विलंब माफ़ी के बाद निचली अदालत सीमा अवधि पर दोबारा विचार नहीं कर सकती: दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत को स्थापित करते हुए कहा कि एक बार जब हाई कोर्ट द्वारा किसी मामले में सीमा अवधि से हुई देरी को माफ कर दिया जाता है तो जिला अदालत उसी मुद्दे पर पुनर्विचार नहीं कर सकती है। कोर्ट ने यह फैसला दिल्ली ट्रांसको लिमिटेड (DTL) द्वारा दायर एक अपील को खारिज करते हुए दिया जिसमें DTL ने हिंदुस्तान अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के पक्ष में दिए गए मध्यस्थ निर्णय को चुनौती दी।
जस्टिस अनिल क्षेतरपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 की धारा 37 के तहत दायर इस अपील को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि जब 2009 में हाईकोर्ट के सिंगल जज ने अपने विवेक का उपयोग करते हुए देरी को माफ करने का निर्णय लिया था तो वह निर्णय अंतिम हो गया था और जिला अदालत पर बाध्यकारी था।
कोर्ट ने सख्त लहजे में कहा,
"एक बार जब एकल जज ने विवेक का प्रयोग किया और देरी को माफ कर दिया तो वह निर्णय अंतिम हो गया। न्यायिक अनुशासन के स्थापित सिद्धांतों के तहत, एक सक्षम प्राधिकारी द्वारा तय किए गए मामले को बाद की अदालत द्वारा फिर से नहीं खोला जा सकता।"
विवाद 1992 के एक अनुबंध से जुड़ा था जिसके तहत DTL को ACSR कंडक्टरों की आपूर्ति की जानी थी। प्रतिवादी कंपनी ने आरोप लगाया कि DTL अपने दायित्वों को पूरा करने में विफल रही जिससे देरी हुई और 23.92 लाख की बैंक गारंटी गलत तरीके से भुना ली गई। 2008 में मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने DTL को हर्जाना वापस करने का निर्देश दिया।
DTL ने इस मध्यस्थ निर्णय को निचली अदालत में चुनौती दी, जिसे सीमा अवधि से बाधित और मेरिट रहित बताते हुए खारिज कर दिया गया। इसी आदेश को DTL ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।
जिला कोर्ट की गलती: हाईकोर्ट ने पाया कि जिला कोर्ट ने सीमा अवधि के मुद्दे पर दोबारा विचार करके गंभीर त्रुटि की, क्योंकि यह मुद्दा पहले ही हाई कोर्ट द्वारा तय किया जा चुका था।
दावा समय-बाधित नहीं: कोर्ट ने पाया कि विवाद में कार्रवाई का कारण अनुबंध के समापन और बैंक गारंटी भुनाने की तारीख को उत्पन्न हुआ था। मध्यस्थता की मांग तीन साल की निर्धारित सीमा अवधि के भीतर की गई, इसलिए दावा समय-बाधित नहीं था।
तर्कपूर्ण निर्णय: DTL के इस तर्क को खारिज कर दिया गया कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने सीमा अवधि पर विस्तार से चर्चा नहीं की, जिससे निर्णय अमान्य हो गया। कोर्ट ने कहा कि किसी ऐसी तुच्छ चूक के कारण मध्यस्थ निर्णय को रद्द करने की अनुमति देना मध्यस्थता अधिनियम के उद्देश्य के विपरीत होगा।
प्रतिदावे पर संतुष्टि: कोर्ट ने माना कि जब ट्रिब्यूनल ने मुख्य दावों पर विस्तार से फैसला सुनाया, जिससे प्रतिदावे का मूल आधार ही समाप्त हो गया तो यह तर्कसंगत निर्णय की आवश्यकता का पर्याप्त अनुपालन था।
इन सभी आधारों पर हाईकोर्ट ने DTL की अपील को खारिज कर दिया।