सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 134: आदेश 21 नियम 93 के प्रावधान

Update: 2024-02-21 07:32 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 93 पर प्रकाश डाला जा रहा है।

नियम-93 कुछ दशाओं में क्रयधन की वापसी-जहाँ स्थावर सम्पत्ति का विक्रय नियम 92 के अधीन अपास्त कर दिया जाता है वहाँ केता अपना क्रयधन ब्याज के सहित या रहित, जैसे भी न्यायालय निदिष्ट करे, वापस पाने का आदेश उस व्यक्ति के विरुद्ध प्राप्त करने का हकदार है जिसे कयधन दे दिया गया है।

आदेश 21, नियम 92 पिछले नियम 89,90 या 91 में आवेदनों के प्रसंग में विक्रय के आत्यन्तिक (अन्तिम) होने या अपास्त करने की प्रक्रिया बताता है, जिसके अनुसार आगे नियम 93 व 94 के अधीन आदेश पारित किये जाते हैं।

विक्रय कब आत्यंतिक हो जाएगा और विक्रय कब अपास्त कर दिया जाएगा।

विक्रय कब आत्यंतिक (अन्तिम) हो जाएगा।

(क) नियम 89,90 या 91 के अधीन कोई आवेदन नहीं किया गया है या

(ख) आवेदन किया गया है, तो अन्नुज्ञात (नामंजूर) कर दिया गया है, तो न्यायालय विक्रय को पुष्ट करने का आदेश करेगा। (यह आज्ञापक है) और तब विक्रय आत्यंतिक हो जाएगा।

परन्तुक में इस नियम के दो अपवाद दिये गये हैं।

विक्रय को पुष्ट करने वाला आदेश करेगा आज्ञापक [उपनियम (1)] यह शब्दावली आज्ञापक है। जब नियम 89,90 या 91 के अधीन आवेदन न किया गया हो या किया गया हो, तो अस्वीकार कर दिया गया हो, तो ऐसी स्थिति में न्यायालय को विक्रय को पुष्ट करने वाला आदेश करना होगा।

परन्तुक में उक्त नियम का अपवाद दिया गया है कि-निम्न दशाओं में विक्रय को पुष्ट नहीं किया जावेगा-

(1) ऐसी सम्पत्ति के किसी दावे का अन्तिम निपटारा नहीं हुआ हो, या

(2) उसकी कुर्की के लिए आक्षेप लम्बित है।

यदि अपील में उस डिक्री को विक्रय के बाद तथा उसकी पुष्टि को पलट दिया गया हो, तो भी उस विक्रय को पुष्ट करना होगा। जब नियम 89,90 या 91 के अधीन कोई आवेदन नहीं हो और ऐसा कोई सुझाव भी न हो कि-न्यायालय को पक्षकारों के आचरण के कारण गुमराह (पथभ्रष्ट) किया गया है, तो उस विक्रय को अपास्त करने के लिए धारा 151 की अन्तर्निहित अधिकारिता का प्रयोग नहीं किया जा सकता, पर जहाँ कपट हुआ है और आवेदन भी नहीं है, तो पुष्टि करने से मना करने के लिए अन्तर्निहित अधिकारिता का प्रयोग किया जा सकेगा। या जब कि यह विक्रय शून्य हो।

साधारण नियम यह है कि-एक निष्पादन में विक्रय इस आधार पर अपास्त नहीं किया जा सकेगा कि बाद में डिक्री को पलट दिया गया या संशोधित (परिवर्तित) कर दिया गया। जब एक बार न्यायालय इस निष्कर्ष (परिणाम) पर पहुंच जाता है कि- प्रस्ताव में मूल्य पर्याप्त है, तो उसके बाद का ऊँचा प्रस्ताव उस विक्रय या पहले आए प्रस्ताव के पुष्टिकरण से मना करने का कोई वैध आधार नहीं है। परन्तु नियम 90 के अधीन आवेदन के लम्बित रहते उस विक्रय को पुष्ट करना अवैध और शून्य होगा।

नीलाम-क्रेता के अधिकार का स्वरूप आदेश 21, नियम 92 (1) का परन्तुक यह स्पष्ट बताता है कि किसी कुर्क की गई सम्पत्ति के किसी दावे या किसी सम्पत्ति की कुर्की के किसी आक्षेप (एतराज) का निपटारा लम्बित है, तो विक्रय की गई सम्पत्ति में नीलाम-क्रेता का अधिकार अपूर्ण तथा असम्बद्ध (inchoate) रहता है और मध्यवर्ती (बीच की) घटनाओं से असफल होने के लिए दायी होता है। जब कोई सजीव और प्रभावपूर्ण विक्रय हो, जो उस दिन सक्रिय हो जब वह दावा या एतराज निपटा दिया जाता है, केवल तभी ऐसा विक्रय पुष्ट किया जा सकता है।

