अगर कोर्ट के स्टाफ़, महाधिवक्ता के कार्यालय के स्टाफ़, या जीपी ऑफ़िस के स्टाफ़ को लोकल ट्रेनों में आने की अनुमति दी गई तो इससे वकीलों के साथ भेदभाव नहीं होता, सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट मेंं कहा
राज्य सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट में हलफ़नामा दायर कर कहा है कि अगर कोर्ट के स्टाफ़, महाधिवक्ता के कार्यालय के स्टाफ़, या जीपी ऑफ़िस के स्टाफ़ को लोकल ट्रेनों या बसों में आने-जाने की अनुमति दी गई तो इससे वकीलों के साथ भेदभाव नहीं होता है।
चिराग़ चनानी, विनय कुमार और सुमित खन्ना की जनहित याचिका पर राज्य की ओर से यह हलफ़नामा किशोर राजे निम्बालकर, सचिव, आपदा प्रबंधन, राहत और पुनर्वास ने दायर की है। याचिकाकर्ताओं ने वकीलों की सेवाओं को आवश्यक सेवाओं में शामिल किए जाने की मांग की है ताकि उन्हें लॉकडाउन के दौरान आने-जाने में सुविधा हो।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि संभागीय रेलवे प्रबंधक के कार्यालय से लोकल ट्रेनों में चलने के बारे में जो नोटिस जारी हुआ उसमें वकीलों की सेवाओं को आवश्यक सेवाओं में नहीं शामिल किया गया है।
हलफ़नामा में याचिका का विरोध करते हुए कहा गया है,
"राज्य सरकार ने वकीलों के क़ानूनी पेशे पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है। इस तरह याचिकाकर्ताओं के न तो कोई मौलिक अधिकार और न ही कोई क़ानून अधिकार पर किसी तरह का प्रतिबंध लगा है कि वे इस तरह की याचिका दायर करें। इस आधार पर ही यह याचिका ऐसी नहीं है कि इस पर ग़ौर किया जा सके और यह ख़ारिज कर दिए जाने के लायक़ है।"
महाराष्ट्र में कोरोना महामारी की स्थिति की ओर इशारा करते हुए निम्बालकर ने कहा कि बसों और लोकल ट्रेन जैसे स्थानीय परिवहन में सीमित संख्या में यात्रियों को यात्रा की अनुमति इसलिए दी गई है ताकि ज़्यादा भीड़ जमा नहीं होने पाए विशेषकर ट्रेनों में क्योंकि इससे COVID-19 के संक्रमण की स्थिति बदतर हो सकती है।
महाधिवक्ता ने कहा,
"याचिकाकर्ताओं ने भेदभाव का आरोप लागाया है क्योंकि कोर्ट के स्टाफ़, महाधिवक्ता के कार्यालय के स्टाफ़, या जीपी ऑफ़िस के स्टाफ़ और हाईकोर्ट के स्टाफ़ को लोकल ट्रेनों में आने की अनुमति दी गई है। यह आरोप लगाया गया है कि प्रतिवादियों ने अनावश्यक रूप से सरकारी वकीलों का वार्गीकरण किया है जो खुद वक़ील हैं और याचिकाकर्ताओं की तरह निजी प्रैक्टिस करते हैं।"
राज्य सरकार ने उपरोक्त तीन कार्यालयों के कर्मचारियों को अनुमति दी है जो खुद न तो वक़ील हैं और न ही अधिवक्ता। ऐसा नहीं है कि सरकारी प्लीडर्स जो खुद अधिवक्ता और वक़ील हैं, को लोकल ट्रेनों में यात्रा की अनुमति है। मेरी राय में उपरोक्त तीनों कार्यालयों के कर्मचारियों और वकीलों/अधिवक्ताओं के बीच कोई तुलना नहीं हो सकती है क्योंकि उनका एक अलग वर्ग है और इसलिए याचिकाकर्ता किसी भी तरह के भेदभाव का आरोप नहीं लगा सकते"।
इसी तरह के एक अन्य मामले में 10 जुलाई को एक अन्य पीठ की सुनवाई में सरकार ने कहा था कि महाराष्ट्र आवश्यक सेवा अधिनियम, 2017 के अनुसार, यह काम राज्य की विधायिका का है कि वह किस सेवा को आवश्यक सेवा मानता है।
श्याम देवानी ने याचिकाकर्ताओं की पैरवी की और अपने जवाब के लिए एक सप्ताह का वक्त मांगा जो उन्हें दे दिया गया। अब इस मामले की अगली सुनवाई 31 जुलाई को होगी।
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