कानून की अनुपस्थिति में हेट स्पीच को परिभाषित नहीं किया जा सकता : कर्नाटक हाईकोर्ट
कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि किसी विशिष्ट कानून की अनुपस्थिति में अदालत के लिए यह उचित नहीं होगा कि वह हेट स्पीच का वास्तविक विश्लेषण करे या फिर उसे ठोस परिभाषा दे।
यह टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें मीडिया घरानों और राजनीतिक नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की गई थी। याचिका में आरोप लगाया गया था कि यह सभी कथित रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं।
कैंपेन अगेंस्ट हेट स्पीच नामक एक अपंजीकृत संगठन ने यह जनहित याचिका दायर की थी। इस संगठन से उच्च कुशल शिक्षाविद, वकील और विभिन्न पेशों से संबंध रखने वाले नागरिक जुड़े हुए हैं। याचिका में मांग की गई थी कि प्रतिवादियों को निर्देश दिया जाए कि वे अपने समाचार चैनलों पर प्रसारित भड़काऊ वीडियो और रिपोर्टों को तुरंत हटा लें।
याचिका के साथ समाचार चैनल जैसे टाइम्स नाउ, रिपब्लिक टीवी, सीएनएन-न्यूज 18 में आयोजित किए गए डिबेट की क्लिपिंग और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर दिए गए बयानों और समाचार चैनलों में सांसदों व एमएलए द्वारा दिए गए साक्षात्कारों की क्लिपिंग भी पेश की गई थी।
यह तर्क भी दिया गया था कि प्रतिवादी ऐसी सामग्री को सेंसर करने में विफल रहे, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ, विशेष रूप से लोगों के जीवन और आजीविका के अधिकार का।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील हरीश बी नरसप्पा ने दलील दी कि कुछ राजनीतिक हस्तियों द्वारा दिए गए भड़काऊ और गैर जिम्मेदाराना भाषणों और मीडिया हाउसों की रिपोर्टों के खिलाफ शिकायत की गई थी। इन सभी ने आरोप लगाया गया था कि COVID19 महामारी के प्रसार के लिए समाज का एक वर्ग जिम्मेदार है।
इस मामले पर गहराई से विचार करने से इनकार करते हुए न्यायमूर्ति बी वी नागरथना और न्यायमूर्ति एम जी उमा की खंडपीठ ने कहा कि-
''चूंकि संसद ने अभी तक 'हेट स्पीच' की अवधारणा पर कानून बनाना उचित नहीं समझा है और जिसके अभाव में 'हेट स्पीच' की अब तक कोई परिभाषा नहीं है, इसलिए यह न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते हुए सिर्फ इसलिए निर्देश जारी नहीं कर सकता, क्योंकि हेट स्पीच का प्रभाव समाज पर सामान्य तौर पर पड़ा है या समाज के कुछ वर्गों पर।''
याचिकाकर्ता-संगठन ने एक अंतरिम राहत भी मांगी थी, जिसमें कहा गया था कि कर्नाटक पुलिस के डीजीपी और आईजी को निर्देश दिया जाए कि वह मीडिया रिपोर्टों के संबंध में एक एफआईआर दर्ज करे, क्योंकि इन रिपोर्ट में आईपीसी की धारा 153 ए, 153 बी, 295-ए,298 और 505 (2) का उल्लंघन हुआ है।
हालांकि कोर्ट ने ऐसी कोई राहत देने से इनकार करते हुए कहा कि-
''शुरुआत में ही हमने यह कह दिया था कि कुछ मांग अस्पष्ट हैं। वहीं जो अंतरिम प्रार्थनाएं की गई हैं, वे संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर रिट याचिका में नहीं की जा सकती। याचिकाकर्ताओं ने यहां सीआरपीसी के प्रावधानों के तहत शिकायतें दर्ज नहीं की है।"
इसके लिए पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला भी दिया।
सरकार की ओर से पेश एएजी आर.सुब्रमण्य और एएसजी एम.बी नरगुंड ने इस दलील का विरोध करते हुए कहा कि याचिका वास्तव में एक ''पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन'' हैं। अगर किसी भी शिकायतकर्ता को कोई पीड़ा हुई थी तो इसके लिए उचित उपाय सीआरपीसी के प्रावधानों के तहत मिलेगा।
इन दलीलों के साथ सहमति जताते हुए पीठ ने कहा कि-
