उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:3 अधिनियम की परिभाषा से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (The Consumer Protection Act, 2019) की धारा 2 के अंतर्गत परिभाषा खंड प्रस्तुत किया गया है।इसका परिभाषा खंड अत्यंत विस्तृत है और अनेकों शब्द में इसे परिभाषित किया गया है। बहुत सारे शब्द ऐसे हैं जिन की परिभाषाएं इस धारा में प्रस्तुत की गई है। इस आलेख के अंतर्गत इस परिभाषा खंड से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातों को उल्लेखित किया जा रहा है।
कौन परिवाद नहीं संस्थित कर सकता है:-
एक प्रकरण में परिवादी ने अभिकथन किया कि एक समाचार पत्र के रिपोर्ट के अनुसार कलकत्ता से दिल्ली जाने वाले फ्लाइट के यात्रीगण को काफी समय तक एयरपोर्ट पर रखना पड़ा क्योंकि मुख्यमंत्री के इन्तजार में इसके प्रस्थान का समय विलम्ब से कर दिया गया। मामले में यह धारण किया गया कि समाचार रिपोर्ट के आधार पर तृतीय पक्ष द्वारा परिवाद नहीं प्रस्तुत किया जा सकता है।
एक अन्य मामले में परिवादी को कम्पनी के सदस्य के रूप में नामांकित किया गया तथा कुछ सेवाओं के लिए उत्तरदायी था जैसे कि नियोजन अवसरों के बारे में सूचना देना। इसके अतिरिक्त नामांकित संदाय अन्य "वेलफेयर स्कीम में भाग ले सकते थे जिसके अन्तर्गत कम समय के अन्दर 100/ के पूंजी निवेश पर एक संदाय 15 लाख अदायगी कर सकता था। संदाय पर कपट छ तथा सेवा में असक्षमता का आरोप लगाया गया। यह धारण किया गया कि परिवादी अधिनियम के अन्तर्गत बाद नहीं संस्थित कर सकता है।
परिवाद मंजूर किया जाना:-
छत्तीसगढ़ राज्य कृषि विपणन मण्डी बोर्ड बनाम समरु यादव, 2013 के प्रकरण में प्रत्यर्थी परिवादी ने परिवाद में प्रश्नगत रिपोर्ट की त्रुटियों के सम्बन्ध में अभिकथन किया लेकिन उसने कुछ भी विनिर्दिष्ट वर्णित नहीं किया गया। उसने यहां तक कि उसके परिवाद के समर्थन में शपथ पत्र भी दाखिल नहीं किया। परिवादी ने परिवाद के पैरा 3 में स्वीकार किया है कि उसे अपीलीकरण द्वारा मुक्त सेवा कैम्प के बारे में सूचित कियाग या था लेकिन उसने कुछ भी वर्णित नहीं किया कि क्यों उसने वहां चेक / मरम्मत के उपलब्ध अवसर को प्रविरत किया। अपील मंजूर की गयी।
झूठा परिवाद प्रभाव:- यदि परिवादी उपभोक्ता फोरम के समक्ष झूठा दावा दाखिल करता है तो उसे प्रतिपक्षी को मुकदमे का खर्च देना होगा।
गनेश फेल्स बनाम न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कं) लिमिटेड 1993 के प्रकरण में परिवादी ने बीमा कम्पनी के विरुद्ध दावा दायर किया। राज्य आयोग ने 16,00,000 दावे के विरुद्ध 6466/- निर्धारित किया। अपील में यह निर्णय दिया गया कि अपीलार्थी ने एक झूटा एवं अतिशयपूर्ण दावा किया है।
जहाँ पर परिवाद प्रस्तुत किया गया। उपचार की कीमत परिवाद 102,617 थी जो जानबूझकर इतनी अधिक बताई गयी थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि परिवादी उपभोक्ता को इतने बड़े दावे का सहारा नहीं लेना चाहिए। इस प्रकार के रवैया को सख्ती से हतोत्साहित करना चाहिए। इसलिए, यह याचिका निरस्त होने योग्य मानी गई।
परमानन्द त्रिपाठी बनाम केनारा बैंक, 1993 के मामले में परिवादी ने बैंक के खिलाफ यह आरोप लगाते हुए कि बैंक ने सन् 1981, 1982 में सेवा की कमी किया था, 1992 में परिवाद प्रस्तुत किया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि इस प्रकार के झूठे परिवाद अभिनिर्धारण के लिए नहीं सुने जाने चाहिए।
