वादीगण द्वारा दुर्भावनापूर्ण कारणों से विवाद बनाए रखना न्यायालयों के बोझ को भारी बनाने की प्रवृत्ति: दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि वादीगण द्वारा दुर्भावनापूर्ण कारणों से विवाद को जीवित रखना न्यायालयों के बोझ को भारी बनाने की प्रवृत्ति है, जिससे अन्य वादीगणों को नुकसान होता है जिनके मामले वर्षों से लंबित हैं।
जस्टिस अमित महाजन ने 2016 में व्यक्ति के खिलाफ निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 के तहत दायर दो शिकायतों को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की।
व्यक्ति ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी, जिसमें मुकदमे को आगे बढ़ाने का निर्देश दिया गया कि पक्षकारों के बीच किए गए समझौते की सत्यता मुकदमे के दौरान देखी जाएगी।
उनका कहना है कि पक्षों ने मध्यस्थता केंद्र के समक्ष अपने विवादों का निपटारा कर लिया। और समझौते के अनुसार उन्होंने शिकायतकर्ता को सहमत राशि का भुगतान भी कर दिया।
अदालत ने दलीलों को स्वीकार करते हुए कहा कि मध्यस्थता रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि शिकायतकर्ता ने एनआई अधिनियम (NI Act) की धारा 138 के तहत दायर दो शिकायतों का सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटारा किया।
इसने आगे कहा कि शिकायतकर्ता ने शिकायतों को वापस लेने और ट्रायल कोर्ट के समक्ष आवश्यक बयान देने पर भी सहमति जताई थी। यह बयान उसने अपनी मर्जी से और बिना किसी बल दबाव या जबरदस्ती के दिया था।
अदालत ने कहा,
"एक बार जब यह स्वीकार कर लिया जाता है कि पक्षों द्वारा समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। समझौते के अनुसार, भुगतान याचिकाकर्ता द्वारा पहले ही किया जा चुका है तो प्रतिवादी नंबर 2 को इस तरह के तर्क देकर बचने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।"
इसने आगे कहा कि शिकायतकर्ता समझौते के अनुसार प्राप्त राशि को अपने पास रखने के बाद विवाद को फिर से भड़काने की कोशिश कर रहा था। इस तरह की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए।
शिकायतों को खारिज करते हुए अदालत ने शिकायतकर्ता को याचिकाकर्ता को लागत के रूप में 50,000 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया।
केस टाइटल- अशोक कुमार बनाम राज्य एवं अन्य।