपत्ति का हिस्सा देगा, जब तक वह अपनी हिस्सेदारी पर लगने वाली Court Fee अदा नहीं करता।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि श्याम, जो इस मुकदमे में Defendant है, को Court यह तय करता है कि उसे Partnership की कुल संपत्ति में से ₹4 लाख मिलना चाहिए, तो Court तब तक कोई Decree उसके पक्ष में नहीं देगा जब तक वह ₹4 लाख के अनुसार Court Fee जमा नहीं कर देता।
यह प्रावधान पूरी तरह से न्यायसंगत है, क्योंकि यदि Plaintiff को अतिरिक्त Fee भरनी पड़ती है तो वही नियम Defendant पर भी लागू होना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होता है कि कोई भी पक्ष, चाहे Plaintiff हो या Defendant, यदि Partnership से किसी प्रकार का लाभ पाता है तो उसे उस लाभ पर लगने वाली अदालत फीस चुकानी होगी।
पिछली धाराओं से तुलना (Comparison with Previous Sections)
इस धारा की प्रक्रिया काफी हद तक Section 33 (Suits for Accounts) से मिलती-जुलती है। वहाँ भी Court Fee Estimated Amount पर दी जाती है, और अगर वास्तविक राशि अधिक हो जाती है, तो अतिरिक्त Fee देनी पड़ती है। Section 32 में Mortgage (बंधक) मामलों में भी यही सिद्धांत लागू होता है कि Plaint में जितनी राशि का दावा किया गया है, उसी पर Court Fee दी जाती है और अधिक राशि निकलने पर Extra Fee देनी पड़ती है।
धारा 34 में Partnership संबंधी मामलों पर खास ध्यान दिया गया है, जहाँ अधिकतर लेखा-जोखा स्पष्ट नहीं होता और मुकदमे की सुनवाई के बाद ही वास्तविक स्थिति सामने आती है। इसलिए Court Fee की गणना का आधार भी लचीला (Flexible) रखा गया है, ताकि किसी भी पक्ष को अनुचित लाभ न मिले।
Rajasthan Court Fees and Suits Valuation Act, 1961 की धारा 34, उन मुकदमों पर लागू होती है जो भागीदारी (Partnership) को समाप्त करने और उसमें लेखा-जोखा (Accounts) तय करने से संबंधित होते हैं। इस धारा के अनुसार Plaint में दी गई Estimated Value के आधार पर Court Fee देनी होती है। लेकिन यदि मुकदमे के दौरान यह स्पष्ट होता है कि Plaintiff की हिस्सेदारी अधिक मूल्य की है, तो उसे उस अतिरिक्त हिस्से पर भी Court Fee अदा करनी होती है।
उसी तरह यदि Defendant को कोई हिस्सा मिलता है, तो उसे भी Court Fee अदा करनी होगी। यह धारा न्याय के मूल सिद्धांतों के अनुसार है और यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी पक्ष गलत जानकारी देकर मुकदमे में अनुचित लाभ न ले सके।
इसलिए यदि कोई व्यक्ति Partnership से संबंधित विवाद में Court का रुख करता है, तो उसे Plaint में अपनी हिस्सेदारी का सही-सही अनुमान लगाना चाहिए और उसी अनुसार Court Fee अदा करनी चाहिए। अगर आगे चलकर उसकी हिस्सेदारी अधिक निकलती है, तो अतिरिक्त Court Fee देना उसकी जिम्मेदारी है।