सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 63: आदेश 12 नियम 4 से 6 तक के प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 12 स्वीकृति से संबंधित है। आपराधिक विधि की तरह ही सिविल लॉ में भी स्वीकृति के प्रावधान दिए गए हैं जहां कोई पक्षकार किसी भी मामले को स्वीकार कर सकता है। स्वीकृति के इस आदेश में अलग अलग नियम हैं जो पूरी तरह से स्वीकृति के प्रावधानों को स्पष्ट कर देते हैं। इस आलेख के अंतर्गत इस आदेश के महत्वपूर्ण नियमों 4,5 एवं 6 पर विवेचना की जा रही है।
नियम-4 तथ्यों को स्वीकृत करने की सूचना-कोई भी पक्षकार किसी भी अन्य पक्षकार से सुनवाई के लिए नियत दिन से कम-से-कम नौ दिन पहले किसी भी समय लिखित सूचना द्वारा अपेक्षा कर सकेगा कि वह ऐसी सूचना में वर्णित किसी या किन्हीं विनिर्दिष्ट तथ्य या तथ्यों को केवल वाद के प्रयोजन के लिए स्वीकार कर ले और ऐसी सूचना की तामील के पश्चात् छह दिन के भीतर या ऐसे अतिरिक्त समय के भीतर जो न्यायालय द्वारा अनुज्ञात किया जाए उसको या उनको स्वीकृत करने से इंकार या उपेक्षा करने की दशा में तथ्य या तथ्यों के साबित करने का खर्चा जब तक कि न्यायालय अन्यथा निदेश न करे, इस प्रकार उपेक्षा करने या इंकार करने वाले पक्षकार द्वारा दिया जाएगा चाहे वाद का परिणाम कुछ भी क्यों न हो :
परन्तु ऐसी सूचना के अनुसरण में की गई किसी भी स्वीकृति के बारे में यह समझा जाएगा कि वह उस विशिष्ट वाद के प्रयोजनों के लिए ही की गई है और वह ऐसी स्वीकृति नहीं समझी जाएगी जिसका उस पक्षकार के विरुद्ध किसी अन्य अवसर पर या सूचना देने वाले पक्षकार से भिन्न किसी व्यक्ति के पक्ष में उपयोग किया जा सकता है।
नियम-5 स्वीकृतियों का प्ररूप-तथ्यों को स्वीकार करने के लिए सूचना परिशिष्ट-ग के प्ररूप संख्यांक 10 में और तथ्यों की स्वीकृतियां परिशिष्ट-ग के प्ररूप संख्यांक 11 में ऐसे फेरफार के साथ होगी जो परिस्थितियों से अपेक्षित हो।
नियम-6 स्वीकृतियों के आधार पर निर्णय (1) जहां अभिवचन में या अन्यथा, चाहे मौखिक रूप से या लिखित रूप में तथ्य की स्वीकृतियां की जा चुकी हैं वहां न्यायालय वाद के किसी प्रक्रम में या तो किसी पक्षकार के आवेदन पर या स्वप्रेरणा से और पक्षकारों के बीच किसी अन्य प्रश्न के अवधारण की प्रतीक्षा किए बिना ऐसी स्वीकृतियों को ध्यान में रखते हुए ऐसा आदेश या ऐसा निर्णय कर सकेगा जो वह ठीक समझे। (2) जब कभी उपनियम (1) के अधीन निर्णय सुनाया जाता है तब निर्णय के अनुसार डिक्री तैयार की जाएगी और डिक्री में वहीं तारीख दी जाएगी जिस तारीख को उक्त निर्णय सुनाया गया था।
नियम 1 में स्वयं पक्षकार मामले या मामले के भाग की स्वीकृति की सूचना देता है, और नियम 4 में दूसरे पक्षकार को स्वीकृति करने के लिए नोटिस दिया जाता है-
