सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 113: आदेश 21 नियम 26,27 एवं 28 के प्रावधान

Update: 2024-02-05 04:46 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 26,27 एवं 28 पर संयुक्त रूप से विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

नियम- 26 न्यायालय निष्पादन को कब रोक सकेगा (1) वह न्यायालय, जिसे डिक्री निष्पादन के लिए भेजी गई है, ऐसी डिक्री का निष्पादन पर्याप्त हेतुक दर्शित किए जाने पर युक्तियुक्त समय के लिए इसलिए रोकेगा कि निर्णीतऋणी समर्थ हो सके कि वह डिक्री पारित करने वाले न्यायालय से या डिक्री के या उसके निष्पादन के बारे में अपीली अधिकारिता रखने वाले किसी न्यायालय से निष्पादन रोक देने के आदेश के लिए आवेदन कर ले या डिक्री या निष्पादन से सम्बन्धित किसी ऐसे अन्य आदेश के लिए आवेदन कर ले जो प्रथम बार के न्यायालय द्वारा या अपील न्यायालय द्वारा किया जाता यदि निष्पादन उसके द्वारा जारी किया गया होता या यदि निष्पादन के लिए आवेदन उससे किया गया होता।

(2) जहां निर्णीतऋणी की सम्पत्ति या शरीर निष्पादन के अधीन अभिगृहीत कर लिया गया है वहां वह न्यायालय, जिसने निष्पादन जारी किया है, ऐसे आवेदन का परिणाम लम्बित रहने तक ऐसी सम्पत्ति के प्रत्यास्थापन या ऐसे व्यक्ति के उन्मोचन के लिए आदेश कर सकेगा।

(3) निर्णीतऋणी से प्रतिभूति अपेक्षित करने या उस पर शर्तें अधिरोपित करने की शक्ति- न्यायालय निष्पादन को रोकने के लिए या सम्पत्ति के प्रत्यास्थापन के लिए या निर्णीतऋणी के उन्मोचन के लिए आदेश करने से पहले निर्णीतऋणी से [ ऐसी प्रतिभूति अपेक्षित करेगा या उस पर ऐसी शर्तें अधिरोपित करेगा जो वह ठीक समझे]।

नियम-27 उन्मोचित निर्णीतऋणी का दायित्व - नियम 26 के अधीन प्रत्यास्थापन या उन्मोचन का कोई भी आदेश निष्पादन के लिए भेजी गई डिक्री के निष्पादन में निर्णीतऋणी की सम्पत्ति या शरीर को फिर से अभिगृहीत किए जाने से निवारित नहीं करेगा।

नियम-28 डिक्री पारित करने वाले न्यायालय का या अपील न्यायालय का आदेश उस न्यायालय के लिए आबद्धकर होगा जिससे आवेदन किया गया है- डिक्री पारित करने वाले न्यायालय का या पूर्वोक्त जैसी अपील न्यायालय का ऐसी डिक्री के निष्पादन के संबंध में कोई आदेश उस न्यायालय के लिए आबद्धकर होगा जिसे डिक्री निष्पादन के लिए भेजी गई है।

आदेश 21 के नियम 26 से 28 में निष्पादन को रोकने के लिए स्थगन आदेश सम्बन्धी व्यवस्था की गई है। उपनियम (3) में शब्दावली "ऐसी प्रतिभूति अपेक्षित करेगा या उस पर ऐसी शर्ते अधिरोपित करेगा, जो वह ठीक समझे" संशोधित किये गए हैं। ऐसा संशोधन करने से अब स्थगनादेश देने से पूर्व निर्णीत-ऋणी से प्रतिभूति लेना या उचित शर्तें लगाना अनिवार्य हो गया है,परन्तु नियम 29 में नये परन्तुक द्वारा धन के संदाय की डिक्री के मामले में प्रतिभूति से छूट दी जा सकती है। नियम 29 में शब्दावली "या ऐसी डिक्री के जो ऐसे न्यायालय द्वारा निष्पादित की जा रही है" जोड़ देने से अब डिक्री को निष्पादन के लिए जिस न्यायालय को अन्तरित किया गया है, अर्थात्- निष्पादन न्यायालय भी वाद के लम्बित रहते स्थगन दे सकेगा।

निष्पादन-न्यायालय द्वारा निष्पादन रोकना (नियम 26)- इस नियम के अधीन डिक्री के निष्पादन को रोकने का उद्देश्य निर्णीत-ऋणी को समुचित कार्यवाही न्यायालय में करने के लिए समय देना है। जैसा कि उपनियम (1) में दिया गया है। ऐसी स्थिति में स्थगन देने पर निष्पादन के अधीन निर्णीत-ऋणी की सम्पत्ति की कुर्की या उसकी गिरफ्तारी की गई हो, तो उसे प्रत्यास्थापित (वापस) कर दिया जावेगा या छोड़ दिया जावेगा। ऐसे स्थगन, प्रत्यास्थापन (सम्पत्ति की वापसी) या उन्मोचन (गिरफ्तारी से छोड़ने ) के आदेश देने से पहले न्यायालय निर्णीत ऋणी से प्रतिभूति लेगा या उचित शर्तें लगा देगा [उपनियम (2) व (3)] परन्तु नियम 29 के परन्तुक के अनुसार धन के संदाय के मामले में प्रतिभूति से छूट दी जा सकेगी, जिसके लिए न्यायालय को कारण अभिलिखित करने होंगे।

नियम का यह स्थगन अस्थायी आदेश है जो डिक्री पारित करने वाले मूल न्यायालय या अपील न्यायालय द्वारा दिये गये स्थगन आदेश तक जारी रहेगा।

उन्मोचित निर्णीत-ऋणी का दायित्व (नियम 27) यह नियम यह व्यवस्था करता है कि नियम के अधीन कुर्क सम्पत्ति की वापसी (प्रत्यास्थापन) या गिरफ्तारी से छोड़ने (मोचन) का आदेश उस डिक्री का निष्पादन करने में निर्णीत-ऋणी की सम्पति या शरीर को वापस अधिगृहीत करने से निवारित नहीं करेगा और बाधक नहीं होगा।

मूल न्यायालय तथा अपील न्यायालय के आदेश आबद्ध कर (नियम 28) निष्पादन न्यायालय पर उसी न्यायालयों के आदेश बाध्यकर होगे, यह इस नियम द्वारा स्पष्ट किया गया है।

अन्तर्निहित शक्ति के प्रयोग द्वारा निष्पादन कार्यवाही का स्थगन जब एक डिक्रीदार ने एक एकपक्षीय डिक्री के निष्पादन के लिए कार्यवाही शुरू की, तो निर्णीत ऋणी ने दो आवेदन लगावे (1) एकपक्षीय डिक्री को हटाने के लिए (आदेश 1, नियम 13 के अधीन) और (2) निष्पादन कार्यवाही के स्थगन के लिए (धारा 151 के अधीन)। न्यायालय ने धारा 151 के आवेदन को स्वीकार करते हुए निष्पादन कार्यवाही को बिना किसी शर्त के रोक दिया और डिक्रीदार की शर्त लगाने की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। अभिनिर्धारित कि यदि न्याय के हित में आवश्यक था, तो स्थगन स्वीकार करते समय न्यायालय को शर्तें लगानी चाहिये थी।

समनुदेशिती की स्थिति हालांकि डिक्रीदार ने डिक्री का समनुदेशन कर दिया फिर भी डिक्री के निष्पादन के स्थगन के लिए आवेदन चलने योग्य है, जब कि समनुदेशिती (एसाइनी) उस वाद में पक्षकार नहीं है, क्योंकि समनुदेशिती सम्पत्ति को साम्याधीन प्राप्त करता है। समनुदेशिती के विरुद्ध साम्या केवल तभी उत्पन्न होती है, जब कि उसने स्थगन-आदेश कर देने के बाद समनुदेशन लिया हो राजस्थान उच्च न्यायालय के इस मत के विपरीत मत कलकत्ता तथा बम्बई उच्च न्यायालयों द्वारा अपनाया गया है।

