अदालत A&C Act की धारा 27 के तहत किसी भी साक्ष्य की स्वीकार्यता, प्रासंगिकता, भौतिकता और वजन निर्धारित नहीं कर सकती: दिल्ली हाइकोर्ट
दिल्ली हाइकोर्ट के जस्टिस सचिन दत्ता की एकल पीठ ने माना कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (Arbitration and Conciliation Act, 1996) की धारा 27 के तहत अदालत किसी भी साक्ष्य की स्वीकार्यता, प्रासंगिकता, भौतिकता और वजन का निर्धारण नहीं कर सकती है। ऐसा करना ट्रिब्यूनल की कार्यवाही मे अनुचित हस्तक्षेप होगा।
संक्षिप्त तथ्य
स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (याचिकाकर्ता) ने डीटीए टर्मिनल न्यू पोर्ट न्यूज, यूएसए के बंदरगाह से भारत में विजाग और हल्दिया तक कार्गो परिवहन के लिए जहाज "एमवी पीस जेम" किराए पर लिया। यूनिपर ग्लोबल कमोडिटीज़ (प्रतिवादी) के पास जहाज का स्वामित्व है। विवाद उत्पन्न हुए, जिसके कारण प्रतिवादी को भारतीय मध्यस्थता परिषद के नियमों के तहत मध्यस्थता शुरू करनी पड़ी। प्रतिवादी ने हल्दिया बंदरगाह पर जहाज के लिए विलंब शुल्क का आरोप लगाया। याचिकाकर्ता ने इस दावे का विरोध करते हुए कहा कि जहाज में ढांचागत क्षति हुई है, जिससे यह बर्थ के लिए अयोग्य हो गया।
याचिकाकर्ता ने कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट अधिकारी से सबूत पेश करने के लिए A&C Act की धारा 27 के तहत अदालत की सहायता लेने के लिए मध्यस्थता न्यायाधिकरण से अदालत का रुख करने की मंजूरी मांगी। ट्रिब्यूनल ने यह अनुरोध स्वीकार कर लिया। इसके बाद याचिकाकर्ता ने दिल्ली हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और धारा 27 के तहत याचिका दायर की। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी द्वारा ईमेल की प्रामाणिकता से इनकार करने के लिए स्वतंत्र तीसरे पक्ष की गवाही की आवश्यकता होती है, जो A&C Act की 19 धारा के तहत न्यायाधिकरण के विवेक पर जोर देता है।
इसके विपरीत प्रतिवादी ने तर्क दिया कि यदि मध्यस्थता न्यायाधिकरण के निर्णय में कानूनी समझ का अभाव है, या विचार की कमी प्रदर्शित होती है तो धारा 27 के आदेश जारी नहीं किए जाने चाहिए। प्रतिवादी ने इस तरह के अनुरोध को अनुमति देने के लिए तर्कसंगत आदेश पर जोर दिया यह दावा करते हुए कि याचिकाकर्ता साक्ष्य की प्रासंगिकता स्थापित करने में विफल रहा।
हाइकोर्ट की टिप्पणियां
हाइकोर्ट ने माना कि धारा 27 याचिका में मध्यस्थ न्यायाधिकरण के आदेशों को आम तौर पर परेशान नहीं किया जाता। इस बात पर जोर देते हुए कि अदालत धारा 27 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए न्यायाधिकरण के फैसले पर अपील नहीं सुन रही है। न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि यद्यपि मध्यस्थता न्यायाधिकरण नागरिक प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम जैसी प्रक्रिया के नियमों से बाध्य नहीं है। फिर भी यह गवाह की परीक्षा की अनुमति देने में एक राय बनाने और विवेक का प्रयोग करने के लिए बाध्य है।
हाइकोर्ट ने आगे इस बात पर जोर दिया कि पहली बार में याचिकाकर्ता द्वारा मांगे गए साक्ष्य की प्रासंगिकता या भौतिकता निर्धारित करना उसके दायरे में नहीं है। धारा 27 के तहत न्यायालय की शक्तियां गैर-न्यायनिर्णयात्मक हैं। यह माना गया कि न्यायनिर्णयन पार्टियों द्वारा चुने गए मंच मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा किया जाना चाहिए। इसने A&C Act की धारा 19(4) और धारा 27 के बीच अंतर किया और कहा कि धारा 27 साक्ष्य लेने में न्यायालय की सहायता के लिए बनाई गई है। इसने जोर देकर कहा कि न्यायालय की भूमिका साक्ष्य लेने पर उसकी क्षमता और नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करना है।
इसलिए यह माना गया कि धारा 27 के तहत शक्ति के प्रयोग में न्यायालय किसी भी साक्ष्य की स्वीकार्यता, प्रासंगिकता, भौतिकता और वजन का निर्धारण नहीं कर सकता। ऐसा करना ट्रिब्यूनल की कार्यवाही में अस्वीकार्य हस्तक्षेप होगा। इसने याचिका खारिज करते हुए मध्यस्थ न्यायाधिकरण को निर्देश दिया कि वह सहायता के लिए अदालत से संपर्क करने की अनुमति देने से पहले याचिकाकर्ता द्वारा मांगे गए सबूतों की प्रासंगिकता या भौतिकता पर प्रथम दृष्टया आधार पर भी विचार करे।
केस टाइटल- स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम यूनिपर ग्लोबल कमोडिटीज।