सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 1 अत्यंत विस्तृत है और इस आदेश के सभी नियम भी अधिक विस्तृत है। यह आदेश किसी भी वाद के पक्षकारों के संबंध में व्यवस्थित प्रावधान करता है। वाद के पक्षकारों के विषय में यह आदेश के सभी लगभग सारे प्रावधान पूर्ण कर देते हैं। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 1 के नियम 9 पर विस्तृत टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है जिससे पाठकगण आदेश 1 के नियम 9 को संपूर्ण रूप से समझ पाए।
नियम 9 के संहिता में दिए शब्द इस प्रकार हैं
नियम 9-
कुसंयोजन और असंयोजन
कोई भी वाद पक्षकारों के कुसंयोजन या असंयोजन के कारण विफल नहीं होगा और न्यायालय हर वाद में विवादग्रस्त विषय का निपटारा वहां तक कर सकेगा जहां तक उन पक्षकारों के, जो उसके वस्तुतः समक्ष है, अधिकारों और हितों का सम्बन्ध है:
[परन्तु इस नियम की कोई बात किसी आवश्यक पक्षकार के असंयोजन को लागू नहीं होगी।
कुसंयोजन और असंयोजन का अर्थ व स्वरूप -
इस संहिता में "कुसंयोजन" और "असंयोजन" शब्दों का प्रयोग (i) पक्षकारों (ii) वादहेतुकों और (iii) दोनों अर्थात् पक्षकारों और वादहेतुकों के सम्बन्ध में किया गया है।
आदेश में नियम 1 व 3 में पक्षकारों अर्थात् वादियों और प्रतिवादियों के संयोजन के नियम बताये हैं। पक्षकार दो प्रकार के होते हैं - (1) आवश्यक और (2) उचित। इनका संयोजन नहीं करने से अर्थात् नियम 1 व 3 का पालन न करने पर "असंयोजन" उत्पन्न होता है। नियम 10 (2) ऐसे असंयोजन पर विचार करता है। परन्तु पक्षकारों के गलत संयोजन को "कुसंयोजन" कहते हैं।
उपरोक्त नियम 9 को नियम 13 के साथ पढ़ना चाहिये, जो इस प्रकार है।
“नियम-13. असंयोजन या कुसंयोजन के बारे में आक्षेप-पक्षकारों के असंयोजन या कुसंयोजन के आधार पर सभी आक्षेप यथासंभव शीघ्रतम अवसर पर किए जाएंगे और ऐसे सभी मामलों में जिनमें विवाद्यक स्थिर किए जाते हैं, ऐसे स्थिरीकरण के समय या उससे पहले किए जाएंगे, जब तक कि आक्षेप का आधार पीछे पैदा न और यदि आक्षेप ऐसे नहीं किया जाता है तो वह आक्षेप अधित्यक्त कर दिया गया समझा जाएगा।" हुआ हो।
पक्षकारों का असंयोजन और उसका प्रभाव-
आदेश 1 के नियम 10 (2) में दो प्रकार के असंयोजन का उल्लेख है- (1) उस व्यक्ति का असंयोजन, जिसे पक्षकार बनाया जाना आवश्यक था अर्थात् आवश्यक पक्षकार का असंयोजन और (2) उस व्यक्ति का असंयोजन जिसे केवल सुविधा या सुगमता की दृष्टि से पक्षकार बनाया जाना चाहिये था।
