फैसले के बाद भी मदद मांग सकते हैं जज, फैसला सुनाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता: दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2025-10-23 09:31 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि एक न्यायिक अधिकारी को किसी मुद्दे पर पर्याप्त स्पष्टता या आवश्यक सहायता के बिना फैसला सुनाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।

जस्टिस अरुण मोंगा ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर ज़ोर देते हुए कहा कि यदि कोई जज महसूस करता है कि रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर फैसला सुनाया जाना संभव नहीं है और कुछ स्पष्टीकरणों के लिए आगे मदद की आवश्यकता है तो यह मामला सुनवाई के लिए फिर से खोलने का बन जाता है।

कोर्ट ने कहा,

"केवल इसलिए कि पीठासीन अधिकारी ने पहले फैसला सुरक्षित रख लिया था, अब उन्हें इसे सुनाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता भले ही उन्हें लगे कि मामले में उन्हें और सहायता की आवश्यकता है।"

जस्टिस मोंगा एक व्यक्ति द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, जिसमें हत्या और शस्त्र अधिनियम (Arms Act) से संबंधित उसके मामले को एक एडिशनल सेशन जज से दूसरे जज के पास स्थानांतरित करने की मांग की गई थी ताकि फैसला सुनाया जा सके।

बता दें, यह FIR 2008 में दर्ज की गई थी, जिसमें IPC की धारा 302, 174A, 120B और 34 तथा शस्त्र अधिनियम की धारा 25 और 27 के तहत अपराध शामिल थे।

कोर्ट ने याचिका का निपटारा करते हुए पाया कि 31 मई को पीठासीन जज का स्थानांतरण पटियाला हाउस कोर्ट से कड़कड़डूमा कोर्ट हो गया था। उन्होंने शुरू में अंतिम फैसला सुनाने के लिए केस फाइल अपने साथ ले ली थी। हालांकि, कड़कड़डूमा कोर्ट में कई तारीखों पर सुनवाई हुई, लेकिन कोई फैसला नहीं सुनाया गया और मामला बार-बार स्थगित होता रहा।

इसके बाद फाइल को वापस पटियाला हाउस कोर्ट (स्थानांतरित अदालत) में भेज दिया गया। जज द्वारा फैसला न सुना पाने का कारण स्पष्ट बताया गया था: शामिल मुद्दों की संख्या, भारी संख्या में गवाह, और अतिरिक्त लोक अभियोजक (APP) तथा जांच अधिकारी (IO) की उपस्थिति की आवश्यकता।

ट्रांसफ़र किए गए जज के समक्ष प्राथमिकता से सुनवाई का निर्देश

कोर्ट ने याचिकाकर्ता को राहत देने से इनकार करते हुए कहा कि मामले में कोई हस्तक्षेप आवश्यक नहीं है। इसे ट्रांसफ़री जज (जिसके पास केस गया है) के समक्ष सूचीबद्ध किया जाना चाहिए जो कानून के अनुसार आगे बढ़ेंगे।

कोर्ट ने अंत में जोड़ा,

"चूंकि ट्रायल समाप्त हो चुका है और फैसला एक चरण पर सुरक्षित रखा गया तथा दो महीने तक लंबित रहा, इसलिए यह उचित होगा कि ट्रांसफ़री जज प्राथमिकता के आधार पर इस मामले को लें और जितनी जल्दी हो सके इसका निपटारा करें।"

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