सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 56: आदेश 10 नियम 3 एवं 4 के प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 10 न्यायालय द्वारा पक्षकारों की विवाधक तय करने के पूर्व ली जाने वाली परीक्षा है। यह दोनों नियम पक्षकारों की ऐसी परीक्षा का सार लिखे जाने के निर्देश न्यायालय को देते हैं। जैसे पूर्व के आलेख में बताया गया है कि नियम 1 एक आज्ञापक प्रावधान है, जब नियम 1 के अंतर्गत परीक्षा कर ली जाती है तब नियम 3 के अंतर्गत उक्त परीक्षा का सार लिखा जाता है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 3 व 4 पर संयुक्त रूप से टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-3 परीक्षा का सार लिखा जाएगा-परीक्षा का सार न्यायाधीश द्वारा लिखा जाएगा और वह अभिलेख का भाग होगा।
इस नियम का मुख्य उद्देश्य वाद संबंधी सामग्री का स्पष्टीकरण है, जिसके लिए न्यायालय को पक्षकार या पक्षकार के साथी की परीक्षा करने की शक्तियाँ दी गई हैं। इस नियम के अंतर्गत लिखा गया सार अभिलेख का भाग होता है।
संशोधन विवादग्रस्त सामग्री का स्पष्टीकरण प्राप्त करने के लिए न्यायालय में आने वाले या उपस्थित पक्षकार की परीक्षा करना अनिवार्य (बाध्यकर) कर दिया गया है। अत: अब यह आवश्यक उपबंध बन गया है और इसका परिक्षेत्र व्यापक हो गया है।
पक्षकार या उसके साथी की परीक्षा-
(i) नियम 2 के उपनियम (1) के खण्ड (क) के अनुसार न्यायालय उपस्थित पक्षकारों की मौखिक परीक्षा, जो वह ठीक समझे, करेगा। यह आज्ञापक उपबंध है। इस परीक्षा का सार न्यायाधीश द्वारा लिखा जाएगा।
(ii) इसी प्रकार न्यायालय वाद से संबंधित तात्विक प्रश्नों को उत्तर देने में समर्थ ऐसे व्यक्ति को भी मौखिक परीक्षा कर सकेगा, जो न्यायालय में उपस्थित है और पक्षकार या वकील के साथ है। यह उपबंध खण्ड (ख) निदेशात्मक है। प्रकार की परीक्षा प्रथम सुनवाई के दिन की जावेगी। उपरोक्त दोनों
(iii) परन्तु न्यायालय किसी बाद की सुनवाई में भी पक्षकार या उसके साथी को मौखिक परीक्षा कर सकेगा।
(iv) दोनों पक्षकार ऐसी परीक्षा में पूछने के लिए प्रश्नों के बारे में सुझाव दे सकते हैं और न्यायालय यदि ठीक समझे, तो ऐसे प्रश्न उक्त परीक्षा में पूछे जा सकते हैं। इस प्रकार पक्षकारों की मदद से न्यायालय उन सही मुद्दों (वाद प्रस्नों) का पता लगा सकेगा, जिनको आदेश 14, नियम 1 के अधीन विवाद्यक बनाने के लिए आधार बनाया जा सकेगा।
परीक्षा में बयानों का मूल्य- इस परीक्षा में लेखबद्ध किये बयान साक्ष्य का अतिलंघन नहीं कर सकते, फिर भी उनका महत्त्वपूर्ण मूल्य है और स्वीकृतियों के रूप में बयान देने वाले के विरुद्ध अंतिम प्रमाण बन जाते हैं। परन्तु ऐसे स्वीकृति के कथन दूसरे पक्षकार पर बाध्य नहीं होते, क्योंकि उसे उसको प्रतिपरीक्षा का अवसर नहीं मिला। पक्षकार की मौखिक परीक्षा से न्यायालय पक्षकारों के विवादों को कम कर सकता है। न्यायालय इस अनुबन्ध को नियमित काम में लेने का प्रयास करे।
