'मजिस्ट्रेट/ चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के नाबालिग पीड़ित को चाइल्ड प्रोटेक्शन होम में भेजने के न्यायिक आदेश के खिलाफ हैबियस कॉर्पस की याचिका सुनवाई योग्य नहीं': इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ ने (सोमवार) कहा कि एक न्यायिक मजिस्ट्रेट या बाल कल्याण समिति के पीड़ित को महिला सुरक्षा गृहों / चाइल्ड केयर होम में भेजने वाले आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती है और बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) की रिट पर आदेश को अलग नहीं रखा जा सकता है।
खंडपीठ ने यह भी कहा कि ऐसे चाइल्ड केयर होम में पीड़ित को कस्टडी में रखना अवैध कस्टडी नहीं माना जा सकता है।
न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा, न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी और न्यायमूर्ति संजय यादव की पूर्ण पीठ एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, इस याचिका में चाइल्ड केयर होम के अधीक्षक को निर्देशों की मांग की गई थी कि 17 साल की नाबालिग लड़की (आंचल) को छोड़ दिया जाए ,जिसे बाल गृह में कथित रूप से अवैध रूप से कस्टडी में रखा गया है।
निम्नलिखित तीन मुद्दों पर एक बड़ी बेंच को फैसला करना था;
1. क्या मजिस्ट्रेट द्वारा पारित न्यायिक आदेश के खिलाफ या अधिनियम की धारा 27 के तहत नियुक्त बाल कल्याण समिति के पीड़ित को महिला संरक्षण गृह / नारी निकेतन / किशोर गृह / चाइल्ड केयर होम में रखने के न्यायिक आदेश के खिलाफ हैबियस कॉर्पस की याचिका सुनवाई योग्य है?
2. क्या महिला सुरक्षा गृह / नारी निकेतन / जुवेनाइल होम / चाइल्ड केयर होम में आदेश के अनुपालन (अनुचित हो सकता है) में पीड़ित को कस्टडी में रखना अवैध कस्टडी के रूप में देखा जा सकता है?
3. जुवेनाइल जस्टिस (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) एक्ट, 2015 के तहत, बोर्ड / बाल कल्याण समिति की बच्चे के कल्याण के लिए उनकी देखभाल करना और सुरक्षा की कानूनी जिम्मेदारी है और इस तरह, प्रस्ताव है कि यहां तक कि एक नाबालिग को महिला सुरक्षा गृह / नारी निकेतन / जुवेनाइल होम / चाइल्ड केयर होम में उसकी इच्छाओं के खिलाफ नहीं भेजा जा सकता है, क्या यह कानूनी रूप से वैध है या इस अधिनियम में एक संशोधित दृष्टिकोण की आवश्यकता है?
पृष्ठभूमि
आंचल की मां ने प्राथमिकी दर्ज कराई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उसकी नाबालिग बेटी (आंचल) ने 15 फरवरी 2020 को अर्जुन नाम के एक लड़के और उसके परिवार की मदद से घर छोड़कर चली गई। जब 4 मार्च 2020 को आंचल को पाया गया, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 161 के तहत उसका बयान दर्ज की गई, जिसमें उसने आरोप लगाया कि उसने निराश होकर घर छोड़ था क्योंकि उसे उसकी मां ने मारा था और वह अपने दोस्त अर्जुन के घर चली गई। यह भी कहा कि उसने अपनी मर्जी से ऐसा किया। इन बयानों को सीआरपीसी की धारा 164 के तहत उसके द्वारा बयान में दोहराया गया।
जब उसे 13 मार्च 2020 को सीजेएम, सहारनपुर में पेश किया गया, तो पुलिस प्रस्तुत किया कि हाई स्कूल सर्टिफिकेट के अनुसार, उसकी उम्र 17 साल 20 दिन है और इसलिए उसकी कस्टडी के संबंध में उपयुक्त आदेश पारित किया जाना चाहिए। इसके बाद, उस नाबालिग लड़की को सीजेएम द्वारा बाल कल्याण समिति के समक्ष पेश करने का आदेश दिया गया। सीजेएम के निर्देश पर बाल कल्याण समिति के समक्ष पेश किए जाने पर, उसे चाइल्ड होम (लड़की) में रखने का आदेश दिया गया। वर्तमान बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को उक्त आदेश से दु:खी होकर दायर किया गया।
याचिकाकर्ता के अनुसार, यह तर्क दिया गया कि एक बार जब उसके माता-पिता द्वारा उसको(लड़की) को कस्टडी में भेजने से इनकार कर दिया गया, तो उसे उसकी इच्छा के खिलाफ चिल्ड्रन होम भेजने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। हालांकि, एजीए ने याचिका के विरोध में कहा कि याचिका सुनवाई योग्य नहीं है क्योंकि मजिस्ट्रेट के आदेश और न्यायिक आदेश के अनुसार आदेश पारित किया गया था, आदेस के सही या गलत के बारे में हैबियस कॉर्पस की याचिका दायर नहीं की जा सकती है।