अर्थात् उचित पक्षकार का असंयोजन। यदि किसी पक्षकार की अनुपस्थिति से दी जाने वाली प्रभावशील नहीं हो सकती हो, तो ऐसे वाद को असंयोजन के कारण से खारिज किया जा सकता है। ऐस व्यक्ति जिसके विरुद्ध आक्षेप लगाये गये हैं के अवश्य पक्षकार होने से उसके असंयोजन पर उस व्यक्ति के विरुद्ध कोई अनुतोष नहीं दिया जा सकता। सम्पत्ति के एक अवयस्क सहस्वामी के संविदा को विनिर्दिष्ट अनुपालना हेतु प्रस्तुत वाद में पक्षकार नहीं बनाया जाने से वादी द्वारा माँगा गया अनुतोष प्राप्त करने पर अधिकारी नहीं है। पौत्र के आवश्यक व उचित पक्षकार होने के उपरांत उसे पक्षकार बनाये बिना दान को चुनौती देने वाले प्रकरण में पौत्र के विरुद्ध पारित आदेश बिना अधिकारिता का है।
उपरोक्त नियम 9 में नया परन्तुक 1976 में जोड़ा गया है, जिसके अनुसार नियम 9 के उपबन्ध किसी आवश्यक पक्षकार के असंयोजन पर लागू नहीं होंगे और न धारा 99 के अधीन आवश्यक पक्षकार के असंयोजन को लिए समझा जा सकेगा। अतः ऐसा असंयोजन एक वाद के लिए घातक होगा। कुसंयोजन के बारे में आक्षेप तुरन्त जाना चाहिए, अन्यथा उपरोक्त नियम 13 के अधीन ऐसा आक्षेप छोड़ दिया गया समझा जावेगा।
आवश्यक पक्षकारों का लोप-
कुल देवता की सेवायतो संस्थापक के वंशजों के साथ ही बनी रहती है और प्रतिवादी को संस्थापक का पौत्र होने से सेवायतों में से एक के रूप में माना गया है। इस प्रकार वे सभी सेवायत विवादग्रस्त कमरों में रहने के हकदार थे। अतः सभी सेवायत आवश्यक पक्षकार थे, किन्तु उनमें से सभी को शामिल नहीं किया गया है। न्यासियों को स्वयं ही देवोत्तर सम्पत्ति के सम्बन्ध में वाद चलाने का कोई भी अधिकार नहीं है, जिसका विधिक हक प्रतिमा में होता है, न कि न्यासियों में क्योंकि देवता के सभी सेवायतों को पक्षकार नहीं बनाया गया है, इसलिए वाद उचित रूप से गठित नहीं किया गया था और वह केवल इसी आधार पर खारिज किये जाने लायक है।
एक बेदखली के वाद में यह निर्णय हुआ कि असंयोजन का तर्क यथासम्भव शीघ्रतम अवसर पर उठाया जाना चाहिए। वादी ने अपनी सेवा समाप्ति के विरुद्ध वाद में यह शिकायत कि- उसके कनिष्ठ व्यक्तियों को सेवा में रखकर अनु. 14 का हनन किया गया है। परन्तु उसने किसी भी कनिष्ठ कर्मचारी को प्रतिवादी नहीं बनाया। अतः वाद चलने योग्य नहीं माना गया एक मन्दिर की सम्पत्ति को वसूली के लिए किये गये वाद में, सार्वजनिक न्यास बोर्ड द्वारा अनुमति प्राप्त व्यक्ति प्रतिवादी था।
अतः बोर्ड एक आवश्यक पक्षकार था, जिसकी अनुपस्थिति में वादीगण कोई अनुतोष नहीं पा सकते थे। एक रेलवे कर्मचारी ने भारतसंघ को पक्षकार नहीं बनाया, जो आवश्यक पक्षकार था उसकी रिट याचिका खारिज कर दी गई। कार्यालय के पदनाम के विरुद्ध कोई धन सम्बन्धी वाद नहीं लाया जा सकता। ऐसा वाद चलने योग्य नहीं माना गया। ऐसा वाद उन अधिकारियों के विरुद्ध उनके व्यक्तिगत नाम से लाया जाना चाहिए। जो व्यक्ति किसी कार्यवाही में पक्षकार नहीं है, उसके विरुद्ध केवल आत्यन्तिक विशेष परिस्थितियों को छोड़कर, कोई आदेश पारित नहीं किया जा सकता।
आवश्यक पक्षकार के असंयोजन के कारण बाद खारिज किया गया-
परिसीमा की अवधि बाधक नहीं मानी गई - सुखाधिकार का एक वाद दो प्रत्यर्थियों के विरुद्ध प्रस्तुत किया गया, जो विक्रय विलेख को प्रमाणित प्रति सहित था, जिसमें प्रस्तगत भूमि केवल प्रत्यर्थी सं. 1 व 2 के पक्ष में बेची गई थी। प्रत्यर्थी प्रतिवादी ने सभी क्रेताओं को पक्षकार नहीं बनाने की दलील दी। जब काउन्सेल ने मूल विक्रय विलेख पढ़कर सुनाया, जिसमें 'म' भी प्रत्यर्थी सं. 1 व 2 के साथ क्रेता थी। दूसरे दिन ही अपीलार्थी ने 'म' को मुकदमे में सम्मिलित करने के लिए आवेदन प्रस्तुत किया और वादपत्र में संशोधन के लिए प्रार्थना की।
आवेदन में वाद को परिसीमा अधिनियम के खण्ड 97 में विहित परिसीमा के रोक से बचाने के लिए याचना की गई। वाद और आवेदन पत्र खारिज कर दिये गये। अपीलों में असफल रहने पर उच्चतम न्यायालय में विशेष इजाजत लेकर की गई अपील को मंजूर करते हुए अभिनिर्धारित किया गया कि "यह संदेह करने का कोई कारण नहीं था कि प्रमाणित प्रति में कोई त्रुटि रह गई है।
अतः उस मुकदमे में प्रतिवादी के रूप में 'म' को शामिल किये जाने का लोप गलती से हुआ। ऐसी गलती सद्भाविक रूप से हुई है, तो परिसीमा अधिनियम की धारा 21 (1) का परन्तुक लागू होगा। अपीलार्थी ने पता लगाने के दूसरे दिन सम्यक् तत्परता के साथ आवेदन फाइल कर दिया। यदि 29 जनवरी 1978 को 'म' के विरुद्ध यह वाद फाइल कर दिया गया होता तो वह समय के भीतर किया गया वाद होता और उसमें आवश्यक पक्षकार के असंयोजन की त्रुटि न रहती। इस प्रकार अपीलार्थी ने परिसीमा बाधा पार कर ली थी।
चूँकि 'म' आवश्यक पक्षकार है, इसलिए सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 1 के नियम 10 के उपनियम (2) के अधीन मुकदमे में उसे इसलिए शामिल करना होगा जिससे कि न्यायालय वाद में अन्तर्गत सभी प्रश्नों के सम्बन्ध में प्रभावपूर्ण ढंग से और पूर्ण रूप से न्याय निर्णयन और निपटारा कर सके। इस प्रकार वाद हेतुक की तारीख के सम्बन्ध में वादपत्र में संशोधन करने की आवश्यकता नहीं रह गई है। अपील स्वीकार की गई।
राज्य सरकार के विरुद्ध कोई अनुतोष मांगने की दशा में राज्य सरकार को पक्षकार बनाया जाना आवश्यक है। इसके अभाव में वाद संधारण योग्य नहीं है। ऐसी डिक्री अवैध है।
डिक्री के निष्पादन में पिटीशनर, निर्णीत ऋणीगण व जिलाधीश धार को पक्षकार नहीं बनाया गया जो कि आवश्यक पक्षकार थे। निष्पादन कार्यवाही आवश्यक पक्षकार के असंयोजन के आधार पर खारिज कर दी गई।
