क्या राज्यपाल की क्षमादान शक्ति पर कानूनी प्रतिबंध लागू हो सकते हैं?

Update: 2024-12-04 12:04 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा राज्य बनाम राज कुमार उर्फ बिट्टू मामले में संविधान और कानून के प्रावधानों के बीच संतुलन पर गहराई से चर्चा की।

इस फैसले में यह स्पष्ट किया गया कि राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 161 (Article 161) के तहत प्राप्त क्षमादान की शक्ति, जैसे माफी देना, दंड कम करना या सजा माफ करना, कानून द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों, जैसे दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure - CrPC) की धारा 433-A, से परे है।

राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियां (Governor's Constitutional Powers of Clemency)

अनुच्छेद 161 (Article 161) राज्यपाल को यह शक्ति प्रदान करता है कि वे अपराधियों को माफी, राहत, या सजा में कमी दे सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने मारू राम बनाम भारत संघ (Maru Ram v. Union of India) के ऐतिहासिक फैसले का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि यह संवैधानिक शक्ति कानूनी प्रावधानों से अलग और व्यापक होती है।

संविधान पीठ ने मारू राम मामले में कहा कि धारा 433-A जैसे कानून, जिसमें यह अनिवार्य है कि गंभीर अपराधों के दोषी (Convict) कम से कम 14 साल की सजा काटें, राज्यपाल की संवैधानिक शक्ति को सीमित नहीं कर सकते।

सजा में माफी और कटौती के लिए कानूनी प्रावधान (Statutory Provisions for Remission and Commutation)

CrPC की धारा 432 और 433 सरकार को सजा माफ करने और कम करने का अधिकार देती है। लेकिन धारा 433-A यह सुनिश्चित करती है कि जिन मामलों में दोषी को मृत्यु या आजीवन कारावास (Life Imprisonment) की सजा मिली हो, उन्हें कम से कम 14 साल की वास्तविक जेल (Actual Imprisonment) काटनी होगी। यह प्रावधान अपराध की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए न्यूनतम सजा सुनिश्चित करता है।

यूनियन ऑफ इंडिया बनाम वी. श्रीहरन (Union of India v. V. Sriharan) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि सजा माफी के लिए कानूनी और संवैधानिक शक्तियों में अंतर है। जबकि कानून के प्रावधान नियमित मामलों को नियंत्रित करते हैं, संवैधानिक शक्ति स्वतंत्र और अपरिभाषित रहती है।

समयपूर्व रिहाई के लिए नीतियों का पालन (Application of Policies for Premature Release)

इस फैसले में हरियाणा सरकार की विभिन्न समयपूर्व रिहाई (Premature Release) नीतियों का परीक्षण किया गया। अदालत ने कहा कि कानून के तहत बनाई गई नीतियां, जैसे 2008 की नीति, वैधानिक अधिकार रखती हैं लेकिन यह संवैधानिक शक्तियों से अधिक प्रभावशाली नहीं हो सकतीं।

हरियाणा राज्य बनाम जगदीश (State of Haryana v. Jagdish) में अदालत ने कहा कि सजा माफी के मामलों में वही नीति लागू होनी चाहिए जो दोषी के अपराधी सिद्ध (Conviction) होने के समय लागू थी।

राज्यपाल की शक्ति बनाम कानूनी शक्ति (Governor's Power vs. Statutory Power)

सुप्रीम कोर्ट ने पुनः स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल की शक्ति धारा 433-A के प्रतिबंधों से परे है। हालांकि, यह शक्ति राज्य सरकार की सलाह पर ही इस्तेमाल की जा सकती है। यह संरचना लचीलापन (Flexibility) और जवाबदेही (Accountability) सुनिश्चित करती है।

नौरट्टा सिंह बनाम हरियाणा राज्य (Nauratta Singh v. State of Haryana) में यह स्थापित किया गया कि धारा 433-A के तहत 14 साल की न्यूनतम सजा अनिवार्य है, लेकिन यह राज्यपाल की संवैधानिक शक्ति पर लागू नहीं होती।

इसी तरह एल. हजारी मल कुटियाला बनाम आयकर अधिकारी (L. Hazari Mal Kuthiala v. Income Tax Officer) में अदालत ने कहा कि किसी भी शक्ति की वैधता उसके स्रोत (Source) पर निर्भर करती है, न कि प्रक्रियात्मक त्रुटियों (Procedural Lapses) पर।

हरियाणा राज्य बनाम राज कुमार मामले में दिए गए निर्णय ने संवैधानिक शक्तियों की सर्वोच्चता (Primacy) को पुनः स्थापित किया।

अनुच्छेद 161 और CrPC की धारा 432-433-A के बीच सीमाओं को स्पष्ट करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Process) के साथ-साथ क्षमादान शक्ति (Clemency Power) के संतुलन को बनाए रखा जाए।

यह फैसला आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System) में समानता और संवैधानिक शक्ति के विवेकपूर्ण उपयोग (Prudent Use) के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल (Precedent) है।

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