भारतीय साक्ष्य अधिनियम में डाइंग डिक्लेरेशन

Update: 2024-10-31 07:16 GMT

भारतीय साक्ष्य अधिनियम में डाइंग डिक्लियरेशन का उल्लेख है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 26(क) के अंतर्गत डाइंग डिक्लियरेशन का वर्णन किया गया है तथा डाइंग डिक्लियरेशन को साक्ष्य के अंदर अधिकारिता दी गई है। साक्ष्य अधिनियम में सुसंगत तथ्य क्या होंगे इस संबंध में एक पूरा अध्याय दिया गया है,इस अध्याय के अंदर ही धारा 26 (क) का भी समावेश है। इस धारा के अंतर्गत यह बताने का प्रयास किया गया है कोई भी कथन डाइंग डिक्लियरेशन है तो उसे सुसंगत माना जाएगा।

व्यक्ति अपने ईश्वर से मिलने वाला होता है, अंतिम समय बिल्कुल निकट होता है, तो ऐसा माना जाता है कि इसे अंतिम समय में वह व्यक्ति अपने मुंह में झूठ लेकर नहीं मरता है। हर व्यक्ति सच कह कर मृत्यु को प्राप्त होता है। डाइंग डिक्लियरेशन को यह माना गया है कि यह अंतिम सत्य है। यदि कोई व्यक्ति मृत्यु के समय अपना कथन दे रहा है जब जीवन की कोई आशा नहीं बचती है,जब संसार का कोई मोह नहीं बचता है, ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति डाइंग डिक्लियरेशन कहता है तो भारत के साक्ष्य अधिनियम में उस कथन को सुसंगत माना गया है। यह कथन मृत्यु के संबंध में ही ग्रहण किया जाएगा या फिर मृत्यु जिन संव्यवहार से हुई है उस परिस्थिति में डाइंग डिक्लियरेशन ग्रह्यम है।

डाइंग डिक्लियरेशन को केवल मृत्यु के समय कह गया कथन ही नहीं माना गया है। इसमें कुछ तत्वों का भी समावेश किया गया है,तथा समय-समय पर भारत के न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के आधार पर मृत्यु कालिक कथन की एक विस्तृत अपेक्षा की गई है तथा मृत्यु कालिक कथन पर समय-समय पर परिवर्तन होते रहे है।

'किसी अनुपस्थित व्यक्ति का कथन तब साबित किया जा सकता है जब उसकी मृत्यु के कारण के बारे में था या संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे में किया गया था, जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु हुई और मामले में उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत है।ऐसा कथन प्रत्येक ऐसी कार्यवाही में सुसंगत होगा जिसमे उसकी मृत्यु का कारण प्रश्नगत हो'

इंग्लिश लॉ में डाइंग डिक्लियरेशन का महत्व है। एक पुराने मुकदमे में आर बनाम वुडकॉक में बताया गया है,आरोपी पर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप था। हत्या की परिस्थितियों के बारे में पत्नी का कथन एक मजिस्ट्रेट ने अभिलेखन किया।इसके 24 घंटे के बाद स्त्री की मृत्यु हुई,उसने बार-बार दोहराया कि उसका पति क्रूरता का व्यवहार करता था।अंतिम क्षण तक होश में रही और अपने होने वाले विघटन की कोई कल्पना भी नहीं कर रही थी।

इंग्लिश लॉ के कई बारीकी तथा तकनीकी मुद्दे धारा 26 (क) में नहीं लाए गए थे। जिस बात पर महत्वपूर्ण रूप से उपधारा इंग्लिश विधि से अलग हुई है। वह यह है कि यह आवश्यक नहीं है कि कथनकर्ता की मौत की आशा से घिर चुका हो,अगर कथनकर्ता वास्तव में मर गया है और उसका कथन मृत्यु की परिस्थितियों पर प्रकाश डालता है,सुसंगत होगा चाहे उस समय मृत्यु होने का कारण भी न पैदा हुआ हो। इसका सांविधिक परिणाम धारा 32(1) स्वयं है,और न्यायिक प्रमाण प्रिवी कौंसिल का एक मामला है जिसे पाकला नारायण स्वामी बनाम सम्राट का मामला कहा जाता है।

इस मामले में मृतक ने पाकला नारायण स्वामी नामक व्यक्ति से कुछ रुपए कर्ज पर उधार लिए थे तथा वह इन्हें चुका नहीं पा रहा था। पाकला नारायण द्वारा उसे समय-समय पर कर्ज़ अदा करने के लिए धमकियां दी जा रही थी।स्वामी ने ऐसी धमकियां पत्र के माध्यम से दी थी तथा मृतक की पत्नी के पास पत्र उपलब्ध थे।

जब मृतक पाकला नारायणस्वामी से मिलने उसके शहर जा रहा था तो अपनी पत्नी से कह कर गया था कि वह पाकला नारायण से मिलने उसके शहर बरहामपुर जा रहा है। कुछ समय बाद मृतक की लाश एक ट्रंक से बरामद हुई। न्यायालय ने पाकला नारायण स्वामी को मुकदमे में दोषी माना क्योंकि जो ट्रंक से मृतक की लाश बरामद हुई थी उसको उसको पाकला नारायण स्वामी द्वारा खरीदा गया था तथा मृतक अपनी पत्नी को यह अपने अंतिम कथन कह कर गया था वह बरहामपुर स्वामी के पास जा रहा है। इस कथन को डाइंग डिक्लियरेशन माना गया है।

