दिल्ली हाईकोर्ट का बड़ा फैसला: आयु निर्धारण का वरीयता वाला दस्तावेज़ 'ईश्वरीय सत्य' नहीं, अगर उसकी सामग्री अविश्वसनीय हो
दिल्ली हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि किशोर न्याय अधिनियम (Juvenile Justice Act - JJ Act) के तहत किसी पीड़िता की आयु निर्धारित करने के लिए जिन दस्तावेज़ों को वरीयता क्रम में ऊपर रखा जाता है, उन्हें तब ईश्वरीय सत्य नहीं माना जा सकता, जब उनकी सामग्री अस्थिर संदिग्ध या झूठी साबित होती हो।
जस्टिस विवेक चौधरी और जस्टिस मनोज जैन की खंडपीठ ने कहा,
"कोई पूर्ण नियम नहीं है कि जेजे अधिनियम के तहत बच्चे की उम्र निर्धारित करने के लिए उच्च वरीयता वाले दस्तावेज़ को ईश्वरीय सत्य' माना जाए भले ही वह कुछ हद तक अस्थिर, संदिग्ध या अविश्वसनीय पाया गया हो।"
कोर्ट ने आगे कहा,
"यदि उच्च वरीयता वाले दस्तावेज़ की सामग्री झूठी पाई जाती है तो अदालत कारणों को दर्ज करते हुए उसे ख़ारिज कर सकती है।"
कोर्ट एक ऐसे व्यक्ति की अपील पर सुनवाई कर रहा था जिसे आईपीसी और पॉक्सो अधिनियम (POCSO Act) के तहत एक 14 वर्षीय नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार का दोषी ठहराया गया था और आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी।
दोषी ने तर्क दिया कि नाबालिग की जन्मतिथि का कोई सटीक प्रमाण नहीं था। उसका पक्ष था कि चूंकि ट्रायल कोर्ट ने स्कूल रिकॉर्ड को अविश्वसनीय माना था इसलिए केवल माता-पिता के मौखिक बयानों के आधार पर उसकी आयु 14 वर्ष नहीं मानी जा सकती।
दोषी के वकील ने यह भी प्रस्तुत किया कि हड्डी आयु अस्थिकरण परीक्षण की रिपोर्ट में पीड़िता की उम्र 17-18 वर्ष बताई गई थी और इस पर ट्रायल कोर्ट ने उचित ध्यान नहीं दिया। यह भी तर्क दिया गया कि अस्थिकरण रिपोर्ट में संदर्भ सीमा में दी गई ऊपरी आयु पर विचार करते समय, आगे दो वर्ष की त्रुटि का मार्जिन भी लागू किया जाना चाहिए। दोषी के अनुसार, अपराध की कथित तिथि पर पीड़िता बालिग (major) थी, इसलिए उसे पॉक्सो अधिनियम के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
कोर्ट ने दोषी को राहत देते हुए जेजे अधिनियम के तहत आयु निर्धारण के लिए दस्तावेजों के वरीयता क्रम को दोहराया स्कूल रिकॉर्ड, जन्म प्रमाण पत्र, और अस्थिकरण परीक्षण।
कोर्ट ने पाया कि,
"पीड़िता के स्कूल रिकॉर्ड में दर्ज जन्मतिथि, जिसके अनुसार घटना के समय उसकी उम्र केवल 10 वर्ष थी, प्राथमिकी (FIR) में दी गई उम्र से मेल नहीं खाती थी।
यदि ट्रायल कोर्ट ने स्कूल रिकॉर्ड को खारिज कर दिया था तो उसे मौखिक गवाही पर वरीयता देने के बजाय अस्थिकरण परीक्षण रिपोर्ट पर विचार करना चाहिए था।
कोर्ट ने आगे कहा कि पीड़िता की गवाही कि उसे जबरन मुंह बांधकर कार या ऑटो-रिक्शा से ले जाया गया और फिर ट्रेन से ले जाया गया, विश्वसनीय नहीं थी। कोर्ट ने कहा कि अगर आरोपी का इरादा दुर्भावनापूर्ण होता तो वह उसे दिन के उजाले में सार्वजनिक परिवहन में लोगों की नज़र के सामने ले जाने की हिम्मत नहीं करता।
एक गैर-सरकारी संगठन (NGO) के सामने दर्ज किए गए बयान में पीड़िता ने खुलासा किया था कि वह आरोपी को एक साल से जानती थी और उसे पसंद करती थी।
निष्कर्ष
यह देखते हुए कि यह मामला भाग जान और सहमति से बने संबंध का प्रतीत होता है कोर्ट ने कहा कि रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री के संचयी प्रभाव से न केवल यह संकेत मिलता है कि पीड़िता घटना के समय बालिग थी बल्कि यह भी पता चलता है कि जबरन अपहरण या अगवा करने का कोई कार्य नहीं था।
कोर्ट ने कहा,
"उपर्युक्त चर्चा के मद्देनजर, केवल मिस 'ए' की गवाही के आधार पर दोषसिद्धि को बनाए रखना अत्यधिक असुरक्षित होगा, जो अधिक आत्मविश्वास को प्रेरित नहीं करती है।"
कोर्ट ने व्यक्ति को सभी आरोपों से बरी कर दिया और निर्देश दिया कि यदि किसी अन्य मामले में उसकी आवश्यकता न हो तो उसे तुरंत जेल से रिहा किया जाए।