सिविल विवादों को निपटाने के लिए दाखिल बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर विचार नहीं किया जा सकता, यह हाईकोर्ट के कानूनी अधिकार का दुरुपयोग: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर बेंच ने शुक्रवार को एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus Petition) के मामले में यह टिप्पणी की कि पार्टियों के सिविल विवादों को निपटाने के लिए, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर विचार अदालत द्वारा नहीं किया जा सकता।
न्यायमूर्ति जी. एस. अहलुवालिया की एकल पीठ ने यह स्पष्ट किया कि ऐसी याचिका का मनोरंजन करना स्पष्ट रूप से इस न्यायालय के कानूनी अधिकार का दुरुपयोग होगा।
क्या था यह मामला?
भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत यह याचिका, बंदी प्रत्यक्षीकरण की प्रकृति में दायर की गई थी। आरोप यह लगाया गया कि याचिकाकर्ता-पति की पत्नी को जनवरी 2019 से उसके माता पिता (निजी उत्तरदाताओं संख्या 4 से 13) द्वारा अपने पास अवैध रूप से रखा जा रहा है।
यह भी प्रस्तुत किया गया कि याचिकाकर्ता का विवाह 18-4-2018 को हुआ था, लेकिन जनवरी, 2019 के महीने में उसकी पत्नी अपने पैतृक घर गई और उसने याचिकाकर्ता को यह सूचित किया कि वह वापस नहीं आना चाहती है, इसलिए, याचिकाकर्ता ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत वैवाहिक संबंधों की बहाली (restitution of conjugal rights) हेतु अदालत में एक आवेदन दायर किया।
हालांकि, याचिकाकर्ता की पत्नी अपने वैवाहिक घर (याचिकाकर्ता के साथ) वापस आने के लिए सहमत नहीं थी, इसलिए, याचिकाकर्ता ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 दायर के तहत दायर किए गए आवेदन को वापस ले लिया।
इसके बाद, आपसी सहमति से तलाक ग्रांट करने के लिए हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी के तहत याचिकाकर्ता द्वारा एक आवेदन दायर किया गया था। हालांकि, याचिकाकर्ता की पत्नी कोर्ट में पेश नहीं हो रही है।
याचिकाकर्ता ने अदालत को सूचित किया कि "पत्नी याचिकाकर्ता के पास लौटना चाहती है, लेकिन उसके माता-पिता ने उसे अवैध रूप से अपने पास रखा हुआ है।"
याचिकाकर्ता के वकील द्वारा अदालत के समक्ष यह प्रस्तुत किया गया कि याचिकाकर्ता (पति) को एक करीबी रिश्तेदार द्वारा यह सूचित किया गया है कि वास्तव में, याचिकाकर्ता की पत्नी याचिकाकर्ता के साथ रहना चाहती है, लेकिन उसके माता-पिता (पत्नी के) ने उसे अवैध रूप से अपने पास रखा हुआ है और इसीलिए यह याचिका हाईकोर्ट के समक्ष बंदी प्रत्यक्षीकरण की प्रकृति में दायर की गई और पत्नी के माता पिता को मामले में निजी उत्तरदाताओं (संख्या 4 से 13) के रूप में जोड़ा गया।
हालाँकि, याचिकाकर्ता-पति के वकील ने स्पष्ट रूप से यह माना कि उक्त सूचना देने वाले का नाम रिट याचिका में प्रकट नहीं किया गया है और वह उसका नाम भी नहीं बता सकते हैं क्योंकि उस कथित मुखबिर ने याचिकाकर्ता-पति को यह निर्देश दिया है कि वह उसके नाम का खुलासा न करे अन्यथा याचिकाकर्ता की पत्नी के माता-पिता के साथ उसके संबंध खराब हो जाएंगे
इसके पश्च्यात, यह प्रस्तुत किया गया और अदालत से यह मांग की गयी कि याचिकाकर्ता-पति की पत्नी को न्यायालय के समक्ष पेश होने का निर्देश दिया जा सकता है, जिससे वह अपना बयान दे सके।
अदालत का मत
अदालत ने मुख्य रूप से अपने आदेश में यह देखा कि
"बंदी प्रत्यक्षीकरण की प्रकृति की याचिका उन मामलों में दायर की जानी चाहिए, जहां कॉर्पस उत्तरदाताओं की अवैध कारावास/हिरासत (confinement/custody) में हो। पार्टियों के सिविल विवादों को निपटाने के लिए, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का मनोरंजन/पर विचार अदालत द्वारा नहीं किया जा सकता है और यह इस न्यायालय के वैध अधिकार का स्पष्ट दुरुपयोग है।"
अदालत ने इस बात पर भी गौर किया कि याचिकाकर्ता-पति ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत एक आवेदन दायर किया था लेकिन उसने अंततः उसे वापस ले लिया। याचिकाकर्ता के अनुसार, उसकी पत्नी आपसी सहमति से तलाक देने के लिए हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी के तहत कार्यवाही में भी दिखाई नहीं दी।
आगे अदालत ने यह भी देखा कि
"याचिकाकर्ता की पत्नी निर्विवाद रूप से अपने माता-पिता के साथ पिछले एक साल से अधिक समय से रह रही है। यह नहीं कहा जा सकता है कि याचिकाकर्ता की पत्नी उनके अवैध कारावास/हिरासत में है। हिन्दू मैरिज एक्ट की धारा 9 की याचिका को वापस क्यों लिया गया, यह इस अदालत को ज्ञात नहीं है और याचिकाकर्ता ने पहले से ही एक प्रभावकारी उपाय (वैवाहिक संबंधों की बहाली की याचिका) को वापस ले लिया है, जो उसे उपलब्ध था।"
अदालत ने अंत में यह कहा कि
"यह न्यायालय की राय है कि याचिकाकर्ता इस न्यायालय को प्रथम दृष्टया संतुष्ट करने में विफल रहा है, कि उसकी पत्नी अपने माता-पिता की अवैध हिरासत/कारावास में है।"
तदनुसार, याचिकाकर्ता की याचिका को विफल करार करते हुए अदालत ने उसे खारिज कर दिया।
केस विवरण
केस नंबर: WP No.10212/2020
केस शीर्षक: नीरेंद्र सिंह राना बनाम मध्यप्रदेश राज्य
कोरम: न्यायमूर्ति जी. एस. अहलुवालिया
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