यूएपीए अधिनियम के तहत किसी को आतंकवादी घोषित करने के सरकार के बेलगाम अधिकार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती

Update: 2020-03-11 08:47 GMT

सुप्रीम कोर्ट में ग़ैरक़ानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम, 1967 (यूएपीए) और ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ संशोधन अधिनियम, 2019 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ता "सॉलिडैरिटी यूथ मूवमेंट" के सचिव हैं और वे यूएपीए के प्रावधानों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहे हैं। उन्होंने इस अधिनियम को ख़तरनाक बताया है और कहा है कि इसका अमूमन दुरुपयोग होता है।

एडवोकेट जैमोन ऐंड्रूज़ के माध्यम से दायर याचिका में कहा गया है कि 2019 में इस अधिनियम में हुए संशोधन जिसके माध्यम से यूएपीए की धारा 35 के तहत किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित किए जाने की परिस्थिति का विस्तार किया गया है, संविधान की मूल बातों का उल्लंघन करता है।

संशोधन से पहले इसमें किसी व्यक्ति को शामिल नहीं किया गया था और सिर्फ़ संगठनों को ही आतंकवादी घोषित किया जा सकता था।

याचिका में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को आतंकवादी बताना उस व्यक्ति की व्यक्तिगत आज़ादी और जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को प्रभावित करता है। इस याचिका में बताया गया है कि इस मनमाने प्रावधान के ख़िलाफ़ कोई सुरक्षात्मक प्रावधान नहीं उपलब्ध कराया गया है।

याचिकाकर्ता ने कहा है कि यूएपीए की धारा 35 में किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने के बारे में उसको लागू करने के स्तर पर केंद्र सरकार की शक्तियों का उल्लेख नहीं किया गया है और इस तरह यह न केवल प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है जिसमें 'दोषी सिद्ध होने तक निर्दोष होने' की बात समाहित है, बल्कि यह नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के बारे में अंतरराष्ट्रीय नियमों का भी उल्लंघन करता है जिसमें निर्दोष होने को वैश्विक मानवाधिकार माना जाता है।

याचिका में कहा गया है कि यूएपीए की धारा 36(4) प्रक्रियात्मक गड़बड़ियां हैं – जैसे, उस व्यक्ति को किसी भी तरह की सूचना नहीं देना या यह नहीं बताना कि उसे किस आधार पर आतंकवादी घोषित किया गया है, और याचिकाकर्ता के अनुसार, यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत जैसे "किसी को भी अपने ही मामले में जज बनाने का अधिकार नहीं है।" (nemo judex in causa sua) और "दूसरे पक्ष को भी सुनने" (audi alteram partem) के ख़िलाफ़ है।

फिर, यह अधिनियम निर्दोष होने का साबित करने का बोझ भी उस व्यक्ति पर ही डालता है जिसको आतंकवादी घोषित किया गया है।

"सबसे बड़ी ख़ामी तो यही है कि साबित करने के बोझ को उलट दिया गया है और उस व्यक्ति को ही खुद को निर्दोष साबित करके सरकार को संतुष्ट करना है कि वह आतंकवादी नहीं है। ऐसा केंद्र सरकार की उस कमिटी के समक्ष की जानी चाहिए जो गजट में यह अधिसूचना प्रकाशित करने से जुड़ी रही है।

इसके अलावा इस धारा में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिससे मौखिक सुनवाई सुनिश्चित करने का कोई अवसर उपलब्ध नहीं कराया गया है और इस तरह यह "किसी को भी अपने ही मामले में जज बनाने का अधिकार नहीं है" (nemo judex in causa sua) और "दूसरे पक्ष को भी सुनने" (audi alteram partem) के प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है, यह बात याचिका में कही गई है।

याचिका में उन बातों का भी ज़िक्र किया गया है जिसके तहत अगर किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित किया जा सकता है। अगर सरकार यह समझती है कि वह आतंकवादी गतिविधियों में शामिल रहा है और इस तरह के वर्गीकरण का कोई तार्किक तरीक़ा नहीं अपनाया गया है।

याचिकाकर्ता ने अधिनियम की धारा 2(o) का ज़िक्र किया है जिसमें "ग़ैरक़ानूनी गतिविधि" को इस तरह से परिभाषित किया गया है कि इसकी परिधि काफ़ी विस्तृत हो गई है। इसके प्रावधान ऐसे शांतिपूर्ण विचारों और सोचने की प्रक्रिया को भी आपराधिक बताता है जो किसी भी तरह से हिंसक नहीं है जैसे कि "ऐसी कोई भी कार्रवाई जिससे भारत के ख़िलाफ़ असंतोष पैदा होता है या पैदा करने की मंशा है।"

"धारा 124A और धारा 2(o) में यह महत्त्वपूर्ण अंतर है, क्योंकि धारा 2(o) शांतिपूर्ण, क़ानूनी गतिविधियों और हिंसक गतिविधियों, जिससे आम जीवन में गड़बड़ी पैदा करने की आशंका होती है, के बीच अंतर नहीं करती।

याचिकाकर्ता ने कहा है कि अलग-अलग अपराधों के लिए निर्धारित दंड के बावजूद सभी अपराधों में न्यायिक हिरासत को 60 दिनों से बढ़ाकर 90 दिन और फिर 180 दिन करना आपराधिक न्याय के ख़िलाफ़ है।

पिछले साल सितंबर में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने यूएपीए की संवैधानिक स्थिति को चुनौती देने की याचिकाओं पर नोटिस जारी किया था। इनमें से एक याचिका एसोसिएशन ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स (एपीसीआर) की भी है जिसने यूएपीए अधिनियम, 1967 की धारा 35 को चुनौती दी है, जिसमें कहा गया है कि यह केंद्र सरकार को किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी बताकर उसे अधिनियम के अनुसूची 4 में शामिल करने का अधिकार देता है।

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