क्या अविवाहित मां को पिता की पहचान बताए बिना अपने बच्चे की एकमात्र अभिभावक नियुक्त किया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट के ABC बनाम स्टेट (एनसीटी ऑफ दिल्ली) 2015 के फैसले में एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया कि क्या एक अविवाहित (Unwed) मां अपने बच्चे के पिता की पहचान बताए बिना अभिभावक (Guardian) नियुक्त हो सकती है।
यह मामला विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि पारंपरिक परिवारिक ढांचा (Family Structure) अक्सर माता-पिता के अधिकारों को प्राथमिकता देता है।
कोर्ट के इस फैसले ने एकल माताओं (Single Mothers) और अविवाहित जन्मे बच्चों (Children Born Out of Wedlock) के अधिकारों के लिए महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
कानूनी ढांचा और मुख्य प्रावधान (Legal Framework and Key Provisions)
इस केस को समझने के लिए गार्जियन और वॉर्ड्स एक्ट, 1890 (Guardians and Wards Act, 1890) केंद्रीय कानून है। इस एक्ट का सेक्शन 7 कोर्ट को एक बच्चे के कल्याण (Welfare) के लिए अभिभावक नियुक्त करने का अधिकार देता है, जिसमें माता-पिता के अधिकारों से ऊपर बच्चे की भलाई को प्राथमिकता दी जाती है।
साथ ही, सेक्शन 11 के अनुसार अभिभावक नियुक्त करने से पहले बच्चे के माता-पिता को सूचित करना आवश्यक है। सेक्शन 19 इस मामले को और जटिल बनाता है, जिसमें यह कहा गया है कि अगर पिता जीवित है और उसे अनुपयुक्त नहीं समझा गया है, तो कोर्ट अभिभावक नियुक्त नहीं कर सकता।
इस केस में, मां ने यह तर्क दिया कि उसके बच्चे की भलाई और उसकी अपनी गोपनीयता (Privacy) के अधिकार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। कोर्ट का यह फैसला दिखाता है कि अभिभावक कानून (Guardianship Law) में माता-पिता के अधिकारों, गोपनीयता, और बच्चे के कल्याण के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जा सकता है।
बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि मानना (Welfare of the Child as Paramount)
इस केस का एक आधारभूत तत्व "बच्चे का कल्याण" सिद्धांत (Principle) है। कोर्ट ने दोहराया कि अभिभावक मामलों में बच्चे की भलाई (Child's Welfare) को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
कोर्ट ने “परेंस पैट्री” (Parens Patriae) अधिकार का प्रयोग किया, जिसके तहत कोर्ट बच्चों के अभिभावक के रूप में उनकी सुरक्षा और भलाई सुनिश्चित करता है।
यहां, कोर्ट ने यह फैसला किया कि पिता की अनुपस्थिति या भूमिका न निभाना बच्चे के कल्याण को प्रभावित नहीं करता।
पूर्व के निर्णयों में, जैसे कि लक्ष्मी कांत पांडे बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में कोर्ट ने अभिभावक (Guardianship) के मामलों में जैविक (Biological) माता-पिता को शामिल करने की आवश्यकता को प्रतिबंधित कर दिया था।
इस केस में यह दिखाया गया है कि माता-पिता के अधिकारों से अधिक बच्चे की भलाई महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार, इस केस में यह बताया गया है कि अविवाहित मां ही अक्सर मुख्य देखभालकर्ता (Primary Caregiver) होती है, इसलिए अनावश्यक प्रक्रियाओं से बचते हुए उसकी भूमिका को मान्यता दी जानी चाहिए।
गोपनीयता और माता-पिता के अधिकार (Importance of Privacy and Parental Rights)
कोर्ट ने मां के गोपनीयता के अधिकार पर भी विचार किया। आवेदक ने तर्क दिया कि जब पिता ने कोई भूमिका नहीं निभाई है तो उसकी पहचान बताने से उसकी गोपनीयता और बच्चे के भविष्य पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
कोर्ट ने माना कि निजी मामलों में गोपनीयता (Privacy in Personal Matters) एक मौलिक अधिकार (Fundamental Right) है, और इस मामले में गोपनीयता को प्राथमिकता देना उचित है ताकि मां और बच्चे को सामाजिक और भावनात्मक जटिलताओं से बचाया जा सके।
गीता हरिहरन बनाम रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया में भी कोर्ट ने यह मान्यता दी थी कि पिता की अनुपस्थिति में मां बच्चे की अभिभावक बन सकती है। कोर्ट के इस निर्णय ने मां के गोपनीयता और अधिकारों को मान्यता दी, विशेष रूप से तब जब वह बच्चे के जीवन की अकेली जिम्मेदार (Solely Responsible) व्यक्ति हो।
संदर्भ में सेक्शन 11 का विश्लेषण (Analyzing Section 11 in Context)
इस केस में एक महत्वपूर्ण प्रश्न था कि क्या सेक्शन 11, जिसमें माता-पिता को सूचित करना आवश्यक है, लागू होता है? कोर्ट ने पाया कि सेक्शन 11 केवल एक प्रक्रियात्मक प्रावधान (Procedural Provision) है और इसे अनिवार्य मानना उचित नहीं होगा। कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि पिता को शामिल करना अनिवार्य नहीं है, विशेषकर तब जब यह बच्चे के हित में न हो।
अभिभावक कानूनों का तुलनात्मक विश्लेषण (Comparative Analysis of Guardianship Laws)
कोर्ट ने अन्य देशों के कानूनों का भी उल्लेख किया। कई न्याय प्रणालियों में अविवाहित माताओं को तब तक एकमात्र संरक्षक (Sole Custodian) माना गया है जब तक कि पिता सक्रिय रूप से शामिल होने की इच्छा न जताए।
इस तुलनात्मक दृष्टिकोण (Comparative Perspective) ने कोर्ट को गार्जियन और वॉर्ड्स एक्ट की ऐसी व्याख्या करने में सहायता की जो समकालीन वैश्विक प्रथाओं (Contemporary Global Practices) के अनुरूप हो और मां की भूमिका को प्राथमिकता दे।
बच्चे की पहचान और अधिकार की सुरक्षा (Protecting Child's Identity and Rights)
बच्चे के पास अपने माता-पिता की पहचान जानने का अधिकार (Right to Identity) भी है। कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ द चाइल्ड में, जिसे भारत ने स्वीकृत किया है, यह माना गया है कि बच्चे को अपने माता-पिता की पहचान जानने का अधिकार है।
हालांकि, कोर्ट ने यह अधिकार और इसके संभावित नकारात्मक प्रभाव के बीच संतुलन बनाने का प्रयास किया, और पाया कि इस विशेष मामले में पिता की पहचान का खुलासा करना अनिवार्य नहीं है।
लक्ष्मी कांत पांडे के फैसले की तरह, इस केस में भी कोर्ट ने यह प्राथमिकता दी कि अगर कोई प्रक्रिया बच्चे के हित में बाधा डाल रही हो, तो उसे लचीले तरीके से लागू किया जा सकता है।
भविष्य के लिए मार्गदर्शन और न्यायिक निर्देश (Future Implications and Judicial Guidance)
यह फैसला कोर्ट के लिए एक मार्गदर्शन का काम करता है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि कानून का उद्देश्य बच्चों के कल्याण का समर्थन करना होना चाहिए। इस फैसले ने एकल माताओं को बिना पिता की पहचान बताए भी कानूनी संरक्षक (Legal Guardian) बनने का अवसर दिया, जो बदलते सामाजिक परिवेश (Changing Social Context) में महत्वपूर्ण है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अविवाहित माताओं के अधिकारों और अविवाहित बच्चों के कल्याण के लिए एक मील का पत्थर है। इस फैसले ने पारंपरिक पारिवारिक नियमों को नए सिरे से देखा और इस बात पर जोर दिया कि बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि माना जाए।
यह फैसला अभिभावक कानूनों को समकालीन समाज के अनुरूप बनाने के लिए महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करता है। अविवाहित माताओं और उनके बच्चों के लिए, यह निर्णय एक समावेशी (Inclusive) कानूनी ढांचा स्थापित करता है, जो आधुनिक समाज में परिवार और व्यक्तिगत अधिकारों के जटिल समीकरणों को सम्मान देता है।