17. टेलीफोन कनेक्शन के संदर्भ में परिवाद- यदि टेलीफोन का ग्राहक एक टेलीफोन का बिल अदा करने में असफल रहता है तो उसके दूसरे टेलीफोन के कनेक्शन को काटा जा सकता है।
एयरलाइन्स के विरूद्ध परिवाद:-
पक्ष न बनाया जाना विपक्षी एयरलाइन्स का यह कथन कि परिवादी ने परिवादी की पत्नी एवं बच्चों को पक्षकार नहीं बनाया है। बाद योग्य नहीं है। यह केवल परिवादी ही जिसने अपने लिए अपनी पत्नी एवं बच्चों के लिए टिकट खरीदा था और इसलिए पति परिवाद दाखिल करने के लिए सक्षम था परन्तु आगे विपक्षी एयरलाइन्स का यह तर्क कि मलेशियन एयरलाइन्स को पार्टी न बनाया जाना गलत या स्वीकार योग्य है।
आरोपित कमी मुख्यतया मलेशियन एयरलाइन्स सिस्टम के विरुद्ध थी और इसलिए उसको पक्षकार न बनाया जाना परिवाद के लिए घातक था. परिवाद निरस्त कर दिया गया।
चीफ कमर्शियल ऑफिसर इण्डियन एयर लाइन्स बनाम पीर तालचन्द (1999) के मामले में कहा गया है कि जहां परिवादी द्वारा इण्डियन एयर लाइस की सेवा के सन्दर्भ में इस आधार पर परिवाद प्रस्तुत किया गया कि उड़ान की समय सारण में परिवर्तन किये जाने में उसे परेशानी उठानी पड़ी। अतः यह हवाई सेवा की अक्षमता को दर्शाती है। यह एजेंट का कर्तव्य था कि वह इसकी पूर्व सूचना देता। अतः उसका दावा वैध था, फिर भी मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने उक्त परिवाद को निरस्त किया।
जहां एयर लाइन की उड़ाने लगभग 6 हफ्ते तक व्यवधानित होने के कारण परिवादी को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा, जिससे वह क्षतिपूर्ति हेतु दावा प्रस्तुत किया, उक्त दावा मामले से सम्बन्धित तथ्य एवं परिस्थितियों के अनुसरण में घोषित पाया गया और उसका परिवाद सफल रहा।
बैंक के विरुद्ध परिवाद:-
एक वाद में जहाँ परिवादी कृष्णा ग्रामीण बैंक था तथा वादी ने ग्रामीण निर्धनता स्कीम के अधीन स्वतः रोज़गार कार्यक्रम के अन्तर्गत कर्ज के लिए प्रतिवादी बैंक के यहाँ प्रार्थना पत्र दिया। प्रार्थी को किसी अन्य बैंक से किसी अन्य उद्देश्य के लिए दोषी नहीं मानना चाहिए। इसलिए यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि प्रतिवादी का बैंक से कर्ज लेने की प्रार्थना पत्र किसी अन्य कार्यक्रम के अन्तर्गत था। इस विचार पर प्रतिवादी बैंक द्वारा का परिवादी का ऋण मंजूरी आदेश निरस्त किया जाना तथा बकायेराशि का बकायेदार माना जाना उचित ठहराया गया।
बैंक में जहाँ गैर भारतीय निवासी द्वारा निश्चित समय के लिए धनराशि को जमा किया गया तो वहाँ आरबीआई एवं फेरा (FERA) में जमा खातों की शर्तों के अनुसार तीन वर्षों की अवधि के लिए एक सीडी खोलने हेतु ड्राफ्ट को डालर में भेजा गया।
जब उसे प्रचलित दर से रुपये में बदलने को महत्व दिया गया, तो प्रतिवादी ने तेजी मंदी का लाभ प्राप्त करने विदेशी मुद्रा खाते में परिवर्तित करने का प्रयास किया लेकिन उसे हानि हुई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि वैकिंग सेवा में कोई अपूर्णता नहीं तथा उसे चोरी से प्रश्नगत मुद्रा को रखने हेतु उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।
