भारत के सुप्रीम कोर्ट ने Union of India बनाम ओंकार नाथ धर (2021) में एक महत्वपूर्ण संवैधानिक और प्रशासनिक प्रश्न पर फैसला दिया। यह मामला सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों, विस्थापित व्यक्तियों और सरकारी आवास के उद्देश्य के बीच संतुलन पर केंद्रित था।
अदालत ने यह तय किया कि क्या दया (Compassion) और अधिकार-ए-आवास (Right to Shelter) के आधार पर किसी सेवानिवृत्त कर्मचारी को सरकारी आवास पर अनिश्चितकाल तक कब्जा बनाए रखने की अनुमति दी जा सकती है।
मुख्य मुद्दे और प्रावधान (Key Issues and Provisions)
अदालत ने प्रशासनिक नीतियों, संवैधानिक अधिकारों और न्यायिक मिसालों (Judicial Precedents) के बीच संतुलन बनाने पर विचार किया।
इस फैसले में निम्नलिखित प्रमुख मुद्दों पर जोर दिया गया:
1. सरकारी आवास का उद्देश्य (Purpose of Government Accommodation)
सरकारी आवास का मुख्य उद्देश्य सेवा में कार्यरत अधिकारियों को उनके कर्तव्यों को सुचारू रूप से निभाने के लिए सुविधा प्रदान करना है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि सेवानिवृत्त अधिकारियों के लिए यह आवास नहीं है, भले ही वे आतंकवाद जैसे असाधारण परिस्थितियों के कारण विस्थापित हुए हों।
2. अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार-ए-आवास (Right to Shelter under Article 21)
अदालत ने अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार-ए-आवास (Right to Shelter) को मौलिक अधिकार माना, लेकिन यह स्पष्ट किया कि यह अधिकार किसी व्यक्ति को सरकारी आवास को अनिश्चितकाल तक बनाए रखने का हक नहीं देता। वैकल्पिक अस्थायी आवास (Transit Accommodation) या वित्तीय सहायता देना इस अधिकार को पूरा करने के लिए पर्याप्त है।
3. दया और राज्य की नीतियां (Compassion and State Policies)
विस्थापित व्यक्तियों के प्रति दया की भावना के बावजूद, अदालत ने यह माना कि ऐसी अपवादात्मक छूट (Exceptional Exceptions) प्रशासनिक नीतियों को कमजोर करती हैं और उन अधिकारियों को नुकसान पहुंचाती हैं जो सरकारी आवास के लिए योग्य हैं।
संदर्भित न्यायिक मिसालें (Judicial Precedents Considered)
अदालत ने अपने फैसले में कई ऐतिहासिक निर्णयों को आधार बनाया, जिनमें यह स्पष्ट किया गया कि सरकारी संसाधनों और अधिकार-ए-आवास के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए:
1. J.L. Koul बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य (2010)
यह मामला विस्थापित कश्मीरी प्रवासियों (Migrants) से संबंधित था। इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्वास योजनाओं (Rehabilitation Schemes) के लागू होने तक सरकारी आवास का कब्जा बनाए रखने की अनुमति दी थी। हालांकि, वर्तमान मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह निर्देश अनुच्छेद 142 के तहत दिए गए थे और इन्हें सामान्य नीति के रूप में नहीं माना जाना चाहिए।
2. S.D. Bandi बनाम कर्नाटक राज्य परिवहन निगम (2013)
इस मामले में, अदालत ने सरकारी आवासों के अनधिकृत कब्जे (Unauthorized Retention) की निंदा की और कहा कि इस तरह के कृत्य अन्य पात्र व्यक्तियों के अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
3. लोक प्रहरी मामले (2016, 2018)
इन मामलों में पूर्व मुख्यमंत्रियों (Ex-Chief Ministers) द्वारा सरकारी आवास के दुरुपयोग पर चर्चा की गई। अदालत ने नियमों को निरस्त कर दिया और कहा कि सरकारी संपत्ति का उपयोग सार्वजनिक हित में होना चाहिए।
4. ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम (1985)
इस ऐतिहासिक फैसले में, अधिकार-ए-आवास (Right to Shelter) को जीवन के अधिकार (Right to Life) का हिस्सा माना गया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यह अधिकार दूसरों की जरूरतों से ऊपर नहीं हो सकता।
अदालत के तर्क का विश्लेषण (Analysis of the Court's Rationale)
अदालत ने दो टूक कहा कि सरकारी आवास सीमित संसाधन हैं और इनका प्राथमिक उद्देश्य सेवा में कार्यरत अधिकारियों की जरूरतें पूरी करना है। अदालत ने विस्थापित व्यक्तियों की कठिनाइयों को स्वीकार किया, लेकिन यह कहा कि दया (Compassion) केवल सरकारी नीतियों (Policies) के दायरे में ही होनी चाहिए।
साथ ही, अदालत ने अनुच्छेद 142 के तहत दिए गए अपने आदेशों के संभावित दुरुपयोग (Misuse) पर भी चिंता व्यक्त की। अदालत ने सुझाव दिया कि ऐसे विशेष मामलों में दिए गए आदेशों को मिसाल (Precedents) के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए।
Union of India बनाम ओंकार नाथ धर में सुप्रीम कोर्ट का फैसला दया, प्रशासनिक दक्षता (Administrative Efficiency) और संवैधानिक सिद्धांतों (Constitutional Principles) के बीच संतुलन बनाए रखने का महत्वपूर्ण उदाहरण है।
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि अधिकार-ए-आवास (Right to Shelter) और सरकारी आवास के उद्देश्य के बीच सीमा रेखा कहां खींची जाए। अदालत ने यह सुनिश्चित किया कि न्यायपालिका व्यक्तिगत अधिकारों और प्रणाली की अखंडता (Systemic Integrity) दोनों की रक्षा करे।