दस्तावेजों का स्वीकरण - 1976 के संशोधन से पहले पक्षकार को परीक्षा करना बाध्यकारी नहीं था, परन्तु संशोधित आदेश 10, नियम 2(1) (क) में शब्द "शैल" रख देने से अब इसका अभिप्राय स्पष्ट हो गया है। शब्द "शैल" के प्रयोग से अब न्यायालय के लिए यह बाध्यकारी हो गया है कि वह न्यायालय में आने वाले पक्षकार या उपस्थित पक्षकार को परोक्षा करे, ताकि वाद को विवादग्रस्त सामग्री प्रकट हो सके। यदि आदेश 10, नियम 1 के उपबंधों को पूर्णरूप से तथा उदारता से प्रयोग में लिया जाए, तो शीघ्र तथा गतिशील न्याय देने के लिए ये उपबंध अपना भाग अदा कर सकते हैं। इनका उदारतापूर्वक प्रयोग संविवाद को छोटा करेगा।
बहुत से संविवाद जो अभिवचन में है, पक्षकारों को परीक्षा के बाद बचे नहीं रहेंगे। इस प्रकार संविवाद संकुचित हो जायेंगे। दस्तावेजों के बारे में, यह अधिक अच्छा हो कि मूल दस्तावेज पक्षकार के समक्ष रखे जावें और उनके दृश्यमान अवलोकन के बाद पक्षकार से उस पर "स्वीकृति या अस्वीकृति" प्राप्त की जावे। दस्तावेज को देखते हुए पक्षकार इस स्थिति में होने कि यह उनको स्वीकार करे या अस्वीकार करें, जो कि बोल द्वारा किये जाने पर संभव नहीं है।
संदेहों का स्पष्टीकरण परीक्षा द्वारा आवश्यक- जब एक मामले में लिखित-कथन के तथ्य उलझे हुए थे कि उनसे कपट, परपीड़न, असम्यक असर या गलती में से कौन से तथ्य का अभिवाकृ किया गया था, पता नहीं चल सकता था। ऐसी स्थिति में न्यायालय का यह कर्तव्य था कि वह पक्षकारों को परीक्षा कर स्थिति को स्पष्ट करवाने के बाद विवाद्यकों का स्थिरीकरण करता।
विवाद्यक बनाने से पहले पक्षकारों की परीक्षा-
एक प्रकरण में दो वाद संस्थित किये गये, जिनमें एक वादी ने वाद ऋन को वसूली के लिए किया, जब कि दूसरा वादी ने प्रतिवादी के पास रखे गये गहनों को वसूल करने के लिए किया था। दोनों वाद अलग-अलग संध्यवहार के बारे में थे, जिनको मिश्रित नहीं करना चाहिये। यदि विवाद्यक बनाने में कोई कठिनाई आती है, तो आदेश 10 नियम 1 के अधीन पक्षकारों को परीक्षा की जानी चाहिये, ताकि चित्र साफ हो जावे।
परीक्षा की सीमा-एक भागीदारी फर्म के विरुद्ध बेदखली के बाद में भागीदारों को केवल प्रतिरक्षा करने का अधिकार है, न कि अपने आपसी और भीतरी विवादों को उठाने का।
संविवाद का विशदीकरण-1976 के संशोधन के बाद संविवाद (झगड़े) के स्पष्ट करने के लिए पक्षकारों की परीक्षा करना बाध्यकारी है। अतः न्यायालय को उचित प्रक्रम पर आदेश 10, नियम 1 व 2 के अधीन दिये गये आवेदन पर विचार करना होगा।
परीक्षा का उद्देश्य व स्वरूप-इस नियम का उद्देश्य पक्षकारों के बीच विवादग्रस्त प्रश्नों का पता लगाना है, इसमें साक्ष्य नहीं लेना है, न साक्ष्य का पता लगाना है। यह केवल तथ्यों की खोज है। साक्ष्य की तरह बयान लेना व दूसरे पक्षकार की प्रतिपरीक्षा का अवसर देना-ये इस नियम की प्रक्रिया के प्रतिकूल है। इसे आदेश 18 की प्रक्रिया को असफल करने के लिए काम में नहीं लाया जा सकता। जब कोई तथ्यों का पता लगाना आवश्यक हो, तभी इसका प्रयोग करना चाहिये।
