सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 109: आदेश 21 नियम 17 के प्रावधान

Update: 2024-01-30 07:20 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 17 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-17 डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन प्राप्त होने पर प्रक्रिया - (1) डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन नियम 11 के उपनियम (2) द्वारा उपबन्धित रूप में प्राप्त होने पर न्यायालय यह अभिनिश्चित करेगा कि क्या नियम 11 से 14 तक की अपेक्षाओं में से उनका जो उस मामले में लागू हैं, अनुपालन किया जा चुका है और यदि उनका अनुपालन नहीं किया गया है तो न्यायालय त्रुटि का तभी और वहां ही या उस समय के भीतर, जो उसके द्वारा नियत किया जाएगा, दूर किया जाना अनुज्ञात करेगा।

3[(1क) यदि त्रुटि इस प्रकार दूर नहीं की जाती है तो न्यायालय आवेदन को नामंजूर करेगा: परन्तु जहां न्यायालय की राय में, नियम 11 के उपनियम (2) के खण्ड (छ) और (ज) में निर्दिष्ट रकम के बारे में कोई अशुद्धि हो वहां न्यायालय आवेदन को नामंजूर करने के बजाय (कार्यवाहियों के दौरान रकम को अन्तिम रूप से विनिश्चित कराने के पक्षकारों के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना) अंतिम रूप से रकम विनिश्चित करेगा और इस प्रकार अंतिम रूप से विनिश्चित रकम वाली डिक्री के निष्पादन के लिए आदेश करेगा।]

(2) जहां आवेदन उपनियम (1) के उपबन्धों के अधीन संशोधित किया जाता है वहां वह विधि के अनुसार और उस तारीख को, जिसको वह पहले पेश किया गया था, पेश किया गया समझा जाएगा।

(3) इस नियम के अधीन किया गया हर संशोधन न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित या आद्यक्षरित किया जाएगा।

(4) जब आदेश ग्रहण कर लिया जाए तब न्यायालय उचित रजिस्टर में आवेदन का टिप्पण और वह तारीख जिस दिन वह दिया गया था, प्रविष्ट करेगा और इसमें इसके पश्चात् अन्तर्विष्ट उपबन्धों के अधीन रहते हुए, आवेदन की प्रकृति के अनुसार डिक्री के निष्पादन के लिए आदेश देगा :

परन्तु धन के संदाय के लिए डिक्री की दशा में कुर्क की गई सम्पत्ति का मूल्य डिक्री के अधीन शोध्य रकम के यथाशक्य लगभग बराबर होगा।

नियम 17 निष्पादन आवेदन न्यायालय में प्राप्त होने के बाद की कार्यवाही का तरीका बताता है।

त्रुटि दूर करना (कमी पूर्ति) [उपनियम (1) तथा (1-क))]- उप नियम के अनुसार न्यायालय में निष्पादन आवेदन प्राप्त होने पर उसकी संवीक्षा (जांच) की जाएगी और यह तय किया जायेगा- (1) कि- क्या यह आवेदन नियम 11 (2) में दी गई बातों के अनुसार है, और (2) क्या इस मामले में लागू होने वाले नियम 11 से 14 तक की अपेक्षाओं (शर्तों) को पूरा कर दिया गया है?

(3) यदि उस आवेदन में कोई त्रुटि या कमी है, तो उसकी उसी समय, वहां पूर्ति की जावेगी या ऐसा करने के लिए समय दिया जाएगा। 1976 में इस उप-नियम में जो संशोधन किया गया है, उसके अनुसार त्रुटि दूर करने का अवसर देना आवश्यक कर दिया गया है। यह ध्यान देने योग्य है।

(4) फिर भी यदि ऐसी त्रुटि दूर नहीं की जाती है, तो न्यायालय उस आवेदन को नामंजूर करेगा। यह भी आज्ञापक है।

(5) परन्तु इसमें एक छूट दी गई है। परन्तुक के अनुसार, नियम 11 के उपनियम (2) के खण्ड (छ) और (ज) में क्रमशः डिक्री मध्ये शोध्य रकम और अधिनिर्णीत खर्चों की (यदि कोई हो) रकम के बारे में कोई अशुद्धि हो, तो न्यायालय आवेदन को नामंजूर नहीं करेगा और इसके बजाय अनन्तिम रकम तय कर निष्पादन के लिए आदेश देगा। सही रकम का अन्तिम निर्णय बाद में किया जा सकेगा।

निष्पादन-आवेदन में संशोधन व परिसीमा

[उपनियम (2)]- जहां आवेदन को उपरोक्त उपनियम (1) के अधीन संशोधित किया जाता है, वह (1) विधि के अनुसार और (2) उस तारीख को पेश किया गया समझा जावेगा, जिसको वह पेश किया गया था।

उपनियम (2) परिसीमा के मामले में छूट देता है। परन्तु यह उपनियम तभी लागू होता है, जब कि आवेदन को उपनियम (1) के अधीन नियम 11 से 14 का पालन न करने के कारण संशोधन करने के लिए वापस किया गया हो, परन्तु किसी अन्य कारण से आवेदन को संशोधन के लिए लौटाने पर उपनियम (2) लागू नहीं होगा।

उपनियम (2) स्पष्ट है कि जब निष्पादन-आवेदन में उपनियम (1) के अनुसार संशोधन किया जाता है, तो उसे उस तारीख को विधि के अनुसार पेश किया माना जावेगा, जिसको वह पहले पेश किया गया था। अनेक उच्च न्यायालयों का मत है कि- निष्पादन आवेदन में संशोधन 12 में की अवधि के बाद भी किया जा सकता है। निष्पादन आवेदन में धारा 153 या धारा 151 के अधीन संशोधन की अनुमति दी जा सकती है।

