'सात साल से दया याचिकाओं पर फैसला नहीं': बॉम्बे हाईकोर्ट ने दो महिलाओं की मौत की सजा उम्रकैद में बदली

Update: 2022-01-18 08:29 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट ने इक्कीस साल बाद बच्चों के अपहरण और उनकी हत्या के इल्जाम में मौत की सजा पाई दो बहनों की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। सौतेली बहनों रेणुका शिंदे और सीमा गावित को 13 बच्चों के अपहरण और उनमें से कम से कम पांच की हत्या के लिए मौत की सजा सुनाई गई थी।

बॉम्बे हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बरकरार रखने के 16 साल बाद उनकी सजा को उम्रकैद में बदल दिया।

जस्टिस नितिन जामदार और जस्टिस सारंग कोतवाल की खंडपीठ ने उनकी मृत्युदंड को कम करने के लिए उनकी दया याचिकाओं के निपटारे में राष्ट्रपति द्वारा अत्यधिक देरी का हवाला दिया।

पीठ ने कहा,

"कानून की स्थिति है कि दया याचिकाओं के निपटान में एक अस्पष्टीकृत देरी के परिणामस्वरूप मौत की सजा को कम किया जा सकता है। इस कानूनी स्थिति के बावजूद केवल अधिकारियों के कारण प्रतिवादी का कहना है कि दया याचिकाओं पर सात साल, 10 महीने और 15 दिन बाद भी फैसला नहीं किया गया। यद्यपि दया याचिकाओं पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में गति और समीचीनता अनिवार्य है, लेकिन राज्य तंत्र ने प्रत्येक चरण में उदासीनता और शिथिलता दिखाई। इस तरह के गंभीर मुद्दे की फाइलों की आवाजाही में सात साल लग गए। एक ऐसे समय में जब इलेक्ट्रॉनिक संचार उपयोग के लिए उपलब्ध हो, वहां यह अस्वीकार्य है। राज्य सरकार का यह तर्क कि उन्हें आज फांसी दी जानी चाहिए, यह इस बात को नज़रअंदाज़ कर देता है कि मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदलने का कारण उसके अधिकारियों का अपमान है।"

महत्वपूर्ण रूप से न्यायालय ने नोट किया:

"राज्य सरकार एक आपराधिक न्याय प्रणाली में समाज के हित का प्रतिनिधित्व करता है। प्रतिवादी राज्य ने न केवल याचिकाकर्ताओं के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया, बल्कि इस तरह के जघन्य अपराध के निर्दोष पीड़ितों को भी अनदेखा किया।"

हाईकोर्ट ने हालांकि याचिकाकर्ताओं की रिहाई की प्रार्थना को खारिज कर दिया और दावा किया कि उन्होंने 25 साल जेल में बिताए। इस तरह की राहत केवल राज्य द्वारा छूट के रूप में दी जा सकती है।

कोर्ट ने आगाह किया,

"किया गया अपराध जघन्य है, लेकिन दिखाई गई क्रूरता की निंदा शब्दों से परे है।"

दोषियों ने 2014 में बॉम्बे हाईकोर्ट के समक्ष एक पुनर्विचार याचिका दायर की थी। इसमें राष्ट्रपति द्वारा उनकी दया याचिका पर निर्णय लेने में लगभग आठ साल की देरी का हवाला दिया गया था। बॉम्बे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने क्रमशः 2004 और 2006 में उनकी मौत की सजा की पुष्टि की थी।

बॉम्बे हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने 2014 में ही उनकी याचिका को स्वीकार कर लिया और राज्य ने अंतिम फैसले तक उन्हें निष्पादित नहीं करने का वचन दिया। हालांकि, याचिका पर अंततः अक्टूबर-दिसंबर 2021 तक ही सुनवाई हुई।

सुनवाई के दौरान, अदालत ने याचिका स्वीकार किए जाने के बाद मामले के संचलन की मांग नहीं करने के लिए राज्य सरकार की खिंचाई की। पीठ ने कहा कि मामले को शुरू में 2015 में अंतिम सुनवाई के लिए पोस्ट किया गया।

