[विभागीय कार्रवाई] आदेश की वैधता की जांच करते हुए कोर्ट को प्रक्रिया में खामियों की पहचान करनी चाहिए, बजाय अपीलीय प्राधिकारी के रूप में निर्णय पर विचार करेः पटना हाईकोर्ट

Update: 2023-03-18 12:34 GMT

Patna High Court

पटना हाईकोर्ट ने हाल ही एक फैसले में कहा कि विभागीय जांच में सजा के आदेश की वैधता की जांच करते समय, न्यायालय को निर्णय लेने की प्रक्रिया में खामियों की पहचान करने पर ध्यान देना चाहिए, बजाय इसके कि वह एक अपीलीय प्राधिकारी के रूप में निर्णय पर ही विचार करने लगे।

जस्टिस अनिल कुमार सिन्हा की पीठ इस मामले में, मुख्य अभियंता (केंद्रीय), जल संसाधन विभाग, बिहार सरकार द्वारा पारित एक आदेश के खिलाफ दायर एक रिट याचिका पर विचार कर रही थी। आदेश में एक विभागीय कार्यवाही में याचिकाकर्ता पर 5% पेंशन रोकने का दंड आदेश लगाया गया था।

मामले के तथ्यों के अनुसार, 1989 में याचिकाकर्ता जूनियर इंजीनियर के रूप में काम कर रहा था, जब पीसीसी टाइल्स की आपूर्ति के लिए छह फर्मों के साथ समझौता किया गया था। फर्मों में से एक ने घटिया टाइलों की आपूर्ति की जो निर्दिष्ट अनुबंध आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती थी।

याचिकाकर्ता ने गुणवत्ता परीक्षण की प्रतीक्षा किए बिना टाइलों को स्वीकार कर लिया और माप पुस्तिका में बिल दर्ज कर दिया, जिससे ठेकेदार को घटिया टाइलों के लिए भुगतान किया गया। इससे सरकार को भारी आर्थिक नुकसान हुआ है।

परिणामस्वरूप, जल संसाधन विभाग ने सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम, 1930 के नियम 55 के तहत याचिकाकर्ता के खिलाफ विभागीय कार्यवाही शुरू की। बाद में, कार्यवाही को सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) ‌नियम के नियम 55ए में परिवर्तित कर दिया गया।

याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप यह था कि उसने सरकारी खजाने को वित्तीय नुकसान पहुंचाया था और अपने कर्तव्य में लापरवाह की थी। याचिकाकर्ता को एक सजा दी गई थी, जिसमें उसकी पदोन्नति को 10 साल की अवधि के लिए रोकने का आदेश दिया गया था। हालांकि, 2006 में हाईकोर्ट द्वारा सजा के आदेश को रद्द कर दिया गया था, और वसूल की गई राशि को वापस करने का निर्देश जारी किया गया था।

इसके बाद प्रतिवादियों ने उक्त आदेश के खिलाफ एक एलपीए दायर किया, जिसे 2010 में खारिज कर दिया गया, लेकिन अदालत ने राज्य विभाग को याचिकाकर्ता के खिलाफ कानून के अनुसार आगे बढ़ने की स्वतंत्रता दी।

मुख्य अभियंता ने बिहार सरकार सेवक (वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील) नियमावली, 2005 के नियम 17 के तहत याचिकाकर्ता के खिलाफ कार्यवाही की। कार्यवाही के लंबित रहने के दरमियान याचिकाकर्ता सेवानिवृत्त हो गया, और कार्यवाही को बिहार पेंशन नियमों के नियम नियम 43 बी के तहत कार्यवाही में परिवर्तित कर दिया गया।

याचिकाकर्ता को आरोप का मेमो फिर से दिया गया और कार्यवाही में भाग लेने के बाद, जांच अधिकारी ने याचिकाकर्ता को आरोपों से मुक्त कर दिया। हालांकि, विभाग जांच अधिकारी के जांच और निष्कर्ष से असहमत था, और याचिकाकर्ता को दूसरा शो-कॉज जारी किया गया था, जिसके बाद उसकी पेंशन के 5% पर रोक लगाने का आदेश पारित किया गया था।

निर्णय

जस्टिस सिन्हा ने याचिकाकर्ता के तर्क की ओर इशारा करते हुए बिहार सरकारी सेवक (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम, 2005 के नियम 9(5) की सावधानीपूर्वक जांच की और कहा कि उक्त नियम प्राधिकरण को विभागीय कार्यवाही नए सिरे से शुरू करने से रोकता नहीं है।

"...यह नियम इस बात पर विचार करता है कि जहां अदालत ने मामले के गुण-दोष पर विचार किए बिना विशुद्ध रूप से तकनीकी आधार पर जुर्माने को रद्द करने का आदेश पारित किया है, उन आरोपों पर जिन पर मूल रूप से बर्खास्तगी, हटाने या अनिवार्य सेवानिवृत्ति का जुर्माना लगाया गया था, सरकारी कर्मचारी को बर्खास्तगी, हटाने या अनिवार्य सेवानिवृत्ति के मूल आदेश की तारीख से नियुक्ति प्राधिकारी द्वारा निलंबन के तहत रखा गया माना जाएगा और अगले आदेश तक निलंबन के तहत जारी रहेगा।"

जस्टिस सिन्हा ने तब कहा कि वर्तमान मामले में, खंडपीठ ने राज्य को कानून के अनुसार याचिकाकर्ता के खिलाफ नए सिरे से कार्यवाही शुरू करने की अनुमति दी थी।

प्रतिवादियों ने तब अदालत द्वारा दी गई इस स्वतंत्रता के आधार पर याचिकाकर्ता को आरोप का एक नया मेमो दिया था। याचिकाकर्ता ने ऐसा कोई प्रासंगिक कानून या नियम प्रस्तुत नहीं किया जो अनुशासनात्मक प्राधिकरण को कानून के अनुसार फिर से आगे बढ़ने के लिए रिट अदालत द्वारा अनुमति दिए जाने के बाद अपराधी के खिलाफ एक नई कार्यवाही शुरू करने से रोकता या प्रतिबंधित करता हो।

इसके अलावा, जस्टिस सिन्हा ने कहा कि पहली सजा के आदेश को अदालत ने इस आधार पर रद्द कर दिया था कि दस साल के लिए पदोन्नति पर रोक सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम, 1930 के नियम 55ए के तहत नहीं दी जा सकती। इसमें इस संदर्भ में खंडपीठ ने प्रतिवादियों को याचिकाकर्ता के खिलाफ कानून के अनुसार फिर से कार्यवाही करने की अनुमति प्रदान की थी।

हालांकि, रिट आवेदन को खारिज करते हुए, जस्टिस सिन्हा ने अपने आदेश में आगे कहा कि, "दंड के आदेश की वैधता का परीक्षण करते समय न्यायालय को निर्णय लेने की प्रक्रिया में दोष देखने की आवश्यकता होती है "

रिट आवेदन को खारिज करते हुए अदालत ने आगे कहा कि, "याचिकाकर्ता ने विभागीय कार्यवाही में किसी भी प्रक्रियात्मक दुर्बलता और/या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन की ओर इशारा नहीं किया गया है।"

केस टाइटल: अवध तिवारी बनाम बिहार राज्य और अन्य

सिविल रिट ज्यूरिसडिक्‍शन केस नंबर 12132 ऑफ 2013

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