तीस हजारी मेट्रो परियोजना विवाद: हाईकोर्ट ने DMRC के पक्ष में 70 लाख रुपये का मध्यस्थता अवॉर्ड बरकरार रखा
दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (DMRC) के पक्ष में पारित उस मध्यस्थता अवॉर्ड को बरकरार रखा, जिसमें पारसवनाथ डेवलपर्स लिमिटेड (PDL) पर लगभग 70 लाख रुपये से अधिक की देनदारी तय की गई थी।
जस्टिस जस्मीत सिंह की पीठ ने स्पष्ट किया कि कंसेशन एग्रीमेंट के तहत A की ओर से किसी तरह का उल्लंघन नहीं किया गया और परियोजना के पूरा न हो पाने का कारण पारसवनाथ और उसके सब-लाइसेंसी की लापरवाही थी, जिन्होंने आवश्यक स्थानीय निकाय की मंजूरी के लिए उचित आवेदन ही प्रस्तुत नहीं किया।
यह विवाद तिस हजारी मेट्रो स्टेशन पर वाणिज्यिक क्षेत्र के विकास से जुड़ा है। DMRC ने इस स्थान पर कमर्शियल डिवेलपमेंट के लिए निविदा आमंत्रित की, जिसमें पारसवनाथ डेवलपर्स सफल बोलीदाता बना। 25 फरवरी, 2005 को दोनों के बीच एक कंसेशन एग्रीमेंट हुआ, जिसके तहत 12 वर्षों के लिए लाइसेंस और 6 माह की मोरेटोरियम अवधि तय की गई, जिसकी शुरुआत मार्च 2005 से हुई।
इसके बाद पारसवनाथ ने इस स्थान को स्पेंसर रिटेल लिमिटेड को सब-लाइसेंस पर दे दिया। स्पेंसर ने व्यापार शुरू करने के लिए नगर निगम (एमसीडी) से हेल्थ ट्रेड लाइसेंस (HTL) की आवश्यकता बताई और इसके लिए आवेदन किया। इसी दौरान MCD ने DMRC को नोटिस जारी कर आरोप लगाया कि बिना स्वीकृति के निर्माण किया गया। पत्राचार के बाद 31 जुलाई, 2006 को MCD ने स्पेंसर का आवेदन यह कहते हुए खारिज किया कि आवश्यक दस्तावेज, खासकर स्वीकृत नक्शे, जमा नहीं कराए गए। लाइसेंस न मिलने पर स्पेंसर ने सब-लाइसेंस एग्रीमेंट समाप्त किया।
इसके बाद पारसवनाथ ने DMRC से यह प्रमाणपत्र देने की मांग की कि मेट्रो स्टेशन पर कोई अवैध निर्माण नहीं किया गया और MCD से किसी तरह की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है। विवाद बढ़ने पर DMRC ने भुगतान की मांग करते हुए इनवॉयस जारी किए, जिसके बाद मामला मध्यस्थता में पहुंचा। 7 जून 2017 को मध्यस्थता ट्रिब्यूनल ने पारसवनाथ के सभी दावों को खारिज करते हुए DMRC के काउंटर क्लेम स्वीकार किए और पारसवनाथ पर 70,27,684.69 रुपये एवं 6 प्रतिशत वार्षिक ब्याज देने का आदेश दिया।
इस अवॉर्ड को चुनौती देते हुए पारसवनाथ हाईकोर्ट पहुंचा। कंपनी की दलील थी कि उस समय लागू नियमों के अनुसार एमसीडी से लाइसेंस लेने के लिए स्वीकृत नक्शे और कंप्लीशन सर्टिफिकेट आवश्यक थे, जो केवल DMRC उपलब्ध करा सकता था। इसलिए लाइसेंस न मिलने के लिए DMRC ही जिम्मेदार है।
DMRC ने इसका विरोध करते हुए कहा कि उसने हर स्तर पर सहयोग किया और 11 दिसंबर 2006 को स्पष्टीकरण पत्र जारी कर स्पष्ट किया कि इस संपत्ति के लिए किसी स्थानीय निकाय से नक्शे की स्वीकृति लेने की आवश्यकता ही नहीं है। MCD द्वारा स्पेंसर का आवेदन सिर्फ दस्तावेजों के अभाव में खारिज किया गया, जो ठीक से प्रस्तुत ही नहीं किए गए। ऐसे में पारसवनाथ अपनी ही लापरवाही का लाभ नहीं उठा सकता।
अदालत ने कहा कि उसे केवल यह देखना था कि मध्यस्थता ट्रिब्यूनल द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण तर्कसंगत और संभव तो है या नहीं। पत्राचार और रिकॉर्ड देखने के बाद अदालत ने माना कि ट्रिब्यूनल का निष्कर्ष पूरी तरह से उचित था कि कंसेशन एग्रीमेंट के उल्लंघन के लिए DMRC को अकेले दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह भी सामने आया कि MCD द्वारा लाइसेंस खारिज करने वाला पत्र पारसवनाथ ने नौ महीने की देरी से DMRC को सौंपा जबकि तब तक स्पेंसर सब-लाइसेंस समझौता भी समाप्त कर चुका था।
इन तथ्यों के आधार पर हाईकोर्ट ने कहा कि ट्रिब्यूनल का नजरिया पूरी तरह से प्लॉज़िबल और रिकॉर्ड से समर्थित है। DMRC के पास ऐसे कोई दस्तावेज नहीं थे जिन्हें सौंपने की जरूरत थी और वैसे भी उनकी कोई कानूनी आवश्यकता नहीं थी। वहीं पारसवनाथ की ओर से ही लापरवाही और समुचित आवेदन करने में चूक हुई।
अदालत ने मध्यस्थता अवॉर्ड बरकरार रखते हुए पारसवनाथ की याचिका खारिज कर दी।