‘पिता धर्म, पिता स्वर्ग’: गुजरात हाईकोर्ट ने 12 साल की बेटी का यौन शोषण करने के आरोपी पिता को संस्कृत का श्लोक याद दिलाया, जमानत नामंजूर की
गुजरात हाईकोर्ट ने अपनी 12 वर्षीय बेटी का कई मौकों पर यौन उत्पीड़न करने के आरोपी एक व्यक्ति को जमानत देने से इनकार कर दिया है।
आरोपी पिता कथित तौर पर पीड़िता-बेटी से शादी करना चाहता था और उसने यह भी धमकी दी थी कि अगर पीड़िता की मां ने छेड़छाड़ की घटनाओं का खुलासा किसी से किया तो वह पूरे परिवार को जान से मार देगा।
जस्टिस समीर जे दवे की एकल पीठ ने आरोपी को जमानत देने से इनकार करते हुए कहा किः
“एक बेटी बाहरी बुराइयों से बचाने के लिए अपने पिता की तरफ उसकी गरिमा की ढाल के रूप में देखती है और जब वही रक्षक जब भक्षक बन जाता हैै, तो परिणाम के रूप में जो आघात पहुंचता है उसका वर्णन भी नहीं किया जा सकता है ... पुरुष प्रभुत्व की अपनी स्थिति को लागू करने एक बच्चे को कुचलने का पाशविक कृत्य और उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का उल्लंघन करना एक जंगली जनजाति का रवैया है न कि सभ्य समाज का।’’
कोर्ट ने कहा,“यह मानव अंतरात्मा को झकझोर देता है जब पिता-पुत्री के रिश्ते की पवित्रता को इतने घिनौने तरीके से तबाह किया जाता है और जब रक्षक ही भक्षक बन जाता है। ऐसे मामले में अपराध अधिक संवेदनशील हो जाता है जिसे बिना सजा दिए नहीं जाने दिया जा सकता है। यह सबसे बड़ा पाप है, जहां सबसे अधिक आर्दशवादी संबंध अपने ही पिता के अत्यधिक विकृत और शर्मनाक कृत्य से बिखर जाते हैं।’’
जस्टिस दवे ने आगे मनुस्मृति और पद्म पुराण से संस्कृत श्लोकों का आह्वान किया, जो एक पिता के अपनी बेटी के लिए महत्व को उजागर करते हैं। जस्टिस दवे ने इस प्रकार उद्धृत किया - 'जनकश्चोपनेता च यक्ष पिद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयत्राता, पश्चैते पितरः स्मृताः।।' अर्थात् ‘जो जन्म देता है, जो दीक्षा देता है, जो ज्ञान प्रदान करता है, जो भोजन प्रदान करता है और भय से रक्षा करता है, ये पांच पिता माने जाते हैं’ और 'पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमम् तपः।' जिसका अर्थ है ‘मेरे पिता मेरे धर्म हैं, मेरे पिता मेरे स्वर्ग हैं, वे मेरे जीवन की परम तपस्या हैं।’
मामला हाईकोर्ट में तब पहुंचा जब आरोपी-पिता ने भारतीय दंड संहिता की धारा 354(ए) 1, 354(बी) और 506(2) रिड विद पॉक्सो एक्ट की धारा 8, 12 और 18 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दर्ज एफआईआर में सीआरपीसी की धारा 439 के तहत जमानत याचिका दायर की।
शिकायत के अनुसार, आरोपी ने अपनी बेटी का हाथ पकड़ लिया, उसे घर में ले गया, अनुचित तरीके से उसके सीने पर हाथ फिराया और उसके साथ शारीरिक रूप से छेड़छाड़ की।
एक अन्य अवसर पर, इस घटना से लगभग एक महीने पहले, उसने कथित तौर पर उसके हाथों को रस्सी से बांध दिया, उसका मुंह बंद कर दिया, उसकी फ्रॉक हटा दी और उसके सीने पर अनुचित तरीके से हाथ फिराया।
हाईकोर्ट के समक्ष अभियुक्त ने तर्क दिया कि पीड़िता की मां ने झूठे आरोप लगाए हैं क्योंकि दोनों के बीच अच्छे पारिवारिक संबंध नहीं हैं। उसने तर्क दिया कि एफआईआर कथित घटना के 25 दिनों के बाद दर्ज करवाई गई थी, जिसका मतलब है कि यह मनगढ़ंत थी। इसके अलावा, उसने तर्क दिया कि पीड़िता के पिता होने के नाते, अभियोजन पक्ष का बयान विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि उसने ऐसा कोई कृत्य नहीं किया है।
दूसरी ओर, प्रतिवादी-राज्य ने तर्क दिया कि अभियुक्त एक बहुत ही गंभीर अपराध में शामिल है और अगर उसे जमानत दे दी गई तो वह इस तरह की गतिविधियों को जारी रखेगा।
हाईकोर्ट ने तर्कों की जांच के बाद कहा किः
‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि अभियोजन पक्ष ने स्पष्ट रूप से वर्तमान आवेदक के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला स्थापित किया है और इस प्रकार, यह न्यायालय सीआरपीसी की धारा 439 के तहत निहित शक्तियों का प्रयोग करने के लिए इच्छुक नहीं है।’’
इस विवाद के बारे में कि एफआईआर अत्यधिक देरी से दर्ज की गई थी, कोर्ट ने तारा सिंह बनाम पंजाब राज्य, एआईआर 1991 एससी 63 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि इससे अभियोजन पक्ष के मामले को अस्वीकृत करने के लिए प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकल सकता है।
केस टाइटल- फकीरमामद हुसैनभाई सुंभनिया बनाम गुजरात राज्य
साइटेशन- आर/आपराधिक मिश्रित आवेदन संख्या-22951/2022
कोरम-जस्टिस समीर जे दवे
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