घरेलू हिंसा अधिनियम- कानूनी प्रतिनिधि मृतक महिला की ओर से मौद्रिक राहत की मांग नहीं कर सकतेः बॉम्बे हाईकोर्ट
बॉम्बे हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि एक पीड़ित या व्यथित व्यक्ति, (जैसा कि घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम (डीवी एक्ट) के तहत परिभाषित किया गया है) ''याचिका दायर करने के समय जीवित होना चाहिए'' और उसके निधन के बाद कोई भी व्यक्ति अधिनियम के तहत मौद्रिक राहत के लिए आवेदन दायर नहीं कर सकता है।
जस्टिस संदीप शिंदे ने पिछले सप्ताह एक फैसले में, एक नाबालिग लड़की (उसकी नानी के माध्यम से) द्वारा ''अपनी माँ की ओर से'' दायर उस आवेदन को खारिज कर दिया है, जिसमें उसके पिता और दादा-दादी के खिलाफ मौद्रिक राहत, स्त्रीधन वापस दिलाए जाने और मुआवजे की मांग की गई थी।
याचिकाकर्ता कनक सप्रे की तरफ से मुख्य तर्क यह दिया गया कि डीवी अधिनियम की धारा 12 में ''पीड़ित व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति'' वाक्याशं का उपयोग किया गया है, जो मजिस्ट्रेट के समक्ष एक आवेदन प्रस्तुत करने के बारे में बताता है।
जस्टिस शिंदे ने रिट याचिका को खारिज करते हुए कहा कि,
''डीवी एक्ट के तहत मौद्रिक राहत, सुरक्षा आदेश और मुआवजे का दावा करने के अधिकार, एक 'पीड़ित व्यक्ति' के व्यक्तिगत-वैधानिक और अपरिहार्य अधिकार हैं। ये अधिकार ''पीड़ित व्यक्ति'' की मृत्यु पर समाप्त हो जाते हैं। इस कारण से, यह अधिकार ''पीड़ित व्यक्ति'' के कानूनी प्रतिनिधियों द्वारा लागू नहीं करवाए जा सकते हैं।''
अदालत ने यह भी कहा कि अधिनियम के कथन, उद्देश्य और कारणों के मद्देनजर ''पीड़ित व्यक्ति'' शब्द का अर्थ प्रतिबंधात्मक होना चाहिए। ''परिभाषित वाक्यांश ''पीड़ित व्यक्ति'' समावेशी नहीं है और इस प्रकार व्याख्यात्मक स्पष्टीकरण की प्रक्रिया द्वारा, (याचिकाकर्ताओं द्वारा दिए गए सुझाए के अनुसार) इसके दायरे का विस्तार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह अधिनियम की योजना और उद्देश्य के विपरीत होगा और कानून के इरादे को परास्त कर देगा।''
अदालत ने आगे कहा कि,
''अधिनियम पीड़ित व्यक्ति की ओर से किसी अन्य व्यक्ति'' को एक आवेदन दायर करने की अनुमति देता है, लेकिन ''अन्य व्यक्ति'' एक ''पीड़ित व्यक्ति'' से स्वतंत्र रूप से एक आवेदन को दायर नहीं कर सकता है। ''वास्तव में, डीवी अधिनियम की धारा 12, ''पीड़ित व्यक्ति'' को ''किसी अन्य व्यक्ति'' के माध्यम से अधिनियम के तहत एक आवेदन प्रस्तुत करने में सक्षम बनाती है। लेकिन अधिनियम की योजना के अनुसार ''पीड़ित व्यक्ति'' को आवेदन पेश करते समय जीवित (जिंदा) होना चाहिए।''
मामले के विवरण के अनुसार, सुचिता और केदार की शादी नवंबर 2009 में हुई थी और अक्टूबर 2012 में उनकी बेटी का जन्म हुआ था। लंबी बीमारी के बाद अक्टूबर 2013 में सुचिता का निधन हो गया। नाबालिग बेटी (अपनी नानी के माध्यम से) ने पुणे में न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी के समक्ष एक आवेदन दायर कर आरोप लगाया कि सुचिता का उसके पति और ससुराल वालों ने ठीक से ध्यान नहीं रखा था।
आवेदन में आरोप लगाया गया कि, ''प्रतिवादियों द्वारा उसे शारीरिक, मौखिक और आर्थिक प्रताड़ना दी गई, जिसके कारण वह गंभीर रूप से बीमार हो गई और अप्रैल, 2013 में उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया और 27 अक्टूबर, 2013 को उसका निधन हो गया।'' उस समय भी उसके माता-पिता ही उसकी देखभाल कर रहे थे।
आगे यह भी आरोप लगाया गया कि पति केदार और उसके माता-पिता ने सुचिता के जीवनकाल में और यहां तक कि उसकी बीमारी के दौरान भी देखभाल करने की जहमत नहीं उठाई और सुचिता की मां ने सुचिता के इलाज पर 60 लाख रूपये खर्च किए। इतना ही नहीं उसने शादी में सोने के गहने भी गिफ्ट किए थे, जो सास के पास रखे हैं।
डीवी एक्ट के तहत दायर आवेदन में सभी गहने,सुचिता के इलाज पर खर्च किए गए 60 लाख रुपये और कनक व उसकी नानी को मुआवजे के रूप में प्रत्येक को 50-50 लाख रूपये दिलाए जाने की मांग की गई थी। मार्च, 2019 में जेएमएफसी ने इस आवेदन को खारिज कर दिया था और बाद में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, पुणे ने मार्च, 2021 में इस फैसले की पुष्टि की थी। इसके बाद नाबालिग बेटी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
जस्टिस शिंदे ने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने पीड़ित व्यक्ति होने का दावा नहीं किया है,बल्कि वह मृतका की ओर से अपने अधिकार का दावा कर रही हैं, जो उनके अनुसार ''पीड़ित व्यक्ति'' थी। अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता ''मृतक सुचिता के उन व्यक्तिगत अधिकारों को लागू करने की मांग कर रही है, जो उसने अपने जीवनकाल में कभी नहीं मांगे थे'', जिसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है।
केस का शीर्षक-कनक केदार सप्रे व अन्य बनाम केदार नरहर सप्रे
उद्धरण - 2022 लाइव लॉ (बीओएम) 4
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