'वे सबसे अच्छे लाइसेंसधारी हैं': कलकत्ता हाईकोर्ट ने वरिष्ठ नागरिकों के अपने घर में रहने के अधिकार को बरकरार रखा, बेटे और बहू को बेदखल करने के आदेश दिए
कलकत्ता हाईकोर्ट ने शुक्रवार को दोहराया कि एक वरिष्ठ नागरिक के अपने घर में विशेष रूप से रहने के अधिकार और यदि आवश्यक हो तो अपने बेटे और बहू को बेदखल करने के अधिकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत देखा जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति राजशेखर मंथा ने कहा कि,
"एक राष्ट्र जो अपने वृद्ध और दुर्बल नागरिकों की देखभाल नहीं कर सकता, उसे पूर्ण सभ्यता प्राप्त नहीं माना जा सकता है।"
कोर्ट ने दो वरिष्ठ नागरिकों (याचिकाकर्ताओं) द्वारा बेटे और बहू को उनके घर से बेदखल करने की मांग करने वाली याचिका पर फैसला सुनाते हुए उपरोक्त टिप्पणियां कीं।
अदालत ने इस मामले में 12 जुलाई, 2021 के एक पूर्व आदेश के तहत ताहिरपुर पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को निर्देश दिया कि वह याचिकाकर्ताओं के परिसर से बेटे और बहू को बाहर ले जाए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वृद्ध नागरिकों की भलाई हो सके। तद्नुसार इसका अनुपालन किया गया और उसके बाद न्यायालय ने कुछ प्रासंगिक टिप्पणियां कीं।
न्यायमूर्ति मंथा ने कहा कि कानून अच्छी तरह से स्थापित है कि एक वरिष्ठ नागरिक के घर में रहने वाले बच्चे और उनके पति 'सबसे अच्छे लाइसेंसधारी' हैं और अगर वरिष्ठ नागरिक ने बच्चों और उनके परिवारों के साथ रहने से इनकार कर दिया तो इसके बाद वरिष्ठ नागरिक के निवास पर रहने का ऐसा लाइसेंस समाप्त हो जाता है।
कोर्ट द्वारा तय किए जाने वाले मुद्दों में से एक यह था कि क्या माता-पिता वरिष्ठ नागरिकों के रखरखाव और कल्याण अधिनियम, 2007 (2007 अधिनियम) के प्रावधानों के तहत वैकल्पिक उपचार की उपलब्धता वरिष्ठ नागरिकों यानी याचिकाकर्ताओं को उच्च न्यायालय के अपने रिट अधिकार क्षेत्र में दरवाजा खटखटाने से रोकती है।
खंडपीठ ने इस पर कहा कि चूंकि एक वरिष्ठ नागरिक का अपने घर में विशेष रूप से रहने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निहित जीवन के मौलिक अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से आता है, ऐसे वरिष्ठ नागरिकों को 2007 अधिनियम के तहत प्रदान किए गए वैकल्पिक उपचार के विकल्प का सहारा लेने के लिए मजबूर करना अन्याय होगा।
कोर्ट ने कहा कि वरिष्ठ नागरिक को या तो किसी दीवानी अदालत में जाने के लिए मजबूर करना (जिसका अधिकार क्षेत्र 2007 अधिनियम की धारा 27 के तहत किसी भी तरह से वर्जित है) या 2007 के अधिनियम जैसे विशेष क़ानून का सहारा लेना ज्यादातर मामलों में बेहद गलत और दर्दनाक होगा। इसलिए इस न्यायालय का विचार है कि वैकल्पिक उपचार के सिद्धांत को वरिष्ठ नागरिकों पर सख्ती से लागू नहीं किया जा सकता है और एक रिट कोर्ट को किसी मामले में वरिष्ठ नागरिक की सहायता के लिए आना चाहिए।
इसके अलावा अगर घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के तहत इस आशय का दावा किया जाता है तो अदालत ने बहू के निवास के अधिकार पर भी विचार किया।
कोर्ट ने एस वनिता बनाम डिप्टी कमिश्नर, बेंगलुरु शहरी जिले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा जताया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि वरिष्ठ नागरिक अधिनियम, 2007 और घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 दोनों विशेष कानून हैं, इसलिए वरिष्ठ नागरिकों की याचिका पर निर्णय करते समय दोनों को सामंजस्यपूर्ण और उचित रूप से लागू किया जाना चाहिए, जो नहीं चाहते कि उनके बच्चे उनके साथ रहें।
सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त मामले में फैसला सुनाया था,
"वरिष्ठ नागरिकों के हितों की रक्षा करने वाले कानून का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वे निराश्रित न रहें या अपने बच्चों या रिश्तेदारों की दया पर न रहें। समान रूप से पीडब्ल्यूडीवी अधिनियम 2005 के उद्देश्य को वैधानिक व्याख्या की दृष्टि से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। दोनों विधानों के सेटों को सामंजस्यपूर्ण ढंग से समझा जाना चाहिए।"
हालांकि मौजूदा मामले में बहू ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत निवास के किसी अधिकार का दावा नहीं किया है। तदनुसार, कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ताओं (वरिष्ठ नागरिकों) को अपने विशेष निवास अधिकारों का प्रयोग करने और बेटे और बहू को बेदखल करने का निर्देश देने में कोई बाधा नहीं है।
केस का शीर्षक: रामपद बसाक एंड अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एंड अन्य