अवयस्क पर डिक्री आबद्धकर नहीं (आदेश 1, नियम 9) डिक्री का निष्पादन बन्धक विलेख के आधार पर अभिप्राप्त डिक्री के निष्पादन के लिए अपीलार्थी द्वारा आवेदन किया गया। निष्पादन का प्रत्यर्थी द्वारा इस आधार पर विरोध किया गया कि जब वह वाद जिसमें डिक्री अभिप्राप्त की गई थी संस्थित किया गया था उस समय वह वयस्क था किन्तु उसे अवयस्क के रूप में पक्षकार बनाया गया था।
उक्त वाद के प्रतिवादियों में से किसी ने भी प्रस्तुत प्रत्यर्थी की ओर से प्रतिनिधि की हैसियत में कार्य नहीं किया था। ऐसी डिक्री ऐसे व्यक्ति पर जो कि वाद की तारीख को वयस्क था किन्तु अवयस्क दिखाया गया था, आबद्धकर नहीं होगा।
अपील में आवश्यक पक्षकार यह आवश्यक नहीं है कि जो व्यक्ति किसी वाद में आवश्यक पक्षकार - हो वह अपील में भी आवश्यक पक्षकार हो दूसरे प्रतिवादी सं. 2 ने वाद का कभी विरोध नहीं किया और वादी पूरा बंधक धन देकर केवल वह भाग छुड़ाना चाहता है, जो प्रतिवादी सं. के पास है। अतः अकेले उसके विरुद्ध मामला चल सकता है। '
पक्षकारों का असंयोजन
(i) एक भागीदारी फर्म के विरुद्ध बैंक ने वसूली के लिए वाद किया। गारण्टी दाता ने ऋण के वापसी भुगतान के लिए व्यक्तिगत गारण्टी दी, परन्तु इसके लिए कोई दस्तावेज नहीं बनाया गया। ऐसी स्थिति में गारण्टीदाता उस वाद में न तो आवश्यक पक्षकार है और न उचित पक्षकार अतः वाद गारण्टीदाता के असंयोजन के लिए अशुभ (अवैध) नहीं है।"
(ii) असंयोजन पर अपील में डिक्री अपास्त नहीं की जायेगी, जब कोई अन्याय नहीं एक भागीदारी फर्म से निवृत्त होने वाले भागीदार ने एक पक्षकार से संबंधित दायित्व को अपने ऊपर लिया। ऐसे निवृत हुए भागीदार के विरुद्ध उस पक्षकार ने वाद संस्थित किया, जिसमें उस फर्म को पक्षकार नहीं बनाया। ऐसे मामले में पक्षकारों का असंयोजन मान भी लें, तो भी अपीली-न्यायालय उस डिक्री को अपास्त नहीं करेगा जब कोई अन्याय कारित नहीं हुआ हो।
(iii) आवश्यक पक्षकारों का असंयोजन एक अतिक्रमी को बेदखल करने के लिए कुछ सह-स्वामियों द्वारा एक वाद संस्थित किया गया, जो उनके एकमात्र स्वत्व की घोषणा के लिए नहीं था। ऐसा वाद आवश्यक पक्षकारों के असंयोजन के कारण बुरा (अवैध) नहीं था।
(iv) आवश्यक पक्षकार के असंयोजन पर अर्जी खारिज निर्वाचन अर्जी में भ्रष्टाचरण का - अभिकथन अभ्यर्थिता वापस लेने वाले व्यक्ति के विरुद्ध अभिकथन किये गये, पर उसे "पक्षकार नहीं बनाया गया, जो धारा 82 (ख) लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के अधीन आवश्यक पक्षकार था। अतः अर्जी की धारा 86 (1) के अधीन खारिज करना उचित माना गया। न्यायालय असंयोजन के परिणामों से बचने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता के आर्डर 6, नियम 17 या आर्डर 1, नियम 10 का प्रयोग नहीं कर सकता। यदि प्रार्थी को प्रार्थित लोप करने की (अर्जी में संशोधन द्वारा) अनुमति दे दी जाए, तो प्रत्येक निर्वाचन अर्जी इस प्रकार संशोधन द्वारा बचाई जा सकती है और धारा 86 (1) के उपबन्ध और विधि की नीति निष्फल हो जाएगी। अपील खारिज की गई।