इस मामले में, नीलाम-क्रेता ने नियम 50 को भंग किया है, जब उसने पूरी विक्रय-राशि वापस ले ली और वास्तव में यह स्थिति स्वीकार कर ली कि डिक्री की संतुष्टि हो गई है। नीलामी क्रेता को कोई अधिष्ठायी अधिकार नहीं कहा जा सकता, जो उसे उद्‌भूत हुआ है, जिसे वह मांग सकता है और आदेश 21, नियम 92 के अपनी प्रवृत्त (लागू) करवा सकता है।

विक्रय कब अपास्त कर दिया जायेगा-

उपनियम (2) के अनुसार निम्न परिस्थितियों में विक्रय को अपरास्त करने वाला आदेश किया जावेगा-

जहाँ नियम 89 के अधीन आवेदन के मामले में-

(क) चाहा गया निक्षेप (जमा) विक्रय की तारीख से साठ दिन के भीतर कर दिया गया है, या

(ख) गणित संबंधी या लिपिकीय भूल से जमा राशि कम जमा करने पर उस कमी को न्यायालय द्वारा दिये गये नियत समय के भीतर जमा करा दिया गया है, या

जहाँ नियम 90 या 91 के अधीन विक्रय को अपास्त करने के लिए दिये गये आवेदन का अनुज्ञात (मंजूर/ स्वीकार) कर दिया गया है-

वहां (ऐसी स्थिति में) न्यायालय उस विक्रय को अपास्त करने वाला आदेश करेगा।

सूचना (नोटिस) आवश्यक परन्तु ऐसा आदेश करने से पहले सभी प्रभावित व्यक्तियों को नोटिस देना आवश्यक होगा, जो परिशिष्ट (ङ) के प्ररूप (फार्म) संख्यांक 36 या 37 में, यथास्थिति, दिया जावेगा।

उपनियम (2) के परन्तुक के अधीन सूचना- इस परन्तुक के अधीन सभी प्रभावित व्यक्तियों को नोटिस देना आवश्यक है। डिक्रीदार और नीलाम क्रेता को नोटिस दिया जाएगा। परन्तु आनुपातिक वितरण के लिए आवेदन करने वाले डिक्रीदारों को नोटिस (सूचना) देने की आवश्यकता नहीं है। उन प्रभावित व्यक्तियों को पक्षकार बनाना भी आवश्यक नहीं है, 76 केवल सूचना जारी करना पर्याप्त है। ऐसी सूचना (नोटिस) देना न्यायालय का कर्तव्य है।

वाद जब वर्जित (उपनियम (3)]- इस नियम के अधीन किए गए आदेश को अपास्त कराने के लिए कोई भी वाद ऐसे व्यक्ति द्वारा नहीं लाया जाएगा, जिसके विरुद्ध ऐसा आदेश किया गया है ऐसे व्यक्ति को उस आदेश अपील आदेश 43, नियम 1 के खण्ड (ञ) के अधीन करनी होगी। की इस नियम के अधीन आदेश -इस नियम के अधीन दो प्रकार के आदेश किये जा सकते हैं-

विक्रय को पुष्ट करने वाला आदेश-(उपनियम-1)- यह आदेश केवल दो स्थितियों में किया जा सकेगा-

(1) जब कोई आवेदन नहीं किया गया हो, या

(2) जब आवेदन किया गया हो और उसे अस्वीकार कर दिया गया हो।

इन दोनों स्थितियों में विक्रय को पुष्ट करने वाले आदेश को अपास्त करने के लिए वाद नहीं चलेगा, परन्तु यदि ऐसी पुष्टि (1) कपट द्वारा प्राप्त की गई हो या (2) उस विक्रय को अधिकारिता विहीन कहकर चुनौती दी गई हो, तो येनकेन, इस प्रकार का वाद चलने योग्य होगा।

(ख) विक्रय को अपास्त करने वाला आदेश (उपनियम-2)- उपनियम (3) की भाषा इस बारे में स्पष्ट है कि- नियम 89, 90 या 91 के अधीन आवेदन करने पर उस विक्रय को अपास्त करने वाले आदेश को अपास्त करवाने के लिए कोई वाद नहीं चल सकेगा। जिस पक्षकार के विरूद्ध ऐसा आदेश किया गया है, वह आदेश 40, नियम 1 (जे) के अधीन अपील कर सकेगा। डिक्रीदार जो नीलामक्रेता भी है, इस मामले में इससे अच्छी स्थिति में नहीं है। बन्धक डिक्री के निष्पादन में सम्पत्ति क ने खरीदी और उसी के पक्ष में विक्रय की पुष्टि की गई-किन्तु बाद में एक संस्था द्वारा कहा गया कि क ने बोली संस्था के सदस्य होने के नाते उस संस्था की ओर से लगाई थी और उसी संस्था ने वह सम्पत्ति खरीदी, अतः विक्रय प्रमाण पत्र संस्था के नाम दे दिया और संस्था ने सम्पत्ति पर कब्जा प्राप्त कर लिया- यह कार्यवाही वैध है और यह नहीं कहा जा सकता कि संस्था अतिचारी मात्र है अथवा कि न्यायालय का उसके पक्ष में प्रमाणपत्र देना अधिकारिता विहीन या शून्य है।

विक्रय उस समय आत्यंतिक हो जाता है जब नियम 92 के अधीन आदेश किया जाता है। नियम 94 के अधीन जारी किया गया विक्रय-प्रमाण पत्र केवल एक औपचारिक घोषणा होती है।

नीलामी में अधिकतम बोली लगाने वाले क्रेता के नाम में विक्रय की पुष्टि किन्तु शिक्षा संस्था द्वारा आवेदन किए जाने पर विक्रय प्रमाण पत्र शिक्षा संस्था के नाम में जारी किया जाना और संस्था को संपत्ति का प्रतीक कब्जा दिया जाना- ज्यों ही विक्रय की पुष्टि कर दी जाती है, निर्णीत-ऋणी के उस संपत्ति में सभी अधिकार और हक समाप्त हो जाते हैं और विक्रय की तारीख से क्रेता का हक मान लिया जाता है अतः विक्रय शून्य नहीं है वरन् पूरी तरह विधिमान्य है। अतः निर्णीतऋणी हक के आधार पर सम्पत्ति के कब्जे, घोषणा और स्थायी व्यादेश के लिए कोई वाद फाइल नहीं कर सकता और विक्रय प्रमाण पत्र के धारक शिक्षा संस्था को किसी प्रकार अतिचारी नहीं माना जा सकता।

अन्य पक्षकार द्वारा वाद (उपनियम 4 तथा 5)- ये दोनों उपनियम 1976 के संशोधन द्वारा जोड़े गये है। (क) आवश्यक पक्षकार - (उपनियम 4) जब कोई अन्य पक्षकार नीलाम-क्रेता के विरुद्ध वाद फाइल करे और निर्णीत ऋणी के हक को भी चुनौती दे, तो डिक्रीदार और निर्णीतऋणी उस वाद के आवश्यक पक्षकार होंगे।

डिक्री के परिणाम (उपनियम-5) जब उपरोक्त वाद में डिक्री दे दी जाती है, तो उसके दो परिणाम होंगे- (1) न्यायालय डिक्रीदार को निदेश देगा कि वह नीलाम-क्रेता को क्रय धन वापस कर दे।

निष्पादन की कार्यवाही वापस उसी चरण (प्रक्रम पर वापस चली जायेगी, जहां विक्रय का आदेश किया गया था, परन्तु न्यायालय अन्यथा (दूसरा) निदेश भी दे सकता है।

क्रय धन की वापसी (नियम 93)- उक्त नियम 92 के अधीन जब स्थावर (अचल) सम्पत्ति का विक्रय अपास्त हो जाता है, तो क्रेता उस व्यक्ति से जिसे क्रयधन दिया था, उस क्रयधन को ब्याज सहित या बिना ब्याज, जैसा न्यायालय निदेश दे, वापस पाने का आदेश प्राप्त करने का हकदार होगा। जब निर्णीत-ऋणी का विक्रय-हित नहीं-नीलामी क्रेता को, चाहे निर्णीत-ऋणी का कोई विक्रय हित नहीं है, कोई राशि वापस प्राप्त करने का अधिकार नहीं है। परन्तु नियम 91 तथा 93 उसे विधिक अधिकार प्रदान करते हैं कि उसे क्रयराशि वापस की जाए।

आदेश 21, नियम 92 (3) की बाधा का लागू होना-

जब लागू नहीं होगा- निष्पादन कार्यवाही में नीलामी विक्रय की पुष्टि के आदेश में गलत सम्पत्ति को सम्मिलित कर लिया, जो विक्रय की विषय-सामग्री नहीं थी। गलत सम्पत्ति की बिक्री की पुष्टि को चुनौती देते हुए दूसरा वाद चलने योग्य है। यहां आदेश 21, नियम 92 (3) आकर्षित नहीं होता।

जब लागू किया गया-सम्पत्ति की बिक्री की पुष्टि, जो निष्पादन की विषय सामग्री थी। इस को चुनौती देने वाला वाद आदेश 21, नियम 92 (3) से बाधित होगा।

नियम 89, 90 या 91 के अधीन विक्रय को अपास्त करने के लिए जो आवेदन दिये जाते हैं, उन पर आदेश नियम 92 के अधीन किया जाता है। अतः आदेश 43 के नियम 91 के खण्ड (ञ) के अधीन ऐसे आदेश की अपील होगी, पर धारा 104(2) के कारण द्वितीय अपील नहीं होगी।

अपील तथा संविधान के अनुच्छेद 227 की अधिकारिता का प्रश्न-

एक मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 के नियम 92 के अधीन विक्रय को अपास्त करने वाले या अपास्त करने से इनकार करने वाले आदेश के विरुद्ध अपील जिला न्यायाधीश को आदेश 43 के नियम 1(ब) के अधीन की जा सकती है। इसके अतिरिक्त एक ओर प्रतिभू का विधिक प्रतिनिधि अर्थात् निर्णीत ऋणी का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले पिटीशनर द्वारा किए गए आवेदन में तथा दूसरी ओर नीलामक्रेता अर्थात् विक्रीपत्रक के प्रतिनिधि द्वारा यह अभिकधन और प्रार्थना करते हुए किए गए आवेदन में कि विक्रय करवाने में डिक्रीधारक द्वारा कपट किया गया था और आदेश 21 के नियम 92 के अधीन डिक्री की तुष्टि अभिलिखित की जाए, डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित प्रश्न उठाया गया था, इसलिए वह धारा का की परिधि के अन्तर्गत आता है जो 1 फरवरी 1977 से पूर्व अपीलनीय था क्योंकि उस समय धारा 41 के अधीन विनिश्चय को संहिता की धारा 2(2) के अधीन डिक्री के रूप में माना जाता था और इसलिए पिटीशनर के पास जिला न्यायाधीश को अपील करने का उपचार था। यदि अधीनस्थ न्यायालय के आक्षेपित आदेशों के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती थी तो भी पिटीशनर को संहिता की धारा 115 के अधीन उच्च न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण फाइल करने का उपचार था। मामले को किसी भी दृष्टि से देखने पर उच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 227 के अधीन अधीनस्थ न्यायालय द्वारा पारित आक्षेपित आदेशों में हस्तक्षेप करने की कोई अधिकारिता नहीं थी। किसी अतिरिक्त बात के बिना केवल गलत विनिश्चय संविधान के अनुच्छेद 227 के अधीन उच्च न्यायालय की अधिकारिता का अवलम्ब लेने के लिए पर्यान नहीं है।

संविधान के अनुच्छेद 221 के अधीन उच्च न्यायालयों को प्रदत्त पर्यवेक्षी अधिकारिता केवल इस बात को देखने तक सीमित है कि कोई निचला न्यायालय या अधिकरण अपने प्राधिकार की सीमाओं के भीतर कार्य करता है तथा उसकी अधिकारिता अभिलेख की किसी दृश्यमान गलती को, जो कमोवेश विधि की गलती है, ठीक करने की नहीं है। न्यायालय की राय में इस मामले में विधि की ऐसी कोई गलती नहीं थी जो कमोवेश अभिलेख की दृश्यमान गलती हो। विद्वान् अधीनस्थ न्यायालय की ओर से अधिकारिता का प्रयोग करने में कोई असफलता नहीं हुई थी और न ही उन्होंने नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों की अवहेलना करते हुए कोई कार्य किया था। उनके द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया भी विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार थी। अनुच्छेद 227 के अधीन पर्यवेक्षी शक्ति का प्रयोग करने में उच्च न्यायालय अपील न्यायालय या अधिकरण के रूप में कार्य नहीं करता है। वह उस साक्ष्य का पुनर्विलोकन या पुनर्मूल्यांकन नहीं करेगा जिस पर निचले न्यायालय या अधिकरण का अवधारण आधारित होना तात्पर्थित है अथवा यह विनिश्चय में विधि की गलतियों को ठीक करने के लिए साक्ष्य का पुनर्विलोकन या पुनर्मूल्यांकन नहीं करेगा।

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