अलग-अलग तलाक याचिकाओं को आपसी सहमति से तलाक में नहीं बदला जा सकता : दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने अहम फैसले में कहा कि पति और पत्नी द्वारा स्वतंत्र रूप से दायर की गई तलाक की याचिकाओं को हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13B के तहत आपसी सहमति से तलाक की याचिका नहीं माना जा सकता।
जस्टिस अनिल क्षेत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने कहा कि धारा 13B की बुनियादी शर्त है कि विवाह विच्छेद के लिए दोनों पक्षों के बीच पहले से एक स्पष्ट और साझा सहमति होनी चाहिए। यदि ऐसा पूर्व सहमति का आधार मौजूद न हो तो बाद में दायर समानांतर याचिकाओं को आपसी सहमति की याचिका के रूप में पुनर्परिभाषित नहीं किया जा सकता।
खंडपीठ ने कहा,
“सिर्फ यह तथ्य कि दोनों पति-पत्नी ने अलग-अलग तलाक की अर्जी दाखिल की, इसे आपसी सहमति से तलाक नहीं माना जा सकता। साथ में और आपसी सहमति जैसे शब्दों को केवल औपचारिकता समझना कानून की मूल भावना के विपरीत है।”
यह फैसला उस अपील पर आया, जिसमें पत्नी ने फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी। फैमिली कोर्ट ने पति-पत्नी द्वारा अलग-अलग आधारों पर दायर तलाक की याचिकाओं को स्वतः ही आपसी सहमति से तलाक मानते हुए विवाह को समाप्त कर दिया। पत्नी ने पति पर क्रूरता के साथ-साथ व्यभिचार का भी आरोप लगाया।
हाईकोर्ट ने पत्नी की अपील स्वीकार कर फैमिली कोर्ट का आदेश रद्द कर दिया और दोनों तलाक याचिकाओं को दोबारा सुनवाई के लिए बहाल कर दिया।
अदालत ने स्पष्ट किया कि धारा 13B के तहत अदालत तभी अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकती है, जब दोनों पति-पत्नी स्वेच्छा से साफ और बगैर किसी शर्त के विवाह समाप्त करने पर सहमत हों। केवल अलग-अलग तलाक याचिकाएं दाखिल कर देने से 'आपसी सहमति' का तत्व सिद्ध नहीं होता।
खंडपीठ ने कहा कि फैमिली कोर्ट का इस तरह का कदम कानूनन अस्थिर और अवैध है।