O. 23 R.1A CPC | प्रतिवादियों को कानून के महत्वपूर्ण प्रश्न या मुकदमे के परित्याग के बिना वादी के रूप में ट्रांसफर नहीं किया जा सकता: झारखंड हाईकोर्ट
झारखंड हाईकोर्ट ने सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के आदेश XXIII नियम 1ए के आवेदन को स्पष्ट किया, जिसमें पुष्टि की गई है कि प्रतिवादियों को केवल दो विशिष्ट स्थितियों में वादी के रूप में स्थानांतरित किया जा सकता है पहला, जब वादी ने मुकदमा वापस ले लिया हो या छोड़ दिया हो। दूसरा, जब प्रतिवादी के पास किसी अन्य प्रतिवादी के खिलाफ तय किए जाने वाला कानून का महत्वपूर्ण प्रश्न हो।
जस्टिस सुभाष चंद ने एकल पीठ के फैसले में दोहराया,
"सीपीसी के आदेश XXIII नियम 1ए के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए यह स्पष्ट है कि प्रतिवादी केवल परिस्थितियों में ही किसी मुकदमे में वादी के रूप में स्थानांतरित हो सकते हैं; पहला जब वादी ने मुकदमा वापस ले लिया हो या मुकदमा छोड़ दिया हो। दूसरा, जब प्रतिवादी के पास किसी अन्य प्रतिवादी के खिलाफ निर्णय लेने के लिए कानून का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न हो।"
सीपीसी के आदेश XXIII नियम 1ए का प्रावधान इस प्रकार है:
"1-ए. प्रतिवादियों को वादी के रूप में ट्रांसफर करने की अनुमति कब दी जा सकती है- जहां नियम 1 के तहत वादी द्वारा मुकदमा वापस ले लिया जाता है या छोड़ दिया जाता है और प्रतिवादी आदेश I के नियम 10 के तहत वादी के रूप में स्थानांतरित होने के लिए आवेदन करता है तो न्यायालय ऐसे आवेदन पर विचार करते समय इस प्रश्न पर उचित ध्यान देगा कि क्या आवेदक के पास किसी अन्य प्रतिवादी के खिलाफ निर्णय लेने के लिए कोई महत्वपूर्ण प्रश्न है।"
यह निर्णय मूल मुकदमे में रांची के सिविल जज (वरिष्ठ प्रभाग)-XI के आदेश को चुनौती देने वाली एक सिविल विविध याचिका के जवाब में आया। वादी द्वारा पुराने आदेश को वापस लेने के लिए याचिका दायर की गई, जिसे खारिज कर दिया गया।
याचिकाकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि वादी ने मूल रूप से तीन सह-हिस्सेदारों के खिलाफ विभाजन के लिए मुकदमा दायर किया, जिसमें रांची के डिप्टी कमिश्नर प्रतिवादी के रूप में शामिल थे। मुकदमे के लंबित रहने के दौरान प्रतिवादी नंबर 1 (वादी की मां) और प्रतिवादी नंबर 2 और 3 का निधन हो गया, लेकिन कोई प्रतिस्थापन नहीं मांगा गया, क्योंकि सभी कानूनी उत्तराधिकारी पहले से ही रिकॉर्ड पर थे।
प्रतिवादी नंबर 2 और 3, तेज लाल भगत और धर्मेश कुमार भगत ने मूल मुकदमे में खुद को वादी के रूप में ट्रांसफर करने के लिए सीपीसी के आदेश I नियम 10 के तहत आवेदन किया। ट्रायल कोर्ट ने उनका आवेदन स्वीकार किया, जिसे बाद में वादी ने इस आधार पर चुनौती दी कि इस तरह का स्थानांतरण अस्वीकार्य था। ट्रायल कोर्ट ने वादी के आवेदन को खारिज किया, जिसके बाद याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
वैकल्पिक रूप से विरोधी पक्षों की ओर से पेश वकील ने दलील दी कि ट्रांसपोजिशन की अनुमति देने का ट्रायल कोर्ट का फैसला त्रुटिहीन था, उन्होंने तर्क दिया कि प्रतिवादियों ने संयुक्त रूप से स्वामित्व वाली और कब्जे वाली संपत्ति में अपने-अपने हिस्से को अलग करने की मांग की, जिसने ट्रांसपोजिशन को उचित ठहराया।
हाईकोर्ट ने कहा,
“मामले में विभाजन के लिए मुकदमा दायर करने वाले वादी ने न तो मुकदमा वापस लिया और न ही उसे छोड़ दिया। प्रतिवादियों ने अपने आवेदन में किसी अन्य प्रतिवादी के खिलाफ न्याय करने के लिए कानून का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं दिखाया। विचाराधीन मुकदमे में दोनों प्रतिवादियों ने वादी के रूप में ट्रांसपोजिशन की मांग की। मुकदमे में डिप्टी कमिश्नर रांची को छोड़कर कोई अन्य प्रतिवादी नहीं बचा है जो मुकदमे में औपचारिक पक्ष है। ट्रायल कोर्ट ने बिना कोई कारण दर्ज किए ट्रांसपोजिशन के लिए आवेदन स्वीकार कर लिया, जो सी.पी.सी. के आदेश XXIII नियम 1A की भावना के अनुसार नहीं पाया जाता। कारण यह है कि वादी ने संयुक्त स्वामित्व और कब्जे की संपत्ति में अपने हिस्से की घोषणा करते हुए विभाजन के लिए मुकदमा दायर किया। साथ ही अपने हिस्से के 1/3 हिस्से पर अलग से कब्जा करने का दावा किया, जिसका उसने दावा किया।”
कोर्ट ने आगे स्पष्ट किया कि यदि प्रतिवादी अपने 1/3 हिस्से पर अलग से कब्जा चाहते हैं तो उन्हें इस राहत का दावा करने के लिए अपने लिखित बयानों में संशोधन की मांग करनी चाहिए। साथ ही आवश्यक न्यायालय शुल्क भी देना चाहिए।
हाईकोर्ट ने सिविल विविध याचिका स्वीकार किया और ट्रायल कोर्ट के विवादित आदेश रद्द कर दिया।
केस टाइटल: संजीव भगत बनाम तेज लाल भगत और अन्य