दिल्ली हाईकोर्ट: बिल्डर एग्रीमेंट से परिवारिक समझौते में तय हिस्सेदारी नहीं बदल सकती
दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि परिवारिक समझौता जिसके जरिए परिवार के सदस्यों के बीच संपत्ति के हिस्से बांटे जाते हैं, उसके लिए रजिस्ट्रेशन आवश्यक नहीं है। साथ ही यह भी कहा कि यदि परिवार के सदस्य निर्माण के लिए किसी बिल्डर के साथ समझौता करते हैं तो इससे उनकी हिस्सेदारी प्रभावित नहीं होती।
जस्टिस अनिल क्षेतरपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने कहा,
“परिवारिक समझौता किसी भी नए अधिकार, शीर्षक या हित का सृजन नहीं करता, बल्कि पहले से मौजूद हिस्सेदारी की पहचान करता है। ऐसे में उसका पंजीकरण आवश्यक नहीं। एक बार जब समझौते से हिस्से तय हो गए तो बिल्डर एग्रीमेंट केवल निर्माण से संबंधित होता है और इससे हिस्सेदारी में कोई बदलाव या संशोधन नहीं होता।”
मामले में संतोष प्रशर के वंशज एकल पीठ के उस आदेश के खिलाफ आए, जिसमें संपत्ति का विभाजन परिवारिक समझौते के अनुसार तय किया गया था।अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि
परिवारिक समझौते के तहत संपत्ति का वास्तविक बंटवारा हुआ है। इसलिए उसे पंजीकृत और स्टाम्प किया जाना चाहिए था।
बिल्डर से हुए समझौते में हिस्सेदारी सही ढंग से दर्ज नहीं की गई।
हाईकोर्ट ने दोनों दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि समझौते को ध्यान से पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि यह केवल मेमोरेंडम ऑफ फैमिली सेटलमेंट है, जिसमें हिस्सेदारी का निर्धारण किया गया न कि नया अधिकार बनाया गया। इस प्रकार इसका रजिस्ट्रेशन आवश्यक नहीं है।
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के Kale बनाम Deputy Director of Consolidation (1976) फैसले का हवाला दिया जिसमें भी यही सिद्धांत प्रतिपादित किया गया।
साथ ही कोर्ट ने कहा कि किसी अनुबंध के संशोधन या नवीकरण के लिए भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872 की धारा 62 लागू होती है, जिसमें यह आवश्यक है कि सभी पक्ष पुराने अनुबंध को नए से प्रतिस्थापित करने का इरादा रखें। इस मामले में ऐसा इरादा कहीं से स्पष्ट नहीं होता।
इन टिप्पणियों के आधार पर कोर्ट ने अपील खारिज कर दी।
टाइटल: Suman Singh Virk & Anr. बनाम Deepika Prashar & Anr.