सीआरपीसी की धारा 227 - आरोपी को 'गंभीर संदेह' के अभाव में आरोप मुक्त कर दिया जाना चाहिए: उड़ीसा हाईकोर्ट
उड़ीसा हाईकोर्ट ने हाल ही में यह व्यवस्था दी है कि कोर्ट द्वारा अभियुक्तों के खिलाफ आरोप तय करने से पहले आरोपी के खिलाफ 'गंभीर संदेह' होना चाहिए न कि केवल 'संदेह' होना चाहिए। अन्यथा, आरोपी को बरी करने के लिए सीआरपीसी की धारा 227 के तहत 'पर्याप्त आधार' होगा।
ट्रायल कोर्ट के आदेश के खिलाफ पुनरीक्षण की अनुमति देते हुए, न्यायमूर्ति शशिकांत मिश्रा की एकल पीठ ने कहा,
"आगे की व्याख्या करने के लिए, संदेह पूरी तरह से अटकलों या कल्पना के दायरे में हो सकता है और बिना किसी आधार के भी हो सकता है, जबकि गंभीर संदेह कुछ स्वीकार्य सामग्री या सबूत के आधार पर उत्पन्न होता है। यदि कथित घटना के लिए कोई अन्य स्पष्टीकरण नहीं है, इसलिए संदेह की सुई आरोपी की ओर होगी, लेकिन इतने से ही आरोपी के खिलाफ मुकदमे को आगे बढ़ाने का उचित आधार नहीं हो सकता है।"
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि:
शिकायतकर्ता द्वारा प्राथमिकी दर्ज की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उसकी बेटी (मृतका) 2006 से निहार रंजन प्रधान (पिंटू) के साथ रह रही थी। दोनों अपराध कर रहे थे और कुछ अवसरों पर जेल भी गए थे। वर्तमान याचिकाकर्ता निहार और मृतक के वकील रहे हैं। आरोप था कि निहार की जेल का फायदा उठाकर याचिकाकर्ता ने मृतका से गुपचुप तरीके से शादी कर ली और उसे अपनी पत्नी के रूप में एक घर में रखा।
यह भी आरोप लगाया गया कि मृतका ने जोर देकर कहा था कि उक्त विवाह हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार किया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता ने ऐसा करने का आश्वासन दिया था, लेकिन उसने इसका पालन नहीं किया। जिसके चलते मृतका ने आत्महत्या कर ली। इस तरह के आरोपों के आधार पर आईपीसी की धारा 493/417/306 के तहत मामला दर्ज किया गया था।
जांच पूरी होने पर आईपीसी की धारा 493/417/406/306 के तहत चार्जशीट पेश की गई और उक्त अपराधों का संज्ञान लिया गया। इसके बाद मामला सत्र न्यायालय में ट्रायल के लिए लगाया गया था और यह अभी अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, कटक में लंबित है।
याचिकाकर्ता-आरोपी ने सीआरपीसी की धारा 227 के तहत निचली अदालत में अर्जी दाखिल की और इस आधार पर खुद को आरोपमुक्त करने का अनुरोध किया कि अपराध के आवश्यक तत्व मौजूद नहीं हैं। निचली अदालत ने कानून की स्थापित स्थिति और प्राथमिकी में लगाए गए आरोपों को ध्यान में रखते हुए कहा कि जहां तक आईपीसी की धारा 406 के तहत अपराध का संबंध है, आरोपी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए रिकॉर्ड पर कोई तथ्य नहीं है और तदनुसार उसे उक्त अपराध से मुक्त कर दिया।
हालांकि, यह कहा गया कि रिकॉर्ड पर मौजूद तथ्य प्रथम दृष्टया, आईपीसी की धारा 493/417/306 के तहत आरोपी के खिलाफ आरोपों को संतुष्ट करती है। उक्त आदेश को वर्तमान पुनरीक्षण याचिका में चुनौती दी गई थी।
याचिकाकर्ता की दलीलें:
पुनरीक्षण याचिकाकर्ता के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री एस.एस. दास, ने दलील दी कि आपराधिक अभियोजन एक व्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाला एक गंभीर मामला होता है ओर इस कारण इसे केवल तभी चलाये जाने की अनुमति दी जा सकती है जब रिकॉर्ड पर पर्याप्त तथ्य मौजूद हैं।
प्राथमिकी में लगाए गए आरोपों और सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज गवाहों के बयानों का हवाला देते हुए, यह दलील दी गई कि अभियोजन का मामला, भले ही उसके अंकित मूल्य पर स्वीकार किया गया हो, लेकिन किसी भी तरह से कथित अपराधों को स्थापित नहीं करता है।
