बुजुर्गों की डांंट-डपट आम बात, बहू को घर का काम करने को कहना अस्वाभाविक नहीं : केरल हाईकोर्ट

Update: 2020-05-31 16:55 GMT

 केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि बुज़ुर्गोंं का बहू को घर का काम करने को कहना अस्वाभाविक बात नहीं है। अदालत ने पति की कूरता के आधार पर तलाक़ की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह बात कही।

याचिका में कहा गया है कि याचिकाकर्ता की सास ने उससे उस समय भी घर के सारे काम करवाए जब वह एक ऑपरेशन के बाद स्वास्थ्य लाभ ले रही थी। सास ने उसे गालियांं दी, उसके साथ शारीरिक और मानसिक दुर्व्यवहार किया। लेकिन इसके बावजूद वह अपने पति और बच्चा के साथ रहना चाहती थी। 

अदालत ने कहा कि परिवार से सास को हटाने की बात का कोई उचित कारण उसे नहीं दिख रहा है।

पीठ ने कहा कि प्रतिवादी अपनी सास से छुटकारा पाना चाहती है और उसने पूछताछ के दौरान जो बातें कही हैं उससे यह साफ़ स्पष्ट होता है।

अदालत ने कहा,

"…प्रतिवादी याचिकाकर्ता की मां को छोड़कर सुखमय जीवन जीना चाहती है क्योंकि उसके हिसाब से उसके वैवाहिक जीवन में आयी सारी मुसीबतों की वह जड़ है।"

कोर्ट ने कहा कि प्रतिवादी ने याचिका में उसने इस पर ज़ोर नहीं दिया है कि जब उसने शादी की तब उसका पति शराबी था हालाँकि, उसने दावा किया कि अपनी मां के बहकावे में आकार वह रात को देरी से शराब पीकर घर आता था और उसे और उसके बच्चे से मारपीट करता था। इसके उलट, उसने इस बात पर जोर दिया है कि वह प्यारा और स्नेही था और ज़िंदगी बहुत ही शांतिपूर्ण, सुखद और आरामदाक थी।

अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा,

"इस बात के प्रमाण हैं कि प्रतिवादी और याचिककर्ता की मां के बीच संबंध अच्छे नहीं थे और उनके बीच अमूमन लड़ाई होती थी। इसलिए यह स्वाभाविक है कि याचिकाकर्ता को इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा। एक पत्नी कि लिए भी यह स्वाभाविक है कि उस परिस्थिति में वह पति पर अपने परिवार से अलग होने का दबाव डाले पर यह उसके लिए बहुत ही पीड़ादायक हो सकता है।"

अदालत ने यह भी कहा कि फ़ैमिली कोर्ट का काम फ़ैसला देना है, परामर्श देना नहीं।

पारिवारिक अदालत की जहाँ तक बात है, उसने शादी को विघटित करने की अनुमति नहीं दी और कहा कि यह ज़रूरी है कि उनके बीच प्रेम, स्नेह और आपसी सम्मान के माध्य से सामंजस्य बनाया जाए, और इस बारे में हाईकोर्ट का मत था कि उसे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि फ़ैमिली कोर्ट का उपरोक्त मत व्यक्त करना अनुचित है।

पारिवारिक अदालत का विचार यह रहा है कि स्थिति ऐसी है कि प्रतिवादी/पत्नी पति के साथ अपने ससुराल जा सकती है और वहाँ सुखद जीवन जी सकती है, और जैसा कि स्वाभाविक है, अगर प्रतिवादी इस सुझाव के प्रति सकारात्मक रुख नहीं दिखाता है, याचिकाकर्ता वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए कोई एक तरीक़ा अपना सकता है। उसने अपने फ़ैसले में कहा था, "इस तरह के विचार को सुनकर, मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि परिस्थिति ऐसी नहीं है कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के बीच वैवाहिक संबंधों को समाप्त कर दिया जाए।

अदालत ने कहा,

"ऐसा करके फ़ैमिली कोर्ट ने परामर्शदाता की भूमिका को अपना लिया था न कि फ़ैसला करनेवाले का। अदालत के पास फ़ैसले के लिए जब कोई मामला आता है उससे पहले परामर्श की बहुत सारी कोशिशें हो चुकी होती हैं। फिर कोर्ट की भूमिका उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर फ़ैसला करने की है। फ़ैमिली कोर्ट पक्षकारों को समाधान का सुझाव देना और निर्देश जारी करना नहीं है। फ़ैमिली कोर्ट ने इस मामले से जिस तरह से निपटा है उससे हम संतुष्ट नहीं हैं।"

आदेश डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 



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