यह एक ऐसा मामला है जिसमें बैंक द्वारा संव्यवहार में उपेक्षा किये जाने के कारण परिवादी के खाते से 10,000 रुपये की एक धनराशि को एक दूसरे आदमी द्वारा निकाल लिया गया। बैंक, बाद के विचारण के दौरान चेक, पर हस्ताक्षर को सत्यापित करने में असफल रहा।
हस्तलेख विशेषज्ञ ने भी विचारण न्यायालय के समक्ष यह अभिसाक्ष्य प्रस्तुत किया कि प्रश्नगत चेक पर किया गया हस्ताक्षर, परिवादी के हस्ताक्षर के प्रतिरूप या नमूना के समतुल्य था। यद्यपि खुली आँखों से यह प्रदर्शित किया जा सकता था कि प्रतिरूप के हस्ताक्षर एवं चेक, पर किये गये हस्ताक्षर के मध्य अन्तर था।
इस प्रकार हस्ताक्षर का अभिज्ञापन करने में बैंक की ऐसी उपेक्षा को सेवा की अपर्याप्तता का स्वरूप प्रदान किया जा सकता है तथा वादी के परिवाद को स्वीकृति प्रदान करने के उस आदेश की पुष्टि किया जाना चाहिए जिसे कि जिला न्यायालय द्वारा पारित किया गया।
एक मामले में परिवादी एक पेन्शन भोगी की हैसियत रखता था। उसने इस आधार पर परिवाद संस्थित किया कि वितरण की नयी प्रणाली को लागू किये जाने से उसे परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। कारण कि उसे पेन्शन को प्राप्त करने हेतु पंक्ति में खड़ा होकर अवसर की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी जिससे कि उसका मूल्यवान समय बर्बाद हो जाता था।
जबकि धन का वितरण करने की प्रणाली का प्रमुख उद्देश्य बैंकिंग संचालन को सुचारू रूप से लागू करना होता है। इसका ग्राहक के क्षेत्राधिकार से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। इस परिवाद को इस निर्देश के साथ अपास्त कर दिया गया कि परिवादी को 10,000 रुपये का संदाय बैंक को रखना चाहिए।
एक अन्य मामले में बैंक कर्मचारी ने परिवादी के साथ जालसाजी की थी। कर्मचारी ने परिवादी से फिक्स डिपाजिट की राशि प्राप्त की थी लेकिन बैंक ने जमा नहीं की थी। बैंक के विरुद्ध सेवा में कमी के आधार पर परिवाद प्रस्तुत की गयी थी। यह मत व्यक्त किया गया कि चूंकि बैंक के दैनिक अनुक्रम में संव्यवहार नहीं हुआ था। इसलिए चेक को कथित एफडीआर की राशि भुगतान करने के लिए दायी नहीं माना जा सकता अतएव बैंक की सेवा में कमी नहीं मानी गयी।
बैंक द्वारा दृष्टि ओझल हो जाने के आधार पर कम ब्याज जमा किया गया था पश्चात् मे इस गलती को सही कर दिया गया लेकिन बैंक की इस गलती से परिवादी को असुविधा होना पायी गयी। इसलिये उसे प्रतिकर स्वीकार किया गया।
संविदा की शर्तें कुछ क्यों न हो रिजर्व बैंक के दिशा निर्देश अभिभावी होंगे। बैंक ने भूलवश 5% के स्थान पर 13% ब्याज फिक्स डिपाजिट पर दर्शाया था। आडिट रिपोर्ट में इसे कम करके 5% किया गया परवादी ने सेवा में अभिनिर्धारित किया कि बैंक रिजर्व बैंक के द्वारा जारी निर्देशों से बाहर नहीं जा सकता यद्यपि बैंक ने भूलवश 13% ब्याज देना स्वीकार किया था।
बैंक का यह कार्य सेवा में कमी माना गया। परिवादी को बैंक के कृत्य से शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा होना मानी गयी। फलस्वरूप 50,000/- रुपये का प्रतिकर परिवेदी को स्वीकार किया गया। इसे 10% ब्याज के सात भुगतान करने हेतु निर्देशित किया गया।
ओवरड्राफ्ट लेखा:-
जहाँ परिवादी ने यह आरोप लगाया कि विपक्षी बैंक में उसके और ड्राफ्ट लेखा के अनुशीलन के बाद एक निश्चित राशि उसकी शाख लेखा में निकलती थी और उस राशि को वह वापस पाने का अधिकारी है उसे लोटा दिया जाय। विपक्षी बैंक का पर आरोप था कि परिवादी दोषी था तथा धारा 420, 467 और 468 भारतीय दण्ड संहिता है अन्तर्गत अभियोजन भी चल चुका था।
यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह बहुत पेचीदा वाट है और इसमें पर्याप्त मात्रा में दस्तावेजों एवं मौखिक साध्य की आवश्यकता है जो कि उचित ढंग से तथा पर्याप्त रूप से सिविल न्यायालय द्वारा ही संभव है इसलिए, उपभोक्ता मंच इस तरह के परिवादों तथा मतभेदों के अभिनिर्धारण का उचित मंच नहीं है जिसकी परिणति परिवाद के निरस्ती में हुई।
चेकों का अनादर जहाँ पर परिवादी ने जी० एस० एफ० सी० को भुगतान योग किम्त में कर्ज भुगतान के बदले में बैंक आफ बड़ीदा को एक चेक जारी किया लेकिन बैंक की भूल से उस चेक का अनादर हो गया तथा जी० एस० एफ० सी० को भुगतान न हो सका।
परिवादी ने यह आरोप लगाया था कि चेक की राशि को पूरा करने के लिए पर्याप्त बकाया राशि होने के बावजूद भी चेक का निरादर करना बैंक की लापरवाही का परिचायक हैं। हर तरफ से सेवा में कमी और परिवादी को इससे हुई क्षति के लिए बैंक उत्तरदायी है।
प्रतिवादी को यह निर्देश दिया गया कि 8000/ रुपये की धनराशि पर जिस तारीख से चेक निरादर हुआ से लेकर उस तारीच तक जिस तारीख पर वह राशि जमा हुई तक 18% मासिक व्याज का भुगतान करें तथा 500/ अतिरिक्त राशि परिवादी की परेशानी और कष्ट के लिए भी अदा करे।
चिकित्सा सेवा में अपूर्णता के बारे परिवाद:-
डॉ सी सारंग पानी बनाम जी भगत, (1995) 1 सी एल सी इस मामले में यह घटित हुआ कि परिवादी के बायें हाथ के अग्रभाग में गिरने के कारण चोटें आयी। विरोधी पक्षकार ने उसकी चोटों को एक्स-रे की सहायता से परीक्षण करने के पश्चात् मरहम पट्टी किया था। विरोधी पक्षकार डाक्टर ने उसकी चिकित्सा सेवा में असावधानी पूर्वक कार्य किया जिसके परिणामस्वरूप परिवादी को अत्यधिक कष्ट झेलना पड़ा।
चूंकि परिवादी को शल्य चिकित्सा कराने हेतु एक दूसरे नर्सिंग होम में उपचार कराना पड़ा, इसलिए उसे आर्थिक क्षति हुई। अतः उसने विरोधी पक्षकार के विरुद्ध क्षतिपूर्ति करने हेतु दावा किया। यद्यपि इस मामले में जिला उपभोक्ता न्यायालय के समक्ष विचारणार्थं कुछ निश्चित दस्तावेजों को प्रस्तुत नहीं किया जा सका, फिर भी ऐसे दस्तावेज के अभाव में न्यायालय द्वारा मामले को निर्मित किया गया। अतः जहाँ किसी भी मामले में आवश्यक दस्तावेज की अनुपस्थिति में न्यायालय द्वारा कोई निर्णय दिया जाता है, वहाँ संदूत नहीं किया जा सकता बल्कि ऐसे मामले को पुनः नये सिरे से निस्तारित किया जाना चाहिए।
इससे मामले में यह तथ्य विचारणीय मुद्दा बना कि परिवादी एक नर्सिंग होम में भर्ती हुआ जहाँ कि एक डाक्टर द्वारा उसकी शल्य चिकित्सा की गयी। शल्य चिकित्सा किये जाने के बाद उसके पेट में तीक्ष्ण पीड़ा हुई थी। जिसके परिणाम स्वरूप वह उपचार से असंतुष्ट होकर कथित नर्सिंग होम को छोड़कर एक दूसरे अस्पताल में प्रवेश लिया।
इस अस्पताल में उस कीमत की एक दूसरी शल्य चिकित्सा की गयी। परिवादी ने इस आधार पर होम विरुद्ध एक परिवाद संस्थित किया कि उसके द्वारा असावधानी पूर्वक शल्य चिकित्सा किये जाने के कारण उसके पेट में स्पन्नछत गया था।
परिवादी ने अपने मामले के समर्थन में मौखिक एवं दस्तावेजी माध्य प्रस्तुत किये। लेकिन वह सिद्ध करने में विफल रही कि शल्य चिकित्सक ने समुचित सावधानी के साथ उपचार नहीं किया। जिसके फलस्वरूप परिवाद को अपास्त कर दिया गया।