दिल्ली हाईकोर्ट ने कथित पिता के नाबालिग बच्चे से मिलने के अधिकार को बरकरार रखा
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि एक कथित पिता मुलाकात के अधिकारों का हकदार है और एक नाबालिग बच्चे को उसके व्यक्तिगत विकास और उत्थान के लिए माता-पिता के स्पर्श और प्रभाव से अछूता नहीं रखा जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा कि,''इस तथ्य पर कोई विवाद नहीं हो सकता है कि प्रतिवादी,एक कथित पिता होने के नाते मुलाक़ात के अधिकारों का हकदार होगा। ऐसे अधिकारों का निर्धारण और राहत प्रदान करते समय, विशेष रूप से जब बच्चा तीन साल से कम उम्र का होता है, तो निश्चित रूप से उसका कल्याण सबसे महत्वपूर्ण होता है। साथ ही, नाबालिग को माता-पिता के स्पर्श -संदर्भः रुचि माजू (सुप्रा), और बच्चे के स्वस्थ विकास और उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए दूसरे माता-पिता के प्रभाव से अछूता नहीं रखा जाना चाहिए।''
यह देखते हुए कि नाबालिग बच्चे की उम्र अभी तीन साल से भी कम है,जस्टिस वी कामेश्वर राव ने 28 अक्टूबर, 2021 को फैमिली कोर्ट द्वारा पारित आदेश में संशोधन किया है। फैमिली कोर्ट ने पिता (putative father) को नाबालिग बच्चे से हर दिन दो घंटे मुलाक़ात करने का अधिकार प्रदान किया था।
न्यायालय ने आदेश में संशोधन किया और निर्देश दिया कि प्रतिवादी पिता के पास दैनिक के बजाय वैकल्पिक कार्यदिवस पर मुलाक़ात का अधिकार होगा अर्थात सप्ताह में कुल दिन वह बच्चे से मिल सकता है।
याचिकाकर्ता मां का यह कहना था कि ट्रायल कोर्ट ने संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890(Guardian and Wards Act, 1890) की धारा 12 रिड विद हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम,1956 (Hindu Minority and Guardianship Act, 1956)की धारा 6 (ए) और 6 (बी) रिड विद सीपीसी की धारा 151 के तहत पिता की तरफ से दायर आवेदन को आंशिक रूप से अनुमति देने में गलती की है।
याचिकाकर्ता का यह तर्क था कि प्रतिवादी, जो कि नाबालिग बच्चे का पिता है, ने खुद माना है कि वह एक कथित पिता है।
प्रतिदिन शाम 6 बजे से रात 8 बजे तक मिलने के अधिकार दो प्रमुख आधारों पर दिए गए हैं अर्थात, (1) प्रतिवादी ने नाबालिग बच्चे के पितृत्व को स्वीकार किया था और; (2) प्रतिवादी उसी परिसर में रहता है जहां नाबालिग बच्चा और याचिकाकर्ता एक अलग मंजिल पर रहते हैं।
इन आधारों पर, ट्रायल कोर्ट मुलाक़ात के अधिकार देने के लिए आगे बढ़ा, हालांकि, याचिकाकर्ता ने दावा किया कि यह गलत था और प्रतिवादी के गलत बयान पर आधारित था।
इसलिए, न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या प्रतिवादी को प्रतिदिन दो घंटे के लिए नाबालिग बच्चे से मिलने के लिए फैमिली कोर्ट द्वारा मुलाकात के अधिकार की अनुमति देना उचित था?
जबकि याचिकाकर्ता मां का मामला यह है कि कथित पिता/ प्रतिवादी एक जैविक पिता की तरह मुलाकात या बच्चे की कस्टडी पाने का हकदार नहीं है। वहीं प्रतिवादी के वकील ने तर्क दिया कि नाबालिग बच्चे के पितृत्व को कभी भी विवादित नहीं किया गया है क्योंकि फैमिली कोर्ट के समक्ष प्रतिवादी ने खुद स्वीकार किया है कि वह बच्चे का जैविक पिता है।
इससे पहले, जस्टिस रेखा पल्ली ने कथित पिता को मुलाक़ात का अधिकार देने वाले आदेश पर रोक लगा दी थी।
याचिकाकर्ता-मां ने यह तर्क देते हुए हाईकोर्ट का रुख किया था कि प्रतिवादी कई महीनों से वहां नहीं रह रहा है और 2 साल के बच्चे को आक्षेपित आदेश के आधार पर विभिन्न अज्ञात स्थानों पर लेकर जाता है, जिससे नाबालिग बच्चे की दिनचर्या प्रभावित होती है।
उसने यह भी प्रस्तुत किया कि हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 के तहत एक कथित पिता एक जैविक पिता के समान नहीं है। वहीं माँ और बच्चे की दिनचर्या को इस तरह के सख्त, कठिन और अनुचित शासन के अधीन नहीं किया जा सकता है।
फैमिली कोर्ट के समक्ष याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि चूंकि प्रतिवादी-पिता ने शादी से इनकार कर दिया था, इसलिए बच्चा नाजायज है और हिंदू अप्राप्तवयता और संरकक्षता अधिनियम, 1956 की धारा 6 के अनुसार वह बच्चे की कस्टडी का हकदार नहीं है और इसलिए, प्रतिवादी को मुलाक़ात का अधिकार भी नहीं दिया जा सकता है।
दूसरी ओर, प्रतिवादी/कथित पिता ने बच्चे के जन्म को स्वीकार किया , हालांकि उसने कहा कि उसके और याचिकाकर्ता के बीच कोई वैध विवाह नहीं हुआ था। इस प्रकार, उसने बच्चे के पितृत्व से इनकार नहीं किया और आवेदन में इस बात को स्वीकार किया कि बच्चा उसी का है।
कोर्ट ने अमायरा द्विवेदी बनाम अभिनव द्विवेदी व अन्य के मामले सहित सुप्रीम कोर्ट के प्रासंगिक निर्णयों का उल्लेख किया, जिनमें यह माना गया था कि बच्चे को माता-पिता दोनों के प्यार और स्नेह का अधिकार है, जो माता-पिता दोनों के बच्चे तक पहुंच प्राप्त करने के विशेषाधिकार का स्थान ले लेता है।
कोर्ट ने प्रदीप संतोलिया व अन्य बनाम राज्य व अन्य के मामले में हाईकोर्ट की एक समन्वय पीठ द्वारा दिए गए एक फैसले का भी उल्लेख किया। जिसमें यह माना गया था कि बच्चे के स्वस्थ भावनात्मक गुणक और मजबूत मनोवैज्ञानिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए पिता के साथ बच्चे के संबंध पूरी तरह से और हमेशा के लिए बंद नहीं होने चाहिए, उसके लिए माता-पिता दोनों का स्नेह आवश्यक होगा।
इसलिए, आक्षेपित आदेश को संशोधित करते हुए, न्यायालय ने कथित पिता को बच्चे की सुरक्षा और भलाई सुनिश्चित करने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि आवश्यक कोरोना प्रोटोकॉल का पालन किया जाए और बच्चे को सार्वजनिक स्थानों पर गैर-जरूरी सैर के लिए न लेकर जाए।
अदालत ने कहा, ''यह निर्देश प्रतिवादी को बच्चे को आसपास के पार्क में ले जाने से नहीं रोक रहा है। लेकिन प्रतिवादी बच्चे को दिल्ली की अदालतों की क्षेत्रीय सीमा से बाहर लेकर न जाए।''
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता शिवानी लूथरा लोहिया, अस्मिता नरूला, अनुभव सिंह और प्रियंका प्रशांत के साथ वरिष्ठ अधिवक्ता गीता लूथरा पेश हुईं। प्रतिवादी की ओर से अधिवक्ता गौरी ऋषि, मानव गुप्ता, सृष्टि जुनेजा, गरिमा सहगल, साहिल गर्ग, अंकित गुप्ता और प्रविता कश्यप के साथ वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका एम. जॉन पेश हुईं।
केस का शीर्षक- किनरी धीर बनाम वीर सिंह
साइटेशन- 2022 लाइव लॉ (दिल्ली) 236
आदेश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें