अजीत मोहन बनाम दिल्ली विधान सभा: सुप्रीम कोर्ट का फैसला और संवैधानिक विशेषाधिकारों की समीक्षा

Update: 2024-09-19 12:20 GMT

अजीत मोहन और अन्य बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधान सभा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दों पर विचार किया। यह मामला विशेष रूप से विधायी विशेषाधिकारों (Legislative Privileges), गोपनीयता के अधिकार (Right to Privacy), और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Speech) से संबंधित था।

यह मामला तब शुरू हुआ जब दिल्ली विधान सभा की शांति और सद्भाव समिति (Committee on Peace and Harmony) ने Facebook के भारत प्रमुख अजीत मोहन को 2020 के दिल्ली दंगों के दौरान फैली गलत सूचनाओं और नफरत फैलाने वाले भाषणों पर गवाही देने के लिए बुलाया।

यह मामला संसद के विशेषाधिकारों की सीमा और न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के दायरे पर सवाल उठाता है, विशेष रूप से अनुच्छेद 194 (राज्य विधानसभाओं के विशेषाधिकार) और अनुच्छेद 105 (संसद के विशेषाधिकार) के संदर्भ में।

मामले के तथ्य (Facts of the Case)

फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों ने बड़े पैमाने पर जान और माल का नुकसान किया। इसके जवाब में, दिल्ली विधान सभा ने शांति और सद्भाव समिति का गठन किया, जिसका उद्देश्य हिंसा के कारणों की जांच करना और शांति बनाए रखने के उपाय सुझाना था। समिति ने आरोप लगाया कि सोशल मीडिया प्लेटफार्मों, खासकर Facebook, का उपयोग नफरत फैलाने और गलत जानकारी फैलाने के लिए किया गया, जिससे हिंसा बढ़ी।

समिति ने Facebook के भारत प्रमुख अजीत मोहन को एक गवाह के रूप में पेश होने और Facebook की आंतरिक नीतियों के बारे में जानकारी देने के लिए समन (Summon) भेजा। Facebook ने इस समन को चुनौती दी और कहा कि दिल्ली विधान सभा को ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को नियंत्रित करना केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है।

याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि समिति के सामने पेश होना उनके गोपनीयता के अधिकार (Article 21) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Article 19(1)(a)) का उल्लंघन होगा।

संविधान से जुड़े प्रमुख प्रावधान (Key Constitutional Provisions Involved)

1. अनुच्छेद 105 – संसद के विशेषाधिकार (Powers and Privileges of Parliament)

अनुच्छेद 105 संसद के सदस्यों को उनके विधायी कार्यों को बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के करने का अधिकार देता है। इसमें संसद की कार्यवाही के दौरान स्वतंत्र रूप से भाषण देने का अधिकार और उनके कार्यों की न्यायिक समीक्षा से छूट शामिल है।

2. अनुच्छेद 194 – राज्य विधानसभाओं के विशेषाधिकार (Powers and Privileges of State Legislatures)

अनुच्छेद 194, अनुच्छेद 105 के समान है, लेकिन यह राज्य विधानसभाओं पर लागू होता है। इस मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या अनुच्छेद 194 के तहत दिल्ली विधान सभा को यह अधिकार है कि वह अजीत मोहन जैसे निजी व्यक्तियों को समन कर सके, खासकर तब जब मामला उसके विधायी अधिकार क्षेत्र से बाहर हो।

3. अनुच्छेद 32 – मौलिक अधिकारों के संरक्षण का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)

याचिकाकर्ताओं ने अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसमें उन्होंने अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा की मांग की, विशेष रूप से गोपनीयता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों के संदर्भ में।

4. अनुच्छेद 19(1)(a) – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Speech and Expression)

याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि समिति के सामने पेश होना उनके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा, क्योंकि उनकी दी गई कोई भी जानकारी उनके खिलाफ इस्तेमाल की जा सकती है, जिससे उनके सार्वजनिक मंचों पर स्वतंत्रता से राय व्यक्त करने की क्षमता सीमित हो जाएगी।

5. अनुच्छेद 21 – गोपनीयता का अधिकार (Right to Privacy)

याचिकाकर्ताओं ने गोपनीयता के अधिकार का हवाला देते हुए कहा कि Facebook की आंतरिक नीतियों और कार्यप्रणाली गोपनीय हैं, और उन्हें उजागर करना उनके गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन होगा।

याचिकाकर्ताओं के तर्क (Arguments by the Petitioners)

याचिकाकर्ताओं ने कई मुख्य तर्क पेश किए:

1. दिल्ली विधानसभा की विधायी क्षमता (Legislative Competence of the Delhi Assembly)

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि दिल्ली विधान सभा को Facebook के दंगों में भूमिका की जांच करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का नियंत्रण और दिल्ली में कानून व्यवस्था केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।

2. मौलिक अधिकारों का उल्लंघन (Breach of Fundamental Rights)

याचिकाकर्ताओं ने कहा कि इस समन से उनके गोपनीयता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों का उल्लंघन होता है। उन्होंने तर्क दिया कि Facebook से उसकी आंतरिक सामग्री मॉडरेशन नीतियों का खुलासा करना मौलिक अधिकारों का हनन है, विशेषकर अनुच्छेद 19 और 21 के तहत।

3. विधायी उद्देश्य का अभाव (No Legislative Purpose)

याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि समिति के समन का कोई विधायी उद्देश्य नहीं था। उन्होंने कहा कि विधायी विशेषाधिकार (Legislative Privileges) केवल उस काम तक सीमित हैं जो सीधे सदन के विधायी कार्यों से जुड़ा हो, और निजी संस्थाओं को इस तरह की गैर-विधायी जांच के लिए बुलाया नहीं जा सकता।

उत्तरदाताओं के तर्क (Arguments by the Respondents)

1. सार्वजनिक हित और जवाबदेही (Public Interest and Accountability)

दिल्ली विधानसभा का तर्क था कि Facebook जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का समाज पर गहरा प्रभाव है, और इन प्लेटफार्मों की यह जिम्मेदारी है कि वे नफरत फैलाने या गलत सूचना फैलाने के लिए अपने मंच का उपयोग न होने दें।

2. सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism)

उत्तरदाताओं ने कहा कि यह जांच सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) के सिद्धांतों के अनुसार थी। उन्होंने कहा कि भले ही सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का नियमन केंद्र के अधीन हो, लेकिन दिल्ली विधान सभा को राज्य की शांति और सद्भाव पर प्रभाव डालने वाले मुद्दों पर जांच का अधिकार है।

3. मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं (No Violation of Fundamental Rights)

उत्तरदाताओं ने याचिकाकर्ताओं के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के दावे को खारिज किया। उन्होंने कहा कि Facebook को गवाही देने के लिए बुलाने का मतलब उनके अधिकारों का उल्लंघन नहीं है, बल्कि यह समिति की जांच प्रक्रिया का हिस्सा है।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (Supreme Court's Judgment)

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एक संतुलित निर्णय दिया। अदालत ने कहा:

1. विधायी विशेषाधिकारों की सीमा (Limits of Legislative Privileges)

कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 105 और 194 के तहत विधायी विशेषाधिकार (Legislative Privileges) सीमित हैं और इन्हें संविधान की रूपरेखा के भीतर इस्तेमाल करना चाहिए। चूंकि दिल्ली विधान सभा को सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के नियमन का अधिकार नहीं था, इसलिए समिति का अजीत मोहन को समन करना गलत था।

2. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और गोपनीयता का अधिकार (Right to Free Speech and Privacy)

कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और गोपनीयता के अधिकार को मान्यता दी। अदालत ने माना कि Facebook को अपनी आंतरिक नीतियों का खुलासा करने के लिए मजबूर करना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है, खासकर जब विधान सभा के पास इस पर कार्रवाई करने का अधिकार न हो।

3. समितियों की भूमिका

जबकि न्यायालय ने शांति और सद्भाव बनाए रखने में विधायी समितियों के महत्व को स्वीकार किया, उसने इस बात पर जोर दिया कि उनकी शक्तियों का प्रयोग कानून की सीमाओं के भीतर किया जाना चाहिए। समितियाँ अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर के मामलों की जाँच करने के लिए व्यक्तियों या संस्थाओं को नहीं बुला सकतीं।

अजीत मोहन बनाम दिल्ली विधान सभा में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय विधायी विशेषाधिकारों के दायरे और मौलिक अधिकारों के संरक्षण पर एक महत्वपूर्ण निर्णय है। न्यायालय के निर्णय ने संसदीय विशेषाधिकारों और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन को बनाए रखा, यह सुनिश्चित करते हुए कि विधायिकाएँ अपनी संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन न करें।

यह मामला एक महत्वपूर्ण अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है कि विधायी शक्तियों का प्रयोग संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर किया जाना चाहिए, विशेष रूप से एक संघीय ढांचे में जहाँ संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण महत्वपूर्ण है।

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