अभिलेख के भाग के रूप में- (नियन 3) - (1) उक्त परीक्षा का सारांश न्यायाधीश द्वारा लिखा जाएगा और (11) वह अभिलेख का भाग होगा।
बयान (कथन) को वापस लेना या स्पष्ट करना-
एक महत्वपूर्ण वाद में पत्नी ने एक विवाह-विच्छेद की याचिका में उस समय बयान दिया, जब उसका मस्तिष्क सही रूप से काम नहीं कर रहा था। आदेश 10, नियम 2 के अधीन दिए गए ऐसे बयान को वापस लिया या स्पष्ट किया जा सकता है। पत्नी ने कहा था कि वह 1971 वर्ष के आरंभ से अलग से रह रही है। इसे वह वापस ले सकती है या स्पष्ट कर सकती है।
नियम-4 उत्तर देने से प्लीडर के इन्कार का या उत्तर देने में उसकी असमर्थता का परिणाम (1) जहां प्लीडर द्वारा उपसंजात होने वाले पक्षकार का प्लीडर, या प्लीडर के साथ वाला ऐसा व्यक्ति जो नियम 2 में विनिर्देष्ट है, बाद से संबंधित किसी ऐसे तात्विक प्रश्न का उत्तर देने से इन्कार करता है या उत्तर देने में असमर्थ रहता है, जिसके बारे में न्यायालय की राय है कि उसका उत्तर उस पक्षकार को देना चाहिए जिसका यह प्रतिनिधित्व करता है।
यह संभव है कि यदि स्वयं पक्षकार से परिप्रश्न किया जाए तो यह उसका उत्तर देने में समर्थ होगा, वहां 'न्यायालय वाद की सुनवाई को किसी दिन के लिए, जो पहली सुनवाई की तारीख से सात दिन से पश्चात् का न हो, मुल्तवी कर सकेगा और निदेश दे सकेगा कि ऐसा पक्षकार उस दिन स्वयं उपसंजात हो।
(2) यदि ऐसे नियत दिन पर ऐसा पक्षकार विधिपूर्ण प्रतिहेतु के बिना स्वयं उपसंजात होने में असफल रहता है तो न्यायालय उसके विरुद्ध निर्णय सुना सकेगा या वाद के सम्बन्ध में ऐसा आदेश कर सकेगा जो यह ठीक समझे।
यह नियम पक्षकार की परीक्षा में उत्तर देने में असमर्थ होने के परिणाम बताता है। यह एक दाण्डिक-उपबंध है, जिसमें न्यायालय पक्षकार के विरुद्ध निर्णय सुना सकता है।
जब प्लीडर या प्लीडर के साथ आने वाला व्यक्ति नियम 1 व 2 में वर्णित परीक्षा में किसी ऐसे
प्रश्न का-
(1) उत्तर देने से इन्कार करे, या
(2) उत्तर देने में असमर्थ रहे
उस प्रश्न का उत्तर पक्षकार को देना चाहिए और संभव है स्वयं पक्षकार उसका उत्तर दे सके, ऐसी न्यायालय की राय है, तो न्यायालय (1) सुनवाई को अगली पेशी के लिए स्थगित (मुल्तवी) कर सकेगा, जो प्रथम सुनवाई की तारीख से सात दिन बाद की नहीं होगी और (11) निदेश देगा कि ऐसा पक्षकार अगली पेशी पर स्वयं उपस्थित हो।
(1) यदि ऐसे नियत दिन पर,
(2) ऐसा पक्षकार विधिपूर्ण प्रतिहेतु (किसी विधिमान्य कारण) के बिना स्वयं उपस्थित नहीं होता है,
(3) तो न्यायालय-(क) उसके विरुद्ध निर्णय सुना देगा, या
(ख) वाद के बारे में कोई उचित आदेश कर सकेगा।
नियम 1 व 2 का अनुपालन अनिवार्य-जब जिला न्यायाधीश ने प्रतिवादी के उपस्थित अधिवक्ता की परीक्षा नहीं की, जो सम्यकू रूप से निर्देशित था, तो न्यायाधीश ने आदेश 10 के नियम 1 व 2 के उपबन्धों की पालना नहीं की, जो अनिवार्य थी। इस प्रकार आदेश 10, नियम 2 का स्पष्ट उल्लंघन किया गया है।
प्रतिवादी को उपस्थित होने का आदेश-
नियम 1 तथा 2 की अनुपालना किये बिना, प्रतिवादी को उपस्थित होने के लिए आदेश नहीं दिया जा सकता। आदेश 10, नियम के अधीन शक्ति का प्रयोग तभी किया जा सकता है, जब प्रतिवादी के एडवोकेट की आदेश 10, नियम 2 के अधीन परीक्षा करने के बाद भी न्यायालय महसूस करे कि कुछ सारभूत बातों को स्पष्ट करना आवश्यक है। अतः न्यायाधीश का आदेश स्पष्ट रूप से आदेश 10, नियम 2 का उल्लंघन करने से अवैध है।।
वकील की उपस्थिति - प्रतिवादीगण उनके बयान लेखबद्ध करने के लिए नियत की गई दिनांक को अनुपस्थित रहे। प्रतिवादी के वकील ने, येनकेन, न्यायालय द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देने या मना करने में कोई अनिच्छा प्रकट नहीं की। ऐसी दशा में प्रतिरक्षा को नहीं काटा जा सकता।
विवाह की वैधता की घोषणा के लिए वाद में पक्षकारों की व्यक्तिशः उपस्थिति का प्रश्न-ऐसे मामले में पक्षकारों को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना कब आवश्यक है, इस प्रश्न पर विचार किया गया। आदेश 10, नियम 1 वकील के माध्यम से स्वीकृत या प्रत्याख्यान (अस्वीकृति) को प्राधिकृत करता है। यदि वकील किसी विशेष प्रश्न को स्वीकार या अस्वीकार करने में सक्षम न हो, तो न्यायालय विचार करके पक्षकार के व्यक्तिशः उपस्थित होने का निर्देश दे सकता है।
वाद की खारिजी का उपचार- अपील या पुनःस्थापन- एक वाद में वादी को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का निदेश दिया गया था, पर वह असफल रहा, पर उसका वकील उपस्थित था। न्यायालय ने उस वाद को खारिज कर दिया। यहां आदेश 9 नियम 1 लागू नहीं होता और वादी पुनःस्थापन के लिए आवेदन नहीं कर सकता, उसे अपील करनी होगी। 26 उड़ीसा उच्च न्यायालय का निर्णय है कि आदेश 10, नियम 4 (2) में पारित आदेश को आदेश 9, नियम 9 लागू होता है और क्योंकि वादी के वकील की उपस्थिति को वादी की उपस्थिति माना जावेगा।
आदेश 9 के नियम 12 में स्वयं उपसंजात होने के लिए आदिष्ट पक्षकार के पर्याप्त हेतुक दर्शित किए बिना गैरहाजिर रहने का परिणाम बताया गया है। अतः वादी की अनुपस्थिति पर, यथास्थिति, आदेश 9 के नियम लागू होते हैं। अतः आदेश 9 के नियम 4 व 1 लागू होंगे और वाद के पुनःस्थापन की कार्यवाही आदेश 9 नियम 9 के अधीन होगी। परन्तु उड़ीसा उच्च न्यायालय का यह तर्क है कि वादी के वकील की उपस्थिति वादी की उपस्थिति मानी जावेगी, गलत है। जब स्वयं उपसंजाति के लिए आदेश दिया गया, तो वादी का वकील वादी की ओर से यहां उपस्थिति नहीं दे सकता। यह कथन पुनर्विचार करने योग्य है। इसी प्रकार मध्यप्रदेश का निर्णय आदेश 9 के नियम 12 के विपरीत है।
अन्तर्निहित शक्ति के अधीन प्रतिरक्षा काटने के आदेश को वापस लेना- न्यायालय में वकील उपस्थित था, जो प्रश्नगत बाद में सभी प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अधिकृत और निर्देशित था। फिर भी न्यायालय ने उस वकील की परीक्षा नहीं की और आवेदक को समन किया। इस प्रकार प्रतिरक्षा काटना गलत है। उच्च न्यायालय ऐसे आदेश को धारा 151 के अधीन वापस ले सकता है।