सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 73 अस्तियों के वितरण से संबंधित प्रावधानों को इंगित करती है। किसी भी कुर्क की गई संपत्ति को विक्रय करने पर निर्णीत ऋणी के डिक्री किए गए धन को ही दिया जाता है, सारी संपत्ति जितना मूल्य अदा नहीं किया जाता है। यह धारा अस्तियों के वितरण को नियमित करती है। इस आलेख के अंतर्गत इस धारा पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
धारा 73 आस्तियों के वितरण का उपबन्ध करती है। आस्तियों के वितरण का प्रश्न कहाँ उठता है?
'अ' ने 'ब' के विरुद्ध 15000 रुपये की एक डिक्री प्राप्त कि है। 'अ' ने अपनी डिक्री के निष्पादन के लिये प्रार्थना पत्र दिया। निष्पादन में 'ब' की सम्पत्ति को कुर्क कराकर 21000 रुपये में बेचवा दिया। इस 21000 रुपए विक्रय आगम में 'अ' को 15000 रुपया पाना है। 'अ' को उसकी डिक्री की रकम 15000 रुपए दे दी गई है। शेष 6000 रुपया निर्णीत ऋणी 'ब' का है। यहाँ 21000 रुपये विक्रय आगम के वितरण का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। इस 21000 रुपये विक्रय आगम के वितरण का प्रश्न उठ जायेगा जहां इस रकम के दावेदार कई हैं।
'अ' के पास 'ब' के विरुद्ध 15000 रुपये की डिक्री है, 'स' के पास उसी 'ब' के विरुद्ध 10,000 रुपये की डिक्री है और इसी प्रकार 'द' के पास भी 'ब' के विरुद्ध 5000 रुपये की डिक्री है।'अ' 'स' एवं 'द' तीनों 21000 रुपये में अपना दावा पेश करते हैं। यहाँ यह समस्या उठती है कि क्या 21000 रुपये का विभाजन या वितरण 'अ' 'स' एवं 'द' में हो सकेगा, या 'अ''स' एवं 'द' अलग-अलग निभादन की कार्यवाही करे और सम्पत्ति की कुर्की एवं बेची करायें धारा 73 इसी समस्या का निराकरण या समाधान प्रस्तुत करती है।
धारा 73 का उद्देश्य उन धन डिक्रियों (धन के संदाय के लिये डिक्री) के निष्पादन हेतु एक सस्ती और शीघ्र प्राप्त उपाय का उपबन्ध करना है जो डिक्रियाँ एक ही निर्णीत-ऋणी के विरुद्ध दी गई हैं। इस प्रकार अलग-अलग कार्यवाही किए बिना, प्रतिद्वन्दी डिक्रीधारियों के दावों का समायोजन कर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में धारा 73 के अधीन एक और निष्पादन की कार्यवाहियों की बहुलता को रोका जाता है और दूसरी ओर सभी डिक्रीधारियों को एक समान स्तर पर रख कर और आस्तियों को आनुपातिक रूप से वितरित कर सम्पत्ति के साम्पिक (equitable) प्रशासन को सुनिश्चित किया जाता है। ऐसा विचार मुख्यत: न्यायाधीश स्ट्रेची (Strachey C. J.) ने विठ्ठलदास बनाम नन्द किशोर के वाद में व्यक्त किया था।
अतः यह स्पष्ट है कि धारा 73 आस्तियों का वितरण करके प्रतिद्वन्द्वी डिक्रीधारियों के दावों का समायोजन करती है। इसी समस्या से जुड़ा प्रश्न यह है कि अगर विभिन्न प्रतिद्वन्दी डिक्रीधारियों में आस्तियों का विभाजन किया जाय तो किस अनुपात में उपरोक्त उदाहरण में अगर 21000 रुपये का वितरण, 'अ' "स" एवं "द' में करना है तो किस अनुपात में वितरण किया जायेगा? दूसरे शब्दों में, 'अ' 'स' 'द' का अनुपात कैसे तैयार किया जायेगा। धारा 73 के उपबन्ध के अनुसार 'अ', 'स' एवं 'द' की डिक्री की धनराशि ही अनुपात का निर्धारण करेगी। यथा, 21000 रुपये के वितरण का अनुपात 3:2:1 होगा 21000 रुपये में 'अ' को 10500, 'स' को 7000 रुपये और "द' को 3500 रुपये प्राप्त होंगे।
पर यह भी हो सकता है कि डिक्री की धनराशियों में से कुछ का भुगतान हो चुका हो। जैसे 'ब'ने'अ' को 5000/ रुपया अदा कर दिया है या भुगतान कर दिया है। यहाँ पर अनुपात का निर्धारण कैसे होगा? नियम यह है कि डिक्री की धनराशि का अतुष्ट हिस्सा अनुपात तय करेगा न कि डिक्री की धनराशि।
अतः यहाँ 'अ', 'स' एवं '' के बीच 21000 रुपये के वितरण का अनुपात 10:10:5 अर्थात् 2:2:1 होगा। इस तरह 'अ' का 8400 'स' को 8400 तथा 'द' को 4200 रुपये प्राप्त होंगे। अतः हम यह कह सकते हैं कि अनुपात का निर्धारण हर डिक्री में देय धन के अनुसार होगा न कि डिक्री के धन के अनुसार प्रत्येक डिक्री में कितना देय धन है उस दिन देखा जायेगा जिस दिन धन का वितरण किया जायेगा।
यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि प्रत्येक उस धन डिक्रीधारी (money-decrce holder) में आस्तियों का वितरण नहीं किया जायेगा जो उसी निर्णीत-ऋणी के विरूद्ध अपना दावा पेश करता है। आनुपातिक वितरण के अधिकारों वे ही डिक्रीधारी होंगे जो धारा 73 में उपबन्धित शर्तों को पूरा करते हो।
आनुपातिक वितरण की शर्तें – किसी भी डिक्रीधारी के आस्तियों के वितरण में भागीदार बनने के लिये, निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक है-
(1) आनुपातिक वितरण की माँग करने वाले डिक्रीधारी को अपने डिक्री के निष्पादन के लिये एक उपयुक्त न्यायालय में आवेदन करना चाहिये।
(2) ऐस आवेदन न्यायालय द्वारा आस्तियों की प्राप्ति से पहले दिया जाना चाहिये,
(3) ये आस्तियाँ जिनके आनुपातिक विभाजन की माँग की जा रही है वे न्यायालय द्वारा अवश्य धारित होनी चाहिये;
(4) कुर्की कराने वाला ऋणदाता (creditors) और वे डिक्रीधारी जो आस्तियों के आनुपातिक वितरण को मांग कर रहे हैं, उन्हें धन डिक्री धारक या धन के संदाय की डिक्री का धारक होना आवश्यक है, और
(5) ऐसी सभी डिक्रियाँ उसी निर्णीत ऋणों के विरुद्ध होनी चाहिये।
जहाँ एक प्रतिवादी कम्पनी के विरुद्ध परिसमापन का आदेश पारित नहीं है, वह कम्पनी अन्य प्रतिवादियों की भाँति है, उसके बारे में कतिपय धन की वसूली बैंक और वित्तीय संस्थाओं को ऋण को वसूली अधिनियम 1993 के अन्तर्गत की गई है और ऐसे धन के वितरण में पूर्विकता (priority) का प्रश्न बैंक और वित्तीय संस्थान एक तरफ और अन्य लेनदार (creditors) दूसरी तरफ, के बीच उठता है, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद बैंक बनाम केनरा बैंक में यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी स्थिति में पूर्विकता का निर्धारण सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 73 के सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर किया जायेगा।
आस्तियाँ (Assets)
धारा 73 को विवेचना में बार-बार " आस्तियों के वितरण" पद का प्रयोग किया गया है। निर्णीत ऋणी को सम्पत्ति बेचने के पश्चात् जो प्राप्त है उसे विक्रय आगम (sale proceeds) कहते हैं। धारा विक्रय-आगम के वितरण की बात नहीं करती। अतः यह स्पष्ट है कि विक्रय आगम और आस्तियाँ दो भित्र चोजें हैं। आस्ति शब्द का अर्थ विस्तृत है और उसके अन्तर्गत विक्रय-आगम भी सम्मिलित है।
आस्ति के अन्तर्गत निम्नलिखित सम्मिलित माने जाते हैं-
(1) डिक्री के निष्पादन में डिक्री से प्राप्त विक्रय आगम
(2) ऋण जिसे आदेश 21 नियम 46 के अधीन कुर्क किया गया है;
(3) कुर्क की गई सम्पत्ति का भाटक (rent) जिसकी वसूली रिसीवर करता है;
(4) वह धनराशि जो किसी सार्वजनिक अधिकारी की अभिरक्षा में है पर जिसे आदेश 21 नियम 51 के जो कुर्क किया गया है;
(5) निर्णीत ऋणी द्वारा धारित डिक्री के निष्पादन से वसूल धन राशि
(6) आदेश 21 नियम 69 के अधीन नीलाम करने वाले अधिकारों को नीलामी रोकने के लिये प्रदान की गई धनराशि (7) आदेश 21 नियम 83 के अन्तर्गत निर्णीत ऋणी द्वारा प्राइवेट अन्तरण से प्राप्त धनराशि; को धनराशि जो सरकार को जप्त नहीं की गई है, आदेश 21, नियम 89 के अन्तर्गत जमा धनराशि पर इस बारे में न्यायालयों में मतभेद है। पर अधिकांश निर्णय यह मानते हैं कि यह धनराशि आनुपाकि विभाजन के लिये उपलब्ध है।
बंधक के तहत (अधीन) बिक्री (परन्तुक-क)-
इस परन्तुक के उपबन्ध के अनुसार कोई भी बंधकदार आनुपातिक वितरण का अधिकारी नहीं है। इस खण्ड के अनुसार कोई भी बन्धकदार, विहंगमदार (mortgagor encumbrancer) किसी अधिशेष (balance) में से अंश पाने का हकदार नहीं होगा अगर बन्धक या भार के अधीन बेची गई है।
बन्धक रहित विक्रय (परन्तुक-ख) - जहाँ किसी सम्पत्ति पर बन्धक या भार है वहाँ इस खण्ड के माध्यम से एक विकल्प प्रस्तुत किया गया है। वह यह है कि ऐसी सम्पत्ति बन्धकदार या विल्लंगमदार की अनुमति से बन्धक भार रहित बेची जा सकती है, परन्तु अगर सम्पत्ति बन्धक या भार सहित बेची जायेगी तो विक्रय-आगम में बन्धकदार या विहंगमदार का वही हित होगा जो उसका विक्रांत सम्पत्ति में था।