उन्होंने 'भारत सरकार बनाम प्रफुल्ल कुमार सामल और अन्य, (1979) 3 SCC 4' में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा जताया, जिसमें यह व्यवस्था दी गयी थी कि कोर्ट को सीआरपीसी की धारा 227 के तहत आरोप तय करते समय यह पता लगाना चाहिए कि क्या आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनाया गया है और क्या ऐसे तथ्य आरोपी के खिलाफ गंभीर संदेह का खुलासा करते हैं। उन्होंने आगे जोर देकर कहा कि केवल संदेह के आधार पर किसी आपराधिक मुकदमे को जारी रखने को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
प्रतिवादी की दलीलें:
पुनरीक्षण याचिका दायर करने वाले की ओर से दी गयी दलीलों के विपरीत, राज्य सरकार के अतिरिक्त स्थायी वकील ए. प्रधान ने दलील कि वर्तमान मामले के तथ्यों से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि न्यायालय के समक्ष यह मानने के लिए पर्याप्त सामग्री है कि आईपीसी की धारा 493/417/306 के तहत अपराध अभियुक्त द्वारा की गई थी और इसलिए, आक्षेपित आदेश में कोई अवैधता नहीं है।
न्यायालय की टिप्पणियां और निर्णय:
कोर्ट ने 'प्रफुल्ल कुमार सामल (सुप्रा)' मामले पर भरोसा जताते हुए कहा कि आरोप तय करने के स्तर पर, कोर्ट का कर्तव्य है कि वह सामने पेश किए गए सबूतों की समीक्षा करे कि क्या आरोपी के खिलाफ आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार है या नहीं।
इसके अलावा, 'बिहार सरकार बनाम रमेश सिंह, (1977) क्रि.एल.जे. 1606' मामलो में दिये गये निर्णय पर भरोसा जताया गया था, जिसमें कहा गया था कि यह संदेह कि आरोपी ने अपराध किया है, साधारण नहीं बल्कि गंभीर होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, कोर्ट द्वारा अभियुक्तों के विरुद्ध आरोप तय करने से पहले केवल 'संदेह' के बजाय एक 'गंभीर संदेह' होना चाहिए।
अंत में, कोर्ट ने 'दिलावर बालू कुराने बनाम महाराष्ट्र सरकार, (2002) 2 एससीसी 135' में निर्धारित कानून पर विचार किया और उसका पालन किया, जिसमें यह कहा गया था कि जहां अदालत के समक्ष रखी गई सामग्री आरोपी के खिलाफ गंभीर संदेह का खुलासा करती है, जिसकी व्याख्या ठीक से नहीं की गयी है, तो कोर्ट आरोप तय करने और मुकदमे को आगे बढ़ाने में पूरी तरह से न्यायसंगत होगा।
कुल मिलाकर यदि दो विचार समान रूप से संभव हैं और न्यायाधीश संतुष्ट है कि उसके सामने पेश किए गए सबूत कुछ संदेह को जन्म देते हैं, लेकिन आरोपी के खिलाफ गंभीर संदेह नहीं है, तो कोर्ट का सीआरपीसी की धारा 227 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करके आरोपी को मुक्त करना पूरी तरह से उचित होगा। इस तरह के उद्देश्य के लिए, उसे बिना पक्ष-विपक्ष की जांच-पड़ताल किए, मामले की व्यापक संभावनाओं, सबूतों के कुल प्रभाव और उसके सामने पेश किए गए दस्तावेजों पर विचार करना होगा ।
कोर्ट ने तदनुसार कहा कि अभियुक्त और घटना के बीच कोई संबंध या सम्पर्क होना चाहिए जो कि न्यायालय के समक्ष रखे गये तथ्यों से परखने या अनुमान लगाने के लिए उपलब्ध है। तभी सीआरपीसी की धारा 227 के अनुसार "पर्याप्त आधार" की वैधानिक आवश्यकता को संतुष्ट समझा जाएगा।
पूर्वोक्त तय कानूनी प्रस्ताव के आलोक में मामले के तथ्यों पर चर्चा के परिणामस्वरूप, कोर्ट ने निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया और आरोपी को आईपीसी की धारा 493/417/306 के तहत अपराधों से मुक्त कर दिया।
केस शीर्षक: शांतनु @ प्रियव्रत सेनापति बनाम उड़ीसा सरकार
केस नंबर: क्रिमिनल रिव्यू नंबर 879/2014
निर्णय दिनांक: 08 मार्च 2022
कोरम: न्यायमूर्ति शशिकांत मिश्रा
याचिकाकर्ता के लिए वकील: वरिष्ठ अधिवक्ता श्री एस.एस. दास के साथ वकील सुमन मोदी, पी.के. घोष, एसएस प्रधान, एम पटनायक और एस प्रधान
प्रतिवादी के लिए वकील: अतिरिक्त स्थायी वकील श्री ए. प्रधान
प्रशस्ति पत्र: 2022 लाइव लॉ (उड़ीसा) 27
ऑर्डर डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें