नैतिक अधमता मामले में संदेह के लाभ के कारण बरी होने पर सशस्त्र बलों में नियुक्ति पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं: पंजाब एंड हरियाणा हाइकोर्ट
पंजाब एंड हरियाणा ने यह स्पष्ट किया कि नैतिक अधमता के मामलों में संदेह का लाभ के आधार पर बरी होना सशस्त्र बलों में नियुक्ति के लिए पूर्ण बाधा नहीं।
याचिकाकर्ता को अनुकंपा के आधार पर भारतऔर तिब्बत सीमा पुलिस बल (ITBP) में कांस्टेबल के रूप में नियुक्त किया गया था। उसका नियुक्ति पत्र रद्द कर दिया गया, क्योंकि उसने खुलासा किया कि उसे POCSO मामले में आरोपी बनाया गया, जिसमें वह बरी हो गया।
2012 में गृह मंत्रालय (एमएचए) द्वारा जारी निर्देशों की जांच करने के बाद याचिकाकर्ता का नियुक्ति पत्र रद्द कर दिया गया।
जस्टिस जगमोहन बंसल ने कहा,
"निर्देशों के अनुसार यदि बरी किया जाता है तो जो उम्मीदवार अपराध में आरोपी है, नैतिक अधमता के कारण सशस्त्र बलों में नियुक्त किया जा सकता है, या नहीं किया जा सकता। निर्देशों में अभिव्यक्ति "आम तौर पर" का उपयोग किया गया, जो दर्शाता है कि नियुक्ति पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है, जहां संदेह के लाभ के आधार पर बरी किया जाता है। ऐसे मामलों में सक्षम प्राधिकारी उम्मीदवार के मामले पर विचार कर सकता है।"
ये टिप्पणियां दीपक कुमार द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए की गईं, जिसमें उस आदेश को रद्द करने की मांग की गई, जिसके तहत प्रतिवादी अधिकारियों ने उनका नियुक्ति पत्र रद्द कर दिया गया।
याचिकाकर्ता के पिता 1989 में कांस्टेबल के रूप में ITBP में शामिल हुए। 1996 में ड्यूटी के दौरान उनका निधन हो गया। याचिकाकर्ता ने 2012 में अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति की मांग करते हुए आवेदन दायर किया, जिसे बाद में स्वीकार कर लिया गया और 2022 में नियुक्ति पत्र जारी किया गया।
नियुक्ति पत्र के अनुसार याचिकाकर्ता 2022 में सक्षम प्राधिकारी के सामने पेश हुआ और खुलासा किया कि उसे आपराधिक अपराध में आरोपी बनाया था। हालांकि, बाद में उसे बरी कर दिया गया।
यह बताया गया कि याचिकाकर्ता का नियुक्ति पत्र इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि उसे गृह मंत्रालय द्वारा जारी दिनांक 01-02-2012 के निर्देशों के संदर्भ में संदेह का लाभ देकर आपराधिक मामले में बरी कर दिया गया। उन्हें बल में बरकरार नहीं रखा जा सका।
दलीलों पर विचार करते हुए अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता को POCSO Act की धारा 4 के तहत दंडनीय अपराध में फंसाया गया।
यह पाया गया कि ट्रायल कोर्ट ने बरी करने का फैसला सुनाते समय विशेष रूप से पीड़िता की उम्र के सवाल पर विचार किया और यह निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि कथित घटना के समय पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम थी, जिससे उसे बरी कर दिया गया।
इसमें आगे कहा गया कि ट्रायल कोर्ट ने आगे कहा कि अपने बयान में पीड़िता और उसकी मां दोनों ने अभियोजन मामले का समर्थन नहीं किया था।
अदालत ने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित निम्नलिखित सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत किया:
यदि उचित संदेह का लाभ देते हुए नैतिक अधमता से जुड़े मामले में पहले ही बरी कर दिया गया तो नियोक्ता पूर्ववृत्त के संबंध में उपलब्ध सभी प्रासंगिक तथ्यों पर विचार कर सकता है। कर्मचारी की निरंतरता के संबंध में उचित निर्णय ले सकता है।
दूसरा, ऐसे मामले में, जहां कर्मचारी ने किसी समाप्त हुए आपराधिक मामले की सच्चाई से घोषणा की, नियोक्ता को अभी भी पूर्ववृत्त पर विचार करने का अधिकार है। उसे उम्मीदवार को नियुक्त करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
तीसरा, इसमें कहा गया कि ऐसे मामलों में, जहां नियुक्ति की मांग कानून प्रवर्तन एजेंसी से संबंधित है, वहां लागू किए जाने वाले मानदंड नियमित रिक्ति पर लागू होने वाले मानदंडों की तुलना में अधिक कठोर होने चाहिए।
इसके अलावा यह कहते हुए कि याचिकाकर्ता ने स्वेच्छा से और सच्चाई से अपने समाप्त आपराधिक मामले के तथ्य का खुलासा किया। अदालत ने कहा याचिकाकर्ता की ओर से कोई छिपाव नहीं है।
जस्टिस बंसल ने आगे कहा कि प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता के पूर्ववृत्त की जांच नहीं की और उसका नियुक्ति पत्र केवल इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि उसे संदेह के लाभ पर बरी कर दिया गया।
यह पाया गया कि प्रतिवादी ने कथित अपराध की प्रकृति याचिकाकर्ता की उम्र और कथित अपराध के समय अभियोजक की उम्र पर विचार नहीं किया गया।
भाग सिंह बनाम पंजाब एंड सिंध बैंक बलदेव सिंह, 2005 और जोगिंदर सिंह बनाम केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ 2015 पर भरोसा करते हुए अदालत ने कहा,
"याचिकाकर्ता और प्रतिवादी को बरी कर दिया गया। वहीं जारी रखने के लिए बाध्य नहीं है। याचिकाकर्ता सेवा में है। फिर भी सार्वजनिक प्राधिकारी होने के नाते याचिकाकर्ता के मामले की पूरी तरह से जांच करने के लिए बाध्य है।"
उपरोक्त के आलोक में याचिका स्वीकार कर ली गई और आक्षेपित आदेश रद्द कर दिया गया, जिसमें उत्तरदाताओं को 4 सप्ताह के भीतर नियुक्ति के लिए याचिकाकर्ता के मामले पर विचार करने का निर्देश दिया गया।
प्रतिनिधित्व वकील- संजीव कुमार अग्रवाल और ओजस बंसल।
याचिकाकर्ता के लिए- इंद्रेश गोयल ।
साइटेशन- लाइव लॉ (पीएच) 15 2024
केस-दीपक कुमार बनाम भारत संघ और अन्य।