अगर कोई आरोपी पहले से ही किसी अन्य अपराध के कारण न्यायिक हिरासत में है तो क्या उसकी अग्रिम जमानत याचिका सुनवाई योग्य है? -बॉम्बे हाईकोर्ट ने व्याख्या की

Update: 2021-12-15 04:18 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि एक आरोपी को अग्रिम जमानत दी जा सकती है, भले ही वह किसी अन्य अपराध के सिलसिले में जेल में हो, और एक आरोपी के खिलाफ दर्ज किए गए हर मामले का फैसला उसके मैरिट के आधार पर करना होगा।

दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत के लिए एक याचिका पर फैसला सुनाते समय कोर्ट के सामने सवाल यह था कि "क्या एक आरोपी की अग्रिम जमानत याचिका सुनवाई योग्य है जो पहले से ही गिरफ्तार है और किसी अन्य अपराध में मजिस्ट्रेट की हिरासत में है?"

न्यायमूर्ति वीजी बिष्ट ने कहा कि न तो सीआरपीसी और न ही कोई अन्य क़ानून सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय, जैसा भी मामला हो, किसी अन्य अपराध में पहले से ही हिरासत में किसी व्यक्ति की अग्रिम जमानत याचिका पर निर्णय लेने से रोकता है।

पीठ ने कहा,

"अभियुक्त को कई मामलों में गिरफ्तार होने पर भी, उसके खिलाफ दर्ज किए गए प्रत्येक अपराध में अदालत जाने का पूरा अधिकार है, इस तथ्य के बावजूद कि वह पहले से ही हिरासत में है, लेकिन अलग-अलग अपराध के लिए है।"

कोर्ट ने आगे कहा कि आवेदनों को सुनना होगा और एक अन्य अपराध से स्वतंत्र मैरिट के आधार पर फैसला करना होगा, जिसमें वह पहले से ही हिरासत में है।

हाईकोर्ट ने इसे देखते हुए सत्र न्यायालय के समक्ष याचिकाकर्ता के अग्रिम जमानत याचिका पर पुन: निर्णय का निर्देश दिया।

अदालत ने कहा कि सत्र न्यायाधीश सीआरपीसी की धारा 438 की ठीक से व्याख्या करने में विफल रहे। इसने न्यायाधीशों को व्याख्या की आड़ में कानून के प्रावधानों को एक अलग अर्थ देने से आगाह किया।

पीठ ने कहा,

"जो नहीं कहा गया है उसका अनुमान तब तक नहीं लगाया जा सकता जब तक कि प्रावधान खुद अटकलों के लिए जगह नहीं देता है। अगर इरादे के पीछे का उद्देश्य अस्पष्टता के बिना स्पष्ट है, तो अनुमान के लिए कोई जगह नहीं है।"

पूरा मामला

याचिकाकर्ता अलनेश सोमजी ने पुणे शहर के डेक्कन पुलिस स्टेशन में पंजीकृत भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 406, 420 और 34 के तहत आपराधिक विश्वासघात और धोखाधड़ी के अपराधों के संबंध में अग्रिम जमानत के लिए हाईकोर्ट का रुख किया।

सोमजी की ओर से अधिवक्ता सुबोध देसाई ने प्रस्तुत किया कि पुणे सत्र न्यायाधीश ने उनके मुवक्किल की जमानत याचिका सुनवाई योग्य नहीं है कहकर गलत तरीके से खारिज कर दिया।

इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि न्यायाधीश ने अग्रिम जमानत के लिए सीआरपीसी की धारा 438 के दायरे में प्रतिबंधात्मक व्याख्या देने में गलती की।

राज्य के वकील पी.पी.शिंदे ने नरिंदरजीत सिंह साहनी के मामले में फैसले पर भरोसा करते हुए तर्क दिया कि अग्रिम जमानत आवेदन जीवित नहीं रहेगा।

न्यायमूर्ति बिष्ट ने कहा,

"सम्मान के साथ, मैं उक्त विचार से सहमत नहीं हूं।"

टिप्पणियां

न्यायमूर्ति बिष्ट ने शुरुआत में कहा कि प्रत्येक कानून न्याय के लक्ष्य को बढ़ावा देने और आगे बढ़ाने के लिए बनाया गया है।

सीआरपीसी की धारा 438 को पुन: प्रस्तुत करने के बाद अदालत ने माना कि केवल विशेष क़ानून हैं, जिनके तहत अग्रिम जमानत के आवेदनों पर विचार या अनुमति नहीं दी जा सकती है।

इनमें बलात्कार के अपराध और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 जैसे विशेष क़ानून शामिल हैं।

कोर्ट ने सुशीला ए अग्रवाल एंड अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया। इसमें कोर्ट ने माना था कि यदि व्यक्ति को उसी अपराध के लिए पहले ही गिरफ्तार किया गया है तो एक अग्रिम जमानत याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगा।

अग्रवाल और गुरबख्श सिंह सिब्बिया के फैसले ने पीठ को यह निष्कर्ष निकाला कि आवेदक कोरेगांव पार्क पुलिस स्टेशन में दर्ज एक मामले के संबंध में हिरासत में है और उसे वर्तमान प्राथमिकी में गिरफ्तार किया जाना बाकी है। इसलिए वह जमानत के हकदार हैं।

कोर्ट ने कहा कि नरिंदरजीत सिंह साहनी एंड अन्य मामला अनुच्छेद 32 के संबंध था, जिसमें सीआरपीसी की धारा 438 की प्रकृति में राहत मांगी गई थी और उस फैसले ने भी स्पष्ट शब्दों में यह नहीं कहा गया है कि अगर आरोपी को किसी अन्य अपराध में गिरफ्तार किया जाता है तो सीआरपीसी की धारा 438 के तहत याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।

केस का शीर्षक: अलनेश अकील सोमजी बनाम महाराष्ट्र राज्य

प्रस्तुतकर्ता:

सुबोध देसाई ए / डब्ल्यू कार्तिक गर्ग, अजय वजीरानी, अमेया देवस्थले और साहिल नामावती आई/बी आवेदक के लिए लेक्सिकॉन लॉ पार्टनर्स।

पी.पी.शिंदे, एपीपी के रूप में प्रतिवादी-राज्य के लिए।

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