दिल्ली हाईकोर्ट ने गैर-सहमति वाले समलैंगिक अपराधों को BNS से बाहर करने पर केंद्र से जवाब मांगा
दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार के वकील से कहा कि वह गैर-सहमति वाले समलैंगिक अपराधों से निपटने वाले अपराधों को नए अधिनियमित भारतीय न्याय संहिता (BNS) से बाहर करने के बारे में सरकार के रुख के बारे में निर्देश मांगे, जो अब निरस्त भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत दंडनीय थे।
एक्टिंग चीफ जस्टिस मनमोहन और जस्टिस तुषार गेडेला की खंडपीठ ने आश्चर्य जताया कि अगर इसे कानून से हटा दिया जाता है तो क्या यह कृत्य अभी भी अपराध रहेगा।
जस्टिस गेडेला ने मौखिक रूप से टिप्पणी की,
"अगर यह नहीं है तो क्या यह अपराध है? अगर चाकू से वार करना हत्या नहीं है तो हत्या के अपवादों का सवाल ही कहां उठता है?"
याचिकाकर्ता ने आग्रह किया कि या तो सरकार गैर-सहमति वाले शारीरिक संबंध को अपराध बनाने वाले प्रासंगिक प्रावधान को बहाल करे/उल्लेखित करे या बलात्कार के प्रावधानों को लिंग-तटस्थ तरीके से पढ़ा जाए।
केंद्र के वकील ने प्रस्तुत किया कि अगर यह मान भी लिया जाए कि कोई विसंगति है तो भी न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकते या विधायिका को प्रावधान लागू करने का निर्देश नहीं दे सकते।
उन्होंने कहा,
"यह अधिनियम का नया अवतार नहीं है, यह नया अधिनियम है। अदालतें कितना हस्तक्षेप कर सकती हैं, यह देखने वाली बात है।"
साथ ही सुझाव दिया कि उन्हें पहले निर्देश लेने के लिए समय दिया जा सकता है।
इसके बाद याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यदि किसी पुरुष का किसी अन्य पुरुष द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता है तो कोई कानूनी सहारा नहीं है।
उन्होंने मामले में अंतरिम निर्देश मांगते हुए कहा,
"कोई एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती।
हालांकि पीठ ने मौखिक रूप से कहा,
"यदि कोई अपराध नहीं है यदि उसे मिटा दिया गया है तो यह अपराध नहीं है यदि अप्राकृतिक यौन संबंध प्रदान नहीं किया गया। हम नहीं कर सकते देखते हैं कि यह उन पर निर्भर करता है कि वे इसे अपराध बनाना चाहते हैं या नहीं।"
उन्होंने आगे बताया कि पीड़ित व्यक्ति हमेशा शारीरिक नुकसान को अपराध बनाने वाले प्रावधानों का हवाला दे सकता है।
केंद्र के वकील ने अदालत को यह भी बताया कि याचिका में उठाए गए मुद्दे को उठाने वाला प्रतिनिधित्व पहले से ही संबंधित मंत्रालय के समक्ष लंबित है। सुझाव दिया कि जनहित याचिका का भी प्रतिनिधित्व के रूप में निपटारा किया जा सकता है।
हालांकि पीठ ने अनुरोध अस्वीकार करते हुए कहा कि याचिका में LGBTQ समुदाय के खिलाफ हिंसा से संबंधित मुद्दे भी उठाए गए हैं।
पीठ ने कहा,
"निर्देशों के साथ वापस आएं और मामले को 28 अगस्त के लिए स्थगित कर दिया।'
आईपीसी की धारा 377 प्रकृति के विरुद्ध किसी भी पुरुष, महिला या पशु के साथ बिना सहमति के शारीरिक संबंध बनाने को अपराध मानती है, यानी अप्राकृतिक अपराध'। इस प्रावधान को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) के साथ BNS में पूरी तरह से बदल दिया गया, जो 01 जुलाई से लागू हुआ।
पिछले साल दिसंबर में गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने BNS में IPC की धारा 377 को शामिल करने की मांग की थी। अपनी सिफारिशों में समिति ने कहा था कि भले ही सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित प्रावधान को खारिज कर दिया हो लेकिन वयस्कों के साथ गैर-सहमति वाले शारीरिक संबंध, नाबालिगों के साथ शारीरिक संबंध के सभी कृत्यों और पशुता के कृत्यों के मामलों में आईपीसी की धारा 377 लागू रहेगी।
हालांकि,उन्होने यह भी कहा कि भारतीय न्याय संहिता, 2023 में पुरुष, महिला, ट्रांसजेंडर के खिलाफ गैर-सहमति वाले यौन अपराध और पशुता के लिए कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए इसने सुझाव दिया कि BNS में बताए गए उद्देश्यों के साथ संरेखित करने के लिए, जो लिंग-तटस्थ अपराधों की दिशा में कदम को उजागर करता है, आईपीसी की धारा 377 को फिर से लागू करना और बनाए रखना अनिवार्य है।