डिवीजन बेंच ने कहा कि, यदि न्यायिक मजिस्ट्रेट या सक्षम न्यायालय के द्वारा पारित न्यायिक आदेशों के अनुसार है पीड़ित को कस्टडी में रखा गया है, तो बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट सुनवाई योग्य नहीं है। हालांकि, यह कहने के बाग बेंच ने देखा कि विभिन्न निर्णयों में यह विरोधाभासी है, इसलिए डिवीजन बेंच ने मामले के निपटारन के लिए बड़ी बेंच के पास इस मामले को भेजा।
कोर्ट का अवलोकन
नाबालिग लड़कियों का भाग जाना और बाल विवाह के उन्मूलन का मुद्दा
पीठ ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद, आवश्यक मुद्दों पर विचार करने के अलावा, मुख्य मुद्दों के अलावा, नाबालिग लड़कियों के भाग जाने के मामलों से निपटने के लिए बाल गृहों में भेजने को जरूरी समझा है।
यह देखा गया है कि माता-पिता / अभिभावकों या कथित पति द्वारा अपने वार्डों या पत्नी के लिए, जो विवाह के लिए अपने पैतृक घरों को छोड़ देती हैं, जैसे मामलों में दायर की गई बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं की संख्या में काफी वृद्धि हुई। खंडपीठ ने कहा कि इस तरह मामलों में माता-पिता, अपनी बेटी के अपहरण या बलात्कार के आरोप लगाते हैं।
इसलिए, बेंच के अनुसार, ऐसे मामलों में न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता होती है कि जिस व्यक्ति को प्रस्तुत करने की मांग की गई है वह अवैध रूप से कस्टडी में नहीं है।
हिंदू विवाह अधिनियम और बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 के आधार खंडपीठ ने कहा कि,
"हिंदू विवाह अधिनियम और बाल विवाह निरोधक अधिनियम के तहत निर्धारित कानून के उल्लंघन में सार्वजानिक रूप से और विधानमंडल में एक तर्क के अनुसार विवाह को वैध नहीं बनाया सकता है क्योंकि ऐसा विवाह इस एक्ट के मुताबिक शून्य या शून्यकरणीय है। विधानमंडल इस तथ्य को लेकर सचेत था कि अगर उम्र के प्रतिबंध के उल्लंघन में किए गए ऐसे विवाह को शून्य या शून्यकरणीय बना दिया जाता है, तो इससे महिलाओं पर गंभीर परिणाम होगा और इनका शोषण हो सकता है, जो उनकी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण असुरक्षित है। दोनों अधिनियमों का उद्देश्य इस तरह का विवाह, दोषी को कारावास की सजा और जुर्माने के साथ दंडनीय बनाता है, जबकि निर्धारित उम्र के उल्लंघन में वैध और निर्वाह के रूप में भी किए गए विवाह की रक्षा की आवश्यकता को मान्यता देता है। "
मजिस्ट्रेट या बाल कल्याण समिति द्वारा पारित न्यायिक आदेश के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट को सुनवाई योग्य बनाना
जुवेनाइल जस्टिस अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों का विश्लेषण करते हुए, न्यायालय ने देखा कि अधिनियम बाल समर्थक कानून है जो एक बच्चे के पुनर्वास और देखभाल और सुरक्षा के लिए सभी उपचारात्मक उपाय प्रदान करता है। हालांकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में जहां बच्चों को मनमाने ढंग से होम में भेजा जाता है, तब स्थिति को अपील या पुनरीक्षण के रूप में देखा जा सकता है।
कोर्ट ने अवलोकन किया कि जुवेनाइल जस्टिस अधिनियम की धारा 37 स्पष्ट रूप करता है कि समिति इस जांच से संतुष्ट है कि समिति के समक्ष बच्चे को देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता है, बाल कल्याण अधिकारी द्वारा प्रस्तुत सामाजिक जांच रिपोर्ट पर विचार करने और बच्चे को कस्टडी में रखने के लिए निम्नलिखित आदेशों में से एक या एक से अधिक आदेश पास करने के लिए बच्चे की इच्छा के मामले में पर्याप्त है। इसलिए, बेंच के अनुसार, फ्रैमर्स बच्चे की इच्छाओं की उचित देखभाल करने के लिए सचेत थे जहां बच्चा एक दृश्य लेने के लिए पर्याप्त रूप से परिपक्व होता है।
पीठ ने कहा कि,
"इसलिए, ऐसी स्थिति में यह नहीं माना जा सकता है कि अगर मामला महिला कल्याण गृह में बाल कल्याण समिति द्वारा पारित आदेश का है, जो कि जुवेनाइल जस्टिस अधिनियम के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए न तो अधिकार क्षेत्र में है और न ही अवैध या विकृत है। इसलिए पीड़ित की कस्टडी को गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता है और यदि याचिकाकर्ता बाल कल्याण समिति या मजिस्ट्रेट के आदेश से दुखी है, तो याचिकाकर्ता जुवेनाइल जस्टिस की धारा 101 और धारा 102 के तहत प्रदान की गई अपील या पुनरीक्षण के उपाय का सहारा लेने के लिए स्वतंत्र है।
इसलिए न्यायिक आदेश या अधिनियम के तहत बाल कल्याण समिति द्वारा पारित आदेश के खिलाफ हैबियस कॉर्पस की रिट सुनवाई योग्य नहीं है। न्यायालय ने यह भी देखा कि वर्तमान मामले में हाई स्कूल सर्टिफिकेट के अनुसार लड़की की आयु 17 वर्ष है और इसलिए एक बार यह पता चला कि कॉर्पस एक बच्ची है जो अधिनियम की धारा 2 (12) के तहत परिभाषित है और इसलिए वह बच्ची देखभाल और सुरक्षा के बच्चों की श्रेणी में आती है।
कोर्ट ने कहा कि,
"एक बार समिति द्वारा याचिकाकर्ता को संरक्षण गृह में रखने का आदेश जुवेनाइल जस्टिस अधिनियम की धारा 37 द्वारा प्रदत्त अपनी शक्ति के तहत है, यह नहीं माना जा सकता है कि उक्त आदेश जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के प्रावधानों के बिना अधिकार क्षेत्र, गैरकानूनी या उलट है और पीड़ित के कस्टडी में रखना अवैध नहीं कहा जा सकता है।"
कोर्ट ने आगे कहा कि जब पीड़ित (लड़की) नाबालिग है और लड़की ने अपने माता-पिता के साथ जाने से इनकार कर दिया, फिर ऐसी स्थिति में व्यवस्था करनी होगी। "उसकी इच्छा सर्वोपरि है और नाबालिग की कस्टडी के लिए आदेश पारित करने से पहले नाबालिग के कल्याण को ध्यान में रखा जाना चाहिए। नाबालिग की इच्छा या लड़की की इच्छा को हमेशा मजिस्ट्रेट / संबंधित समिति के हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। उसकी इच्छा / इच्छा के अनुसार जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत कानून के अनुसार आगे की कार्रवाई की जाए।
बेंच ने कहा कि,
"इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट सुनवाई योग्य नहीं है, अगर कस्टडी न्यायिक मजिस्ट्रेट या सक्षम न्यायालय के न्यायालय या बाल कल्याण समिति द्वारा पारित न्यायिक आदेशों के अनुसार है। जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत मजिस्ट्रेट बाल कल्याण समिति द्वारा क्षेत्राधिकार का उपयोग करते हुए रिमांड के एक आदेश को पारित किया जाता है तो उसे अवैध कस्टडी के रूप में नहीं माना जा सकता है। इस तरह के आदेश की वैधता को कानून के वैधानिक प्रावधानों के तहत सक्षम अपीलीय या पुनरीक्षण फोरम के समक्ष एक उचित कार्यवाही दायर करके चुनौती दी जा सकती है, लेकिन बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका की समीक्षा नहीं की जा सकती है। "
बेंच ने इस प्रकार तीन मुद्दों का जवाब दिया;
उत्तर 1: यदि याचिकाकर्ता पीड़ित न्यायिक मजिस्ट्रेट या सक्षम न्यायालय या जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत बाल कल्याण समिति द्वारा पारित न्यायिक आदेशों के अनुसार कस्टडी में है तो नतीजतन, मजिस्ट्रेट या समिति द्वारा पारित इस तरह के आदेश को बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती है।
उत्तर 2: एक मजिस्ट्रेट द्वारा या जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धारा 27 के तहत नियुक्त बाल कल्याण समिति द्वारा अधिकार क्षेत्र का अनियमित उपयोग करके पीड़ित को महिला सुरक्षा गृह / नारी निकेतन / जुवेनाइल होम / चाइल्ड केयर होम में भेजने के आदेश को गैरकानूनी कस्टडी नहीं माना जा सकता है।
उत्तर 3: जुवेनाइल जस्टिस अधिनियम के तहत बोर्ड / बाल कल्याण समिति की बच्चों के कल्याण के लिए उचित देखभाल और सुरक्षा की कानूनी जिम्मेदारी है और मजिस्ट्रेट / समिति को उसकी इच्छाओं को पूरा करना होगा। जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धारा 37 के अनुसार, बाल कल्याण अधिकारी द्वारा सौंपी गई सामाजिक जांच रिपोर्ट पर विचार करने और समिति द्वारा जांच से पहले बच्चे को देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता पर संतुष्ट होने पर, बच्चे की देखभाल करने का कार्य समिति करेगी और जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धारा 37 (1) (ए) से (एच) के तहत बच्चे के मामले में बच्चे की इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए उल्लिखित आदेशों में से एक या अधिक आदेश परित किए जा सकते हैं।