न्याय के पहियों में घर्षण: 38 साल पुराने वसीयत विवाद का निपटारा करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने जताई निराशा, जारी किए प्रशासन पत्र
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में 38 साल पुराने वसीयत विवाद का निपटारा करते हुए टिप्पणी की कि यह मामला न्याय के पहियों में उस घर्षण का उदाहरण है, जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने यशपाल जैन बनाम सुशीला देवी और अन्य मामले में चेतावनी दी थी।
जस्टिस पुरुशैन्द्र कुमार कौरव ने कहा कि इस विवाद का फैसला करने में 38 साल लंबा समय लगा। इस बीच अधिकांश मूल पक्षकारों की मृत्यु हो गई और अनगिनत वकीलों को बदला गया।
जज ने टिप्पणी की,
"न्याय वितरण प्रणाली बार, पीठ और पक्षकारों के बीच आपसी विश्वास पर कार्य करती है। प्रत्येक हितधारक वादी, वकील और न्यायालय, इसकी अखंडता को बनाए रखने की साझा जिम्मेदारी निभाते हैं। कोई भी चूक समग्र रूप से व्यवस्था में विश्वास को कम करती है। मामले के रिकॉर्ड के अवलोकन पर देरी का श्रेय पक्षकारों के आचरण सहित विभिन्न कारकों को दिया जा सकता है। इस तरह की देरी न केवल न्याय वितरण प्रणाली को बाधित करती है, बल्कि पक्षकारों को लंबे समय तक चलने वाले मुकदमेबाजी में भी घसीटती है। यह प्रशासनिक चूकों को भी बढ़ावा देती है, जिसका अंततः खामियाजा वादियों को ही भुगतना पड़ता है।"
मामले में याचिकाकर्ता जो वसीयत की एकमात्र निष्पादक थीं, ने राजा प्रताप भान प्रकाश सिंह द्वारा निष्पादित वसीयत के संबंध में प्रोबेट देने के लिए यह याचिका 1987 में दायर की थी। बाद में इस याचिका को वसीयत के प्रशासन पत्र देने के लिए परिवर्तित कर दिया गया।
राजा की विधवा और बच्चों ने संदिग्ध परिस्थितियों, अनुचित प्रभाव, मानसिक अक्षमता और संपत्तियों के पैतृक स्वरूप (जिन्हें वसीयत नहीं किया जा सकता) का आरोप लगाते हुए याचिका का विरोध किया था।
हाईकोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री की जांच के बाद पाया कि गवाहों में से एक ने यह बयान दिया कि वसीयतकर्ता ने अपने निवास पर दोनों गवाहों की उपस्थिति में वसीयत पर हस्ताक्षर किए और उसकी योग्यता पर संदेह करने के लिए रिकॉर्ड में कुछ भी नहीं था।
न्यायालय ने कहा,
"प्रतिवादियों ने यह मामला स्थापित करने का प्रयास किया कि वसीयत का निष्पादन संदिग्ध परिस्थितियों से घिरा हुआ। इस दावे को साबित करने के लिए प्रतिवादियों ने वसीयतकर्ता की नाजुक मेडिकल स्थिति, वसीयत में पैतृक संपत्तियों को शामिल करने, याचिकाकर्ता के हलफनामे में वसीयत के समान कथनों की उपस्थिति आदि जैसे विभिन्न परिस्थितियों पर भरोसा किया। हालांकि, कथित परिस्थितियां वसीयत के निष्पादन की विश्वसनीयता के खिलाफ उचित मामला बनाने में विफल रही हैं, क्योंकि वे न तो किसी सामग्री से और न ही आसपास के तथ्यों के सेट से समर्थित हैं।"
कोर्ट ने आगे कहा कि वसीयत में वैध कानूनी वारिसों को विरासत से बाहर किए जाने का तथ्य मात्र संदिग्ध नहीं माना जा सकता, खासकर वसीयत में दिए गए विस्तृत स्पष्टीकरण के आलोक में।
कोर्ट ने कहा,
"यह वैध कानूनी वारिसों को बाहर करने के संबंध में अस्पष्ट चुप्पी का मामला नहीं है, क्योंकि वसीयत आत्म-व्याख्यात्मक है। वसीयतकर्ता ने अपनी पत्नी के साथ वैवाहिक कलह को दर्ज किया और यह बताया है कि उसके बच्चे उसके प्रति शत्रुतापूर्ण और स्नेहहीन थे।"
इन तथ्यों के आधार पर कोर्ट ने निष्पादक की याचिका स्वीकार की और वसीयत के संबंध में प्रशासन पत्र जारी करने का आदेश दिया।