मृत्यु कालिक कथन को केवल इस आधार पर निरस्त नहीं किया जा सकता की डाइंग डिक्लियरेशन मृत्यु के समय नहीं कहा गया था।डाइंग डिक्लियरेशन किसी भी समय कहा जा सकता है तथा इस कथन का संबंध घटना और परिस्थितियों से होना चाहिए।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का एक मुकदमा है जिसे शरद बिरदी चंद्र शारदा बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के नाम से जाना जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने इंगित किया है कि कथन का संबंध आवश्यक रूप से मृत्यु के कारण एवं मृत्यु पैदा करने वाले संव्यवहार की परिस्थितियों से होना चाहिए। इस मामले में एक विवाहित स्त्री की विवाह के 4 महीने बाद ही ससुराल में मृत्यु हो गयी। उन चार महीनों में वह अपनी दशा के बारे में अपनी बहन तथा अन्य संबंधियों को पत्र लिखती रही थी। निर्णय किया पत्र धारा 26(क)के अंतर्गत सही रूप से सुसंगत थे क्योंकि वह मृत्यु के कारण का वर्णन कर रहे थे।

किसी भी डाइंग डिक्लियरेशन में पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती है। शांति बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मृत्यु कालिक कथन में पुष्टि आवश्यक नहीं होती है,क्योंकि हो सकता है कि स्वतंत्र गवाह पुष्टि करने के लिए मिल ही ना पा रहे हो लेकिन डाइंग डिक्लियरेशन को विश्वास योग्य मानने से पूर्व उचित सावधानी तथा सतर्कता का प्रयोग किया जाना चाहिए। जब कथन के बारे में यह लगे कि वह विश्वसनीयता के साथ था तो इसके आधार पर दोषसिद्धि की जा सकती है। डाइंग डिक्लियरेशन ऐसा होना चाहिए जो विश्वास पैदा करें और यह ना लगे कि मृतक को सिखा पढ़ा दिया था।

कोई डाइंग डिक्लियरेशन पुलिस के समक्ष भी किया जा सकता है,तथा पुलिस इस डाइंग डिक्लियरेशन को एफआईआर रिपोर्ट में दर्ज कर सकती है। के रामाचंद्र रेड्डी के मामले में एक व्यक्ति थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाने आया। वह व्यक्ति अत्यंत घायल था, रिपोर्ट लिखाने के बाद 1 घंटे के भीतर उस व्यक्ति की मौत हो गई।

न्यायालय द्वारा इस कथन को उसका डाइंग डिक्लियरेशन माना गया एवं उसे सुसंगत माना गया।बचाव पक्ष की यह दलील थी कि यह कथन पुलिस को किया गया है,इसलिए इस कथन को डाइंग डिक्लियरेशन नहीं माना जाए परंतु सुप्रीम कोर्ट ने एक अपने अन्य निर्णय के अनुसार मृत्युकालीन कथन का मात्र इस आधार पर निरस्त करने से इंकार कर दिया कि वह पुलिस द्वारा दर्ज किया गया था।यह जरूरी नहीं है कि कोई भी डाइंग डिक्लियरेशन मजिस्ट्रेट द्वारा ही मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में दर्ज किया जाए।

कोई मृत्यु कालिक कथन इशारों के माध्यम से भी किया जा सकता है, एवं यह कथन ग्राह्यम होगा। यह इलाहाबाद हाई कोर्ट की पूर्ण न्यायपीठ में क्वीन बनाम अब्दुल्लाह के मामले में प्रतिपादित किया था।

इस मामले में एक लड़की का गला काट कर मारा गया था और इसलिए होश में होते हुए भी वह बोल नहीं पा रही थी। हाथों के इशारों से उसने अभियुक्त का नाम समझाया इसे डाइंग डिक्लियरेशन माना गया।

यदि डाइंग डिक्लियरेशनकर्ता जीवित रह जाए तो उसका कथन डाइंग डिक्लियरेशन नहीं माना जाता है। वह केवल ऐसा कथन होगा जिसे अन्वेषण के दौरान किया गया।उसका कथन यदि मजिस्ट्रेट के समक्ष किया गया हो तो कथनकर्ता साक्षी के कटघरे में आकर बयान देता है,तो उसके न्यायालय के काम में किए गए कथन को उसके पहले वाले कथन से संपुष्ट किया जा सकता है,या काटा जा सकता है। धारा 157 इस बात की अनुज्ञा देती है कि किसी तथ्य के बारे में किसी साक्षी का भूतपूर्व कथन जो ऐसे अधिकारी के सामने किया गया हो जो उस तथ्य के अन्वेषण के लिए विधिक रूप से सक्षम हो ऐसे कथन को साबित किया जा सकता है।

एक मामले में यह तय किया गया है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा जो पागल या विकृत चित्त है कोई डाइंग डिक्लियरेशन किया जा रहा है तो जिस समय वह कथन कर रहा है उस समय उस व्यक्ति की मनोदशा ठीक होनी चाहिए,इसका प्रमाण उपलब्ध कराना होगा तब ही डाइंग डिक्लियरेशन को साबित माना जाएगा।

डाइंग डिक्लियरेशन एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है तथा यदि इस कथन को अभियोजन द्वारा साबित कर दिया जाता है तो यह किसी भी मामले में अभियोजन पक्ष को मजबूत कर देता है।

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