(v) बंधकवाद में आवश्यक पक्षकार असंयोजन का प्रभाव आदेश नियम 9 में जो परन्तुक जोड़ा - 1 गया, वह दि. 1-2-1977 से लागू होता है। अतः प्रतिवादी के सगे भाई उदयलाल को पक्षकार नहीं बनाया गया, वह एक आवश्यक पक्षकार नहीं था। बंधक के मोचन के वाद में, कई बंधकदारों में से कोई एक सम्पूर्ण बंधक का मोचन करवा सकता है, पर उसे दूसरे बंधकदारों के अधिकारों को सुरक्षित रखना होगा। अतः जब प्रभावपूर्ण डिक्री पारित की जा सकती हो और न्यायालय के समक्ष नहीं होने वाले पक्षकार के अधिकारों को सुरक्षित रखा जा सकता हो, तो ऐसे असंयोजन के कारण) वादीगण को उचित, अनुतोष से वंचित नहीं किया जा सकता।
पक्षकारों का कुसंयोजन (Misjoinder) –
पक्षकारों का कुसंयोजन दो प्रकार का होता है, जिसके बारे में सावधानी रखना आवश्यक है-
(1) वादियों का कुसंयोजन यदि दो या अधिक व्यक्तियों को किसी एक वाद में वादियों के रूप में संयोजित किया जाता है और यह मामला यदि आदेश 1 के नियम से आवृत्त नहीं होता है, तो इसे "वादियों का कुसंयोजन कहते है।
इसके बारे में आपत्ति यथाशीघ्र तुरन्त उठानी चाहिये, नहीं तो यह आदेश के नियम 13 के अधीन छोड़ दी गई समझी जावेगी। जहाँ ऐसी आपत्ति समय पर उठायी जाती है, तो न्यायालय इसे मुस्थापित मान लेता है, तो इस कारण से उस वाद को खारिज नहीं किया जा सकेगा, परन्तु इसके लिये वादपत्र को आदेश 6 के नियम 17 के अधीन संशोधित किया जा सकेगा और उन लोगों के नाम आदेश के नियम 10 (2) के अधीन न्यायालय द्वारा काट दिये जायेंगे, जिनको अनुचित रूप से वादी बनाया गया है। इसके बाद वाद की कार्यवाही आगे बढ़ेगी। इस प्रकार वादियों के कुसंयोजन का आक्षेप (ऐतराज) किसी वाद के लिये पातक नहीं है।
(2) प्रतिवादियों का कुसंयोजन - यदि दो या अधिक व्यक्तियों को किसी वाद में प्रतिवादियों के रूप में संयोजित किया जाता है और वह मामला यदि आदेश के नियम 3 से आवृत्त नहीं होता है, तो इसे "प्रतिवादियों का संयोजन" कहते है।
जैसा कि ऊपर वादियों के कुसंयोजन के बारे में बताया गया है, उसी प्रकार प्रतिवादियों के कुसंयोजन की आपत्ति आदेश के नियम 13 के अधीन तुरन्त उठायी जाना चाहिये, नहीं तो इसे छोड़ दिया गया मान लिया जायेगा। जहाँ ऐसी आपत्ति ठीक समय पर की जाती है और न्यायालय उसको सही मान लेता है, तो इसके लिये उस वाद को नियम 9 के अनुसार खारिज नहीं किया जा सकेगा, परन्तु वादपत्र में संशोधन कर ऐसे व्यक्तियों के नाम काट दिए जायेंगे जिनको गलत रूप से प्रतिवादी बनाया गया है। इसके बाद 1 नियम 9 के अनुसार कार्यवाही आगे चलेगी। इस प्रकार प्रतिवादियों का कुसंयोजन किसी वाद के लिए घातक नहीं है।