जहां निष्पादन-आवेदन नियम 11 की शर्तों को पूरा नहीं करता है, परन्तु उसके बारे में निष्पादन-न्यायालय में कोई एतराज नहीं उठाया गया, तो उस एतराज को अपील में उठाने की छूट नहीं है।

परिसीमा अधिनियम 1963 के अनुच्छेद 136 के अनुसार निष्पादन के लिए परिसीमाकाल 12 वर्ष का है।

संशोधन के नियम- पीछे आदेश यम 17 में अभिवचन में संशोधन के जो सिद्धान्त दिये गये हैं, वे निष्पादन आवेदन के संशोधन के बारे में भी लागू होते हैं।

निष्पादन-आवेदन में संशोधन [पारा 151 और 153 सपठित आदेश 21, नियम 17 और 24]- यदि संशोधन द्वारा निष्पादन आवेदन की प्रकृति (स्वरूप) को बदलना चाहा गया है, तो उक्त धाराओं के अधीन न्यायालय की शक्ति का आश्रय नहीं लिया जा सकता। आदेश 21, नियम 24 के अधीन आदेशिका जारी करने के पश्चात् भी निष्पादन-आवेदन में संशोधन करने के लिए उक्त धाराओं का आश्रय नहीं लिया जा सकता, यदि चाहा गया संशोधन निष्पादन के आवेदन की प्रकृति या रूप को परिवर्तित करता हो।

नियम 17 के उपनियम (1) के अधीन यथा परिकल्पित (जैसा चाहा गया) आवेदन प्राप्त करना और नियम 17 के उपनियम (4) के अधीन आवेदन ग्रहण करना दोनों ही सुभिन्न बाते हैं और सुभिन्न प्रक्रम (स्टेज) हैं। नियम 11 के अधीन आवेदन की बाबत संशोधन केवल उक्त नियम के उपनियन (4) के अधीन न्यायालय द्वारा संवीक्षा किए जाने के पश्चात् उसके ग्रहण किये जाने से पूर्व किए जा सकते हैं।

निष्पादन के आवेदन में उन सम्पत्तियों की अनुसूची नहीं दी गई, जो देना चाही गई थी। इस दोष का पता लगने पर डिक्रीदार ने संशोधन का आवेदन किया। अभिनिर्धारित कि आदेश 21, नियम 17 में वर्णित को छोड़कर, अन्य संशोधन किसी भी प्रक्रम पर किए जा सकते हैं और उनकी न्याय हित में अनुमति दी जानी चाहिये। न्याय हित में क्या आवश्यक है और क्या विशेष रूप से वर्जित है, उनको अनुज्ञेय समझ लेना चाहिये। धारा 151 के अधीन सुरक्षित अन्तर्निहित शक्तियों से इस स्थिति को पर्याप्त शक्ति मिलती है।

जब निष्पादन का आवेदन दोषपूर्ण है और डिक्रीदार उसका संशोधन नहीं करवाता, तो न्यायालय द्वारा स्वयमेव उस आवेदन को संशोधित करने की अनुमति देना उचित नहीं है।

न्यायाधीश के हस्ताक्षर (उपनियम-3)- इस नियम के अधीन किए गए प्रत्येक संशोधन पर न्यायाधीश अपने हस्ताक्षर या लघु-हस्ताक्षर (आद्यक्षरित) करेगा।

ग्रहण करने पर प्रक्रिया (उपनियम-4) निष्पादन-आवेदन को ग्रहण करने के बाद में उसे उचित रजिस्टर में अंकित किया जायेगा और इसके बाद आगे बताये गये उपवाक्यों का पालन करते हुए डिक्री के निष्पादन के लिए आदेश दिया जाएगा ।

जब उपनियम (4) के अधीन निष्पादन का आदेश दिया जाता है, तो उसके परिणामस्वरूप चार बातों का निर्णय हुआ माना जाता है कि- (1) आवेदक को उस डिक्री का निष्पादन करवाने का अधिकार है, (2) निर्णीत-ऋणी उस डिक्री की संतुष्टि करने के लिए दायी है, (3) वह डिक्री निष्पादन योग्य है, और (4) वह आवेदन परिसीमा से वर्जित नहीं है।

अत: इन प्रश्नों को आगे की कार्यवाही में दुबारा नहीं उठाया जा सकेगा और यह पूर्व न्याय से वर्जित होगा।

धन संदाय की डिक्री के लिए विशेष प्रावधान परन्तुक के अनुसार विधायिका ने यह आदेश दिया है कि- धन के संदाय की डिक्री में कुर्क की गई सम्पत्ति का मूल्य डिक्री में दी गई रकम के, यथाशक्य (जहां तक हो सके) बराबर होगा। दूसरे शब्दों में डिक्री के मूल्य के बराबर मूल्य की सम्पत्ति को कुर्क किया जा सकेगा, परन्तु शब्द यभाशक्य का प्रयोग कर इस उपबंध में ढील दे दी गई है।

जहां डिकी की रकम से अधिक मूल्य की सम्पत्ति कुर्क कर ली जाती है और तब यदि निर्णीत ऋणी कोई एतराज नहीं उठाता है, तो बाद के प्रक्रम पर वह इस आधार पर उस सम्पत्ति के एक भाग को कुर्की से मुक्त करने की मांग नहीं कर सकता। न्यायालय ऐसी सम्पत्ति के एक भाग का पहले विक्रय करने का निर्देश दे सकता है, पर वह स्वयं कुर्की को नहीं हटा सकता

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