(1) कोई भी पक्षकार दूसरे (विपक्षी) पक्षकार को एक नोटिस (सूचना) किसी बताये गये विशेष तथ्यों को केवल वाद के प्रयोजन से स्वीकार करने के लिए परिशिष्ट "ग" के प्ररूप संख्यांक 10 में देगा।
(2) ऐसा नोटिस सुनवाई के लिए नियत दिनांक से कम-से-कम नौ दिन पहले दिया जाएगा।
(3) इसका उत्तर वह विपक्षी पक्षकार उपर्युक्त सूचना की तामील से छह दिन के भीतर या न्यायालय द्वारा दिये गये अतिरिक्त समय के भीतर देगा, जो परिशिष्ट 'ग' के प्ररूप संख्यांक 11 में होगा।
(4) यदि वह विपक्षी पक्षकार यदि उस/उन तथ्यों को स्वीकृत करने से इन्कार या उपेक्षा करेगा, तो उनको साबित करने का खर्चा उस पक्षकार को देना होगा। चाहे वाद का परिणाम कुछ भी हो। खर्च के चारे में न्यायालय छूट भी दे सकता है।
स्वीकृतियों का प्रयोग (परन्तुक)-
इस नियम में दिये गये नोटिस के उत्तर का प्रयोग केवल उस विशिष्ट चालू वाद के प्रयोजनों के लिए ही किया जा सकेगा, अन्य कार्यवाहियों में नहीं। यह पक्षकार को स्वीकृति करने पर सुरक्षा प्रदान की गयी है।
नियम 6 स्वीकृतियों के आधार पर निर्णय करने की शक्ति प्रदान करता है। इस नियम को पूरा बदल कर प्रतिस्थापित किया गया है, जिसमें मौखिक स्वीकृति को भी आवृत्त कर लिया गया है। आदेश 12 नियम 6 के अधीन संयोकुति परिसीमा अधिनियम की धारा 18 में प्रयुक अभिस्वीकृति से भिन्न है।
यह नियम बहुत विस्तार पूर्वक है इसके अंतर्गत-
(1) जहाँ अभिवचन में या उसके बाद, चाहे मौखिक हो या लिखित तथ्यों को स्वीकृतियाँ दो गई है।
(2) वहाँ न्यायालय वाद के किसी प्रक्रम पर, पक्षकारों के बीच किसी दूसरे प्रश्न की प्रतीक्षा किये बिना, (3) या तो (1) पक्षकार के आवेदन पर या (2) स्वयं की प्रेरणा से,
(4) ऐसे तथ्यों को स्वीकृतियों को ध्यान में रखते हुए उस पर न्यायालय उचित आदेश या निर्णय दे सकेगा और उस निर्णय के अनुसार डिक्री तैयार की जाएगी, जिसमें यहीं तारीख अंकित की जाएगी, जिसको यह निर्णय सुनाया गया था।
(5) आदेश 12 नियम 6 के अधीन न्यायालय को यह वैवेकिक शक्ति है कि स्वीकृति के आधार पर निर्णय पारित करे। स्वीकृति के आधार पर निर्णय अधिकार नहीं है।
इन नियमों पर न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत-
(1) स्वीकृति का स्वरूप आदेश 12 नियम 6 के अधीन न्यायालय कार्यवाही कर सके, स्वीकारोक्ति स्पष्ट, संदेह रहित, बिना शर्त और एक स्वर से होनी आवश्यक है। विधि का यह एक सुस्थापित सिद्धान्त है कि तथ्यों को स्वीकृति के आधार पर डिक्री पारित की जा सकती है, लेकिन तथ्यों को ऐसी स्वीकृति स्पष्ट, निश्चित व भ्रम रहित होनी चाहिए। वाद में वर्णित प्रकथन के विशिष्ट प्रत्याख्यान के अभाव में यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रकथन स्वीकृत है। ऐसी स्वीकृति समझी गई संस्वीकृति है जिसके प्रमाणीकरण की आवश्यकता नहीं है। समझी गई संस्वीकृति के आधार पर निर्णय पारित किया जा सकता है।
एक वाद में प्रतिवादी बैंक ने परिवचन दिया कि वह अन्य प्रतिवादी द्वारा जारी 6,80,000 रु. तक के चेक सम्मानित करेगा। वाद में वर्णित इस तथ्य को बैंक ने विशिष्ट रूप से नकारा नहीं बल्कि आपत्ति उठाई कि उक्त परिवचन पर बैंक को सोल नहीं है। प्रतिवादी बैंक को यह संस्वीकृति वाद डिक्री करने हेतु पर्याप्त है।
दिनांक 1-11-2006 के प्रस्तुत वाद में 25-1-2007 को लिखित कथन फाइल हुआ। दिनांक 9-2-07 को वादी ने आवेदन से प्रार्थना की कि आदेश 12 नियम 6 के अधीन संस्वीकृति के आधार पर डिक्री पारित की जावे। प्रतिवादी का कथन था कि करार फर्जी है हेरफेर लिये हैं। उक्त कथन के साथ करार होने की संस्वीकृति सुस्पष्ट व अप्रतिचाधित नहीं होने से कथित संस्वीकृति पर निर्णय पारित नहीं किया जा सकता।
(2) सतत स्वीकृति - एक बेदखली के वाद में, प्रतिवादी किरायेदार ने कुछ गवाहों को परीक्षा करना प्रस्तावित किया ताकि यह यह साचित कर सके कि यह पट्टा निर्माण के प्रयोजन से था। देरी को टालने के लिए वादी-मालिक ने एक मेमो फाइल किया जिसमें प्रतिवादी के कथन को इस शर्त पर स्वीकार कर लिया कि इस मामले में बहस किसी विशेष दिन को सुनी जानी चाहिए। बहस सुनने की यह शर्त पूरी नहीं हुई। अभिनिर्धारित कि-वादी की स्वीकारोक्ति (एडमिशन) बेकार हो गई और वह पर बिल्कुल बाधित नहीं थी। एक स्वीकारोक्ति जो सशर्त हो उसे सशर्त ही स्वीकार किया जा सकता है या फिर बिल्कुल नहीं।
(3) एक ही वाद में एक से अधिक डिक्रियाँ पारित करना विधिमान्य- संहिता का आदेश 23, नियम 3 किसी समझौते पर वाद की विषय-वस्तु के मांग की बाबत डिक्री के पारित किए जाने को स्पष्ट रूप से परिकल्पना करता है तथा संहिता के आदेश 12 का नियम 6 अन्य प्रश्नों के अवधारणा (निर्णय) की प्रतीक्षा किए बिना किसी भी प्रक्रम पर निर्णय पारित करने को अनुज्ञा (अनुमति) देता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक ही वाद में भिन्न-भिन प्रक्रमों पर पारित एक से अधिक डिक्रियाँ हो सकती हैं।
यदि किसी मामले में, 8 जुलाई 1946 को प्रथम डिक्री वादियों और कुछ प्रतिवादियों के बीच किए गए समझौते पर आधारित हों और द्वितीय डिक्री द्वारा शेष प्रतिवादियों के अधिकारों का विनिश्वय किया गया हो, तो दो डिक्रियाँ पृथक् (अलग) और स्वतंत्र होंगी और उनमें से किसी एक को भी शून्य नहीं माना जा सकता।
(4) माध्यस्थम् मामले में कई डिक्रिया - माध्यस्थम् अधिनिर्णय का एक भाग दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया, जो बाकी अधिनिर्णय से अलग किया जा सकता है, न्यायालय उस पर निर्णय देकर डिक्री पारित कर सकता है।
(5) जब डिक्री नहीं दी जा सकती- - कब्जे और अन्त: कालीन लाभ के लिए एक वाद में प्रतिवादी को स्वीकृतियों के आधार पर निर्णय नहीं दिया जा सकता। प्रतिवादी किरायेदार ने मकान मालिक के स्वत्व (मालिक होने) के तथ्यों को स्वीकार नहीं किया अतः इनकी जाँच व प्रमाण को आवश्यकता है। आदेश 2, नियम 6 के अधीन इस मामले में डिक्री पारित नहीं की जा सकती। येनकेन, जब उच्चतम न्यायालय ने डिक्री तैयार करने के लिए स्थगन दिया है, तो डिक्री नहीं दी जा सकती। स्वीकृति के आधार पर निर्णय प्रदान करने में न्यायालय का कर्तव्य है कि, वादी ने जो अनुतोष मांगा है, क्या यह उसे प्रदान किया जा सकता है या नहीं, तथा वाद दुरभि सन्धि, न्याय को विपुलता करने वाला, जन विरोधी, जन-राजस्व को समात करने के उद्देश्य से प्रस्तुत नहीं किया गया हो। न्यायालय को स्वीकृति के आधार पर यान्त्रिक रूप से डिक्री पारित नहीं की जानी चाहिए।
(6) धन की वसूली मय ब्याज के करने हेतु वाद में डिक्री संभव नहीं- एक वाद में विवाद्यक (वादप्रश्न) बना लिए थे और मामले के विचारण के लिए दिनांक निश्चित कर दी गई थी। प्रतिवादियों के दायित्व के बारे में कोई स्पष्ट और संदेहरहित स्वीकृति (एडमिशन) नहीं थी। तथ्यों के प्रश्न के निर्णय को अन्तर्वलित करने वाले विवाधक बनाये गये। अभिनिर्धारित किया कि साक्ष्य लिए बिना आदेश 12, नियम 6 के अधीन प्रस्ताव पर इस मामले का निपटारा नहीं किया जा सकता और प्रतिवादियों के विरुद्ध डिक्री पारित नहीं की जा सकती।
(7) स्वीकृति पर आधारित निर्णय - घोषणार्थ वाद कि-वादीगण उस राशि के हकदार हैं, जो उनके पिता ने बैंक में रखी थी। प्रतिवादी को योजना में मृत पिता के साथ बॉण्ड होल्डर था। प्रतिवादी को यह स्वीकृति कि मृतक सम्पत्ति का एकमात्र स्वामी था, निर्णय पारित करने का आधार नहीं हो सकता, क्योंकि अभिवचन के पश्चातवर्ती भाग अभिवचन है कि- यह बॉण्ड होल्डर होने के नाते धन प्राप्त करने का हकदार है। इस वाद प्रश्न को साक्ष्य पर जाँचना होगा। रिजर्व बैंक को निदेश दिया कि-वादियों के पक्ष में देय अर्द्धवार्षिक ब्याज की राशि वादियों के हित की रक्षा के लिए वादियों को दे दी जावे। अपीलार्थी का कथन है कि उससे कम अंक वाले विद्यार्थी को मेडिकल में प्रवेश दिया गया है, जबकि प्रवेश के समय वह मौजूद था एवं उसकी अनदेखी की गई है। विपक्षी द्वारा इन अभिकथनों का विशिष्ट रूप से खण्डन या जवाब प्रस्तुत नहीं नहीं किया गया है। इन आधारों पर स्वीकृति मान कर निर्णय किया जाना चाहिए। प्रतिवादी को स्वीकृति मांग के आधार पर चाहे गये गये अनुतोष के लिए। डिक्री पारित करने ने से पूर्व न्यायालय को यह देखना होगा कि क्या वादी विधिक रूप से चाहा गया अनुतोष प्राप्त करने का अधिकारी है, कहीं वाद लोक राजस्व को बचाने या लोक नीति के विरुद्ध तो नहीं है। आदेश 12 नियम 6 के तहत पारित एक पक्षीय डिक्री को आदेश 9 नियम 13 के अधीन अपास्त नहीं किया जा सकता। अपील ही एक मात्र उपचार है।