बहनों का मामला शत्रुघ्न चौहान बनाम यूओआई में सुप्रीम कोर्ट के 2014 के तीन-न्यायाधीशों की पीठ के ऐतिहासिक फैसले पर टिका हुआ है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा से संबंधित दिशा-निर्देश जारी किए और 15 दोषियों की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया।

अदालत ने फैसला सुनाया कि राष्ट्रपति द्वारा दया याचिकाओं पर निर्णय लेने में अत्यधिक देरी यातना के समान है। साथ ही संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का उल्लंघन और अपराध की गंभीरता अप्रासंगिक है।

मामला

बहनों को नवंबर 1996 में कोल्हापुर से 13 बच्चों के अपहरण और उनमें से नौ की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। मामले की एक अन्य आरोपी उनकी मां अंजना की 1998 में ही बीमारी के चलते मौत हो गई थी। सत्र न्यायालय ने बहनों को छह बच्चों की हत्या का दोषी ठहराया था। हालांकि, हाईकोर्ट ने पांच की हत्या के फैसले को बरकरार रखा।

तीनों मां-बेटियां बच्चों का अपहरण करती थी, उन्हें भूखा रखते थी और जेब काटने के लिए इस्तेमाल करते थी। एक बार जब बच्चों ने पर्याप्त मात्रा में पैसा चोरी नहीं किया तो उनकी बेरहमी से हत्या कर दी गई। अंजना ने एक युवा लड़का रोना बंद करने के लिए उसका सिर बिजली के खंभे से टकरा दिया, जिससे उसकी मौत हो गई। एक और बच्चे को उल्टा लटका दिया गया। शिंदे का पति किरण, जो इस अपराध में एक सहयोगी था, सरकारी गवाह बन गया और बाद में बरी कर दिया गया।

बहस

मूल रूप से बहनों का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता सुदीप जायसवाल का 2019 में निधन हो गया। इसके बाद पिछले साल अधिवक्ता अनिकेत वागल ने मामले की पैरवी की। वागल ने तर्क दिया कि उनकी दया याचिकाओं पर फैसला करने में आठ साल की देरी संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। यह देरी "अनुचित, क्रूर और अत्यधिक" है। और इसने "उन्हें अत्यधिक मानसिक यातना, भावनात्मक और शारीरिक पीड़ा" दी थी। इसलिए फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला जाना चाहिए।

उन्होंने तर्क दिया,

"वे 20 से ज्यादा सालों से मृत्यु के भय में जी रही हैं।"

केंद्र सरकार की ओर से पेश अधिवक्ता संदेश पाटिल ने कहा कि दया याचिकाओं पर फैसला करने में केंद्र या भारत के राष्ट्रपति की ओर से कोई देरी नहीं हुई। उन्होंने कहा कि 2012 और 2013 में महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा उनकी दया याचिका खारिज करने के तुरंत बाद कागजात राष्ट्रपति को भेज दिए गए।

पाटिल ने तर्क दिया,

"10 महीने के भीतर राष्ट्रपति ने दया याचिका खारिज कर दी।"

मुख्य लोक अभियोजक अरुणा पई द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए राज्य ने याचिकाओं को खारिज करने की मांग की और मौत की सजा का समर्थन किया। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि राज्यपाल या राष्ट्रपति की दया याचिकाओं को तय करने में राज्य की ओर से कोई अनुचित देरी नहीं हुई।

एक विस्तृत उत्तर में यह बताते हुए कि दया याचिकाओं में देरी कैसे हुई, राज्य ने दावा किया कि बहनों ने विभिन्न अधिकारियों के समक्ष बार-बार दया याचिका दायर करके कुछ भ्रम पैदा किया।

राज्य के हलफनामे में कहा गया,

"जो भी देरी हुई है, वह प्रक्रिया को पूरा करने के लिए हुई है, जैसा कि प्रत्येक स्तर पर पालन करने की आवश्यकता है। यदि कोई देरी हुई भी तो वह किसी भी स्तर पर जानबूझकर नहीं की गई।"

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