धारा 15 तथा अनुच्छेद 136 परिसीमा अधिनियम का प्रभाव-

एक मामले में कहा गया है कि परिसीमा अधिनियम की धारा 15(1) के समान युक्तियुक्त उपबंध का कठोर अर्थान्वयन करना उचित नहीं है। उस विधान के इतिहास को खोजना आवश्यक नहीं है जिसका बहुत से विनिश्चयों में विस्तार से वर्णन किया गया है जिसमें यह अभिकधित किया गया है कि संहिता की धारा 45 परिसीमा अधिनियम की धारा 15(1) द्वारा नियंत्रित है। दोनों अधिनियमितियों को प्रारंभ से अंत तक एक दूसरे का पूरक समझा गया है और प्रक्रियात्मक विधि से संबंधित हैं।

यह भी सत्य है कि परिसीमा के कानूनों का अर्थान्वयन करते समय कठिनाई और असंगति के विचारों को कोई स्थान नहीं है। इस पर भी यदि इसका वैकल्पिक अर्थान्वयन संभव हो तो परिसीमा के नियम का उदार अर्थान्वयन अपनाना अनुज्ञेय है। धारा 15(1) के शब्दों में यह बात स्पष्ट है कि जिसका निष्पादन रोक दिया गया है शब्दों की संस्थिति में दिखाई देने वाला निष्पादन शब्द का उदार और विस्तृत भाव में अर्थान्वयन किया जाना चाहिए। डिक्री के निष्पादन से अभिप्राय डिक्री का प्रवर्तन है जिससे कि यह निष्पादन की प्रक्रिया के नाम से जाना जाता है।

धारा 15(1) में निष्पादन शब्द उस सभी समुचित साधनों को स्वीकार करता है जिसके द्वारा डिक्री प्रवृत्त की जाती है। इसमें निष्पादन की सहायता में या उसकी अनुपूरक सभी आदेशिकाएं और कार्यवाहियां सम्मिलित हैं। धारा 15(1) में अन्तर्विष्ट उदारपूर्ण प्रकार के उपबंध का संकीर्ण और निर्बधित अर्थान्वयन स्वीकार करने के लिए कोई युक्तिपूर्ण आधार दिखाई नहीं देता। ऐसा कोई कारण नहीं है कि धारा 15 (1) का संकीर्ण अर्थ क्यों किया जाए जिससे किसी डिक्रीधारी को लाभ अनुज्ञात करना अभिप्रेत हो जहां कि निष्पादन पर पूर्ण या आत्यंतिक रोक लगाया गया हो और न कि आंशिक रोक अर्थात् ऐसा रोक जो डिक्री को एकदम से अनिष्पादनीय बना देता हो।

न ही इस प्रतिपादना का समर्थन किया जा सकता है कि आंशिक रोक के मामलों में धारा 15(1) के अधीन लाभ केवल उस समय प्राप्त किया जा सकता है जहां कि निष्पादन आवेदन का उसी निर्णीत ऋणी के विरुद्ध या एक ही संपत्ति के विरुद्ध निदेश दिया गया है जो उनके विरुद्ध है जिनके विरुद्ध पहले निष्पादन रोक दिया गया था। इसलिए निष्पादन की किसी आदेशिका का रोक इस धारा के अर्थान्तर्गत निष्पादन की रोक है। जहां कि किसी व्यादेश या आदेश में किसी डिक्रीधारी को डिक्री के निष्पादन से रोका है।

उस समय, निष्पादन के किसी विशेष चरण के होते हुए भी या किसी विशेष संपत्ति के होते हुए भी जिसके विरुद्ध या किसी विशेष निर्णीत ऋणी के होते हुए, जिनके विरुद्ध निष्पादन रोका गया था ऐसे व्यादेश या आदेश का प्रभाव स्वयं डिक्री के जीवन को उस कालावधि के द्वारा लंबा करना है जिसके दौरान व्यादेश या आदेश प्रवृत्त रहे थे। कुछ उच्च न्यायालयों द्वारा अपनाए गए प्रतिकूल दृष्टिकोण का बहुमत इस सुनिश्चित सिद्धान्त की उपेक्षा करता है, जबकि विधि निष्पादन की एक पद्धति से अधिक पद्धति विहित करती है, डिक्रीधारी के लिए उनमें से चुनाव करना चाहिए जिसको वह अपनाना चाहता है।

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