समान लिंग यौन उत्पीड़न से संबंधी शिकायतें POSH अधिनियम के तहत सुनवाई योग्य : कलकत्ता हाईकोर्ट

Update: 2021-01-14 10:38 GMT

कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक महत्तवपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 यानी POSH एक्ट के तहत समान-लिंग के यौन उत्पीड़न से संबंधी शिकायतें की जा सकती हैं।

डॉ. मलबिका भट्टाचार्जी बनाम आंतरिक शिकायत समिति, विवेकानंद कॉलेज और अन्य मामले में न्यायमूर्ति सब्यसाची भट्टाचार्य की एकल पीठ ने कहा कि,

"अधिनियम-2013 की धारा 2 (M) से पता चलता है कि शब्द "प्रतिवादी" अपनी तह के भीतर ही "व्यक्ति" है यानी इसमें सभी लिंग के व्यक्ति शामिल हैं।"

इस मामले से जुड़ी रिट याचिका कलकत्ता हाईकोर्ट में दायर की गई थी, जिसमें एक संस्था की आंतरिक शिकायत समिति की कार्रवाई को चुनौती दी गई थी। इसमें कहा गया था कि अधिनियम-2013 के तहत शिकायत को स्वीकार करने का अधिकार नहीं है क्योंकि शिकायतकर्ता और प्रतिवादी दोनों एक ही लिंग के हैं।

याचिकाकर्ता के वकील एडवोकेट सौम्या मजुमदार ने तर्क देते हुए कहा कि,

"POSH एक्ट में समान-लिंग शिकायतों को संबोधित करने की कल्पना नहीं की गई थी।"

वहीं दूसरी ओर, निजी प्रतिवादी के वकील अधिवक्ता कल्लोल बसु ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (रोकथाम, निषेध और यौन उत्पीड़न के महिला कर्मचारियों और छात्रों के उच्च शैक्षणिक संस्थानों, विनियमों, 2015) के आधार पर कहा कि,

"यह अधिनियम इतना व्यापक है कि इसमें समान-लैंगिक यौन उत्पीड़न के आरोप भी शामिल हैं। यूजीसी के नियमों का हवाला देते हुए प्रतिवादी के वकील ने कहा कि ऐसी शिकायतें POSH अधिनियम के तहत की जा सकती हैं।"

POSH एक्ट में ऐसा कुछ भी नहीं है जो समान लिंग की शिकायत करने से रोके

कोर्ट ने कहा कि,

"याचिकाकर्ता के तर्क में 'कुछ चीजें' थीं, जिसे पढ़ा जाना चाहिए। जैसे कि 'प्रतिवादी' की परिभाषा को बाकी क़ानून के साथ पढ़ा जाना। यह भी कहा गया कि अधिनियम-2013 की धारा 9 में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके तहत समान लिंग को शिकायत करने से रोका जाए।"

कोर्ट ने आगे कहा कि,

"यह पहली बार में थोड़ा अजीब लग सकता है कि एक ही लिंग के लोग एक-दूसरे के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत करते हैं। लेकिन यह कोई ताजुब्ब की बात नहीं है। आज के आधुनिक गतिशील भारतीय समाज में बहस चल रही है कि क्या समान-लिंग विवाहों को वैध बनाया जा सकता है।"

'यौन उत्पीड़न' कोई स्थिर अवधारणा नहीं

कोर्ट ने कहा कि,

"अधिनियम-2013 की धारा 2 (n) में "यौन उत्पीड़न" की जो परिभाषा दी गई है उसके मुताबिक यौन उत्पीड़न कोई स्थिर अवधारणा नहीं हो सकती है, लेकिन इसकी व्याख्या सामाजिक परिप्रेक्ष्य को पीछे ढकेलने वाली है।"

"जिस तरह से 'यौन उत्पीड़न' का जिक्र अधिनियम-2013 में किया गया है। इसके तहत यह व्यक्ति की गरिमा से संबंधित है और उसके यानी उसके लिंग और कामुकता से संबंधित है। इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि समान लिंग के व्यक्ति एक-दूसरे को चोट नहीं पहुंचा सकते हैं, जैसा कि अधिनियम-2013 द्वारा परिकल्पित किया गया है।

कोर्ट ने यह भी कहा कि,

"किसी भी लिंग का व्यक्ति अगर यह महसूस करता है कि उसको धमकी देकर और उसका यौन उत्पीड़न करके उसकी विनम्रता या गरिमा को कष्ट पहुंचाया जा रहा है, फिर चाहे दोनों एक ही लिंग के क्यों न हों, यह उत्पीड़न अधिनियम की धारा 2 (n) के तहत माना जाएगा।"

कोर्ट ने आगे कहा कि,

"यदि अधिनियम की धारा 3 (2) पर गौर किया जाए, तो यह देखा जा सकता है है कि किसी भी लिंग के सदस्य द्वारा किए गए कृत्य पर विचार किया जा सकता है।"

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