''सुधीर भास्करराव ताम्बे के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यदि किसी व्यक्ति की यह शिकायत है कि उसकी प्राथमिकी पुलिस ने दर्ज नहीं की या फिर दर्ज कर ली गई है परंतु उचित जांच नहीं की गई है, तो इस पीड़ित व्यक्ति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक रिट याचिका दायर करने का उपाय नहीं मिल जाता है। बल्कि उसे सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रेट के पास जाना चाहिए या वहां अर्जी दायर करनी चाहिए।''
वहीं मीडिया घरानों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश देने के संबंध में पीठ ने कहा कि-
''भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में ' भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता'को मान्यता दी गई है जिसमें 'प्रेस की स्वतंत्रता' भी शामिल है। उक्त स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में वर्णित उचित प्रतिबंधों के अधीन है ... इस प्रकार, यदि राज्य या केंद्र सरकार को लगता है कि भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार के खिलाफ उचित प्रतिबंध होना चाहिए, तो इन प्रतिबंधों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत कहीं गई बातों के आधार पर उचित ठहराना होगा।
बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के मामले में संघ या राज्य सरकार शुरू की गई उस कार्रवाई की अनुमति होगी जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के मापदंडों के भीतर उचित होगी।''
पीठ ने यह भी कहा कि-
''वर्तमान परिदृश्य में, चूंकि संसद ने अभी तक हेट स्पीच की अवधारणा पर कानून बनाना उचित नहीं समझा है और इस कानून के अभाव में 'हेट स्पीच' की कोई परिभाषा नहीं है, इसलिए यह न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते हुए सिर्फ इसलिए निर्देश जारी नहीं कर सकता है क्योंकि हेट स्पीच का प्रभाव समाज पर सामान्य तौर पर पड़ा है या समाज के कुछ वर्गों पर।''
पीठ ने यह भी स्पष्ट किया है कि व्यथित व्यक्तियों को पहले ही विभिन्न अधिनियमों के तहत काफी सारे अधिकार और उपचार दिए जा चुके हैं। जिनके तहत वह उन भाषणों या विचारों के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं,जिनको वह हेट स्पीच मानते हैं।
पीठ ने कहा कि-भारतीय दंड संहिता,जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1951 , सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000, अंनलॉफुल एक्टिविटी (प्रीवेंशन) एक्ट 1967, प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट एक्ट 1955,रिलिजस इंस्ट्टिूशन (प्रीवेंशन ऑफ मिसयूज) एक्ट 1980,
केबल टेलीविजन नेटवर्क (रेगुलेशन) एक्ट 1995, केबल टेलीविजन नेटवर्क (रूल्स) 1994, दा सिपिमटाग्रफर एक्ट 1952 और सीआपीसी 1973 आदि कानून पहले से ही उपलब्ध हैं। इनके तहत कोई भी पीड़ित व्यक्ति कानून के अनुसार कार्रवाई की मांग कर सकता है।''
पीठ ने कहा कि केंद्र सरकार ने पहले ही निजी उपग्रह टीवी चैनलों को यह निर्देश जारी कर दिए थे कि वह भारत के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ''सांप्रदायिक सद्भाव'' को बढ़ावा दें।
पीठ ने निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि ''इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि संसद ने पहले ही हेट स्पीच के मामले में व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त और प्रभावी उपाय प्रदान कर रखे हैं। ऐसे में कोई भी पीड़ित व्यक्ति अगर किसी बयानबाजी या भाषण से दुखी है तो वह आपराधिक कानून का सहारा ले सकता है।''
मामले का विवरण-
केस का शीर्षक- कैंपेन अगेंस्ट हेट स्पीच व अन्य बनाम स्टेट आॅफ कर्नाटक व अन्य
केस नंबर-डब्ल्यूपी नंबर 6749/2020
कोरम- न्यायमूर्ति बी वी नागरथना और न्यायमूर्ति एम जी उमा
प्रतिनिधित्व-एडवोकेट हरीश बी नरसप्पा (याचिकाकर्ता के लिए), एएजी आर.सुब्रमण्य साथ में एजीए टीएल किरण व एएसजी एम.बी नरगुंड (प्